अमन मिश्रा
जहां एक ओर सरकार विकास के बड़े-बड़े दावे कर रही है, वहीं ज़मीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर पेश कर रही है। विकास के नारों के बीच सिमडेगा जिले का चिरौ बेड़ा गांव आज भी बूंद-बूंद पानी को तरस रहा है। इस गांव की स्थिति इतनी दयनीय है कि ग्रामीणों को पीने के पानी के लिए बालू में गड्ढा खोदना पड़ता है। सरकार की बहुप्रचारित 'जल-नल योजना' यहां बस एक साल तक चली और उसके बाद नलों ने पानी देना बंद कर दिया। आज गांव के नल सूखे पड़े हैं और ग्रामीण प्यासे
सिमडेगा सदर प्रखंड के कुलुकेरा बनाबिरा पंचायत में स्थित चिरौ बेड़ा गांव चारों तरफ से जंगल से घिरा हुआ है। सिमडेगा मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर दूर इस गांव तक न कोई पक्की सड़क जाती है, न कोई 4 पहिया वाहन पहुंच सकता है। यहां एम्बुलेंस का पहुंचना तो सपने जैसा है।गांव में करीब 23 घर हैं, लेकिन सुविधाओं के नाम पर यहां कुछ नहीं है। न स्कूल, न स्वास्थ्य केन्द्र, और अब पानी भी नहीं।
गांववालों का कहना है कि आज तक कोई जनप्रतिनिधि या प्रशासनिक अधिकारी गांव में नहीं आया। यह पहली बार था जब आदिवासी कांग्रेस नेता दिलीप तिर्की गांव पहुंचे और ग्रामीणों के साथ बैठक की। लोगों ने दिल खोलकर अपनी पीड़ा उन्हें सुनाई उन्होंने कहा कि "आज तक किसी ने हमारा हाल नहीं पूछा, न नेता, न सरकार"।
ग्रामीणों ने बताया कि तीन साल पहले जल नल योजना के तहत पाइप लगाए गए थे, लेकिन केवल एक साल तक ही नल से पानी आया। इसके बाद योजना ठप हो गई। आज हालात यह हैं कि लोग बालू में गड्ढा खोदकर रिसते पानी को जमा कर पीने को मजबूर हैं।
गांव की महिलाएं बताती हैं कि कितनी मेहनत के बाद एक बाल्टी पानी मिल पाता है वो भी गंदा, बदबूदार और असुरक्षित। गर्मी के मौसम में हालात और बिगड़ जाते हैं, बच्चे बीमार पड़ते हैं, बुजुर्ग बेहाल हो जाते हैं।
चिरौ बेड़ा गांव का हर नागरिक एक ही सवाल पूछता है — "ये कैसा विकास है, जहां जीने के लिए पानी तक नसीब नहीं?" क्या जल नल योजना सिर्फ दिखावा बनकर रह गई? क्या चुनावों के बाद नेता इन गांवों को भूल जाते हैं?इस गांव की कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं, बल्कि देश के उन सैकड़ों गांवों की है जो विकास की दौड़ में पीछे छूट गए हैं — जहां लोगों को जीने के लिए बालू खोदकर पानी निकालना पड़ता है।
चिरौ बेड़ा गांव की तकलीफ सिर्फ पानी तक सीमित नहीं है। यहां सड़क नाम की कोई चीज़ मौजूद नहीं। गांव तक पक्की सड़क नहीं होने के कारण न कोई वाहन अंदर आ सकता है, न एम्बुलेंस। बरसात के दिनों में यह गांव पूरी तरह दुनिया से कट जाता है।बीमार या गर्भवती महिला को अस्पताल पहुंचाना हो तो लोग चारपाई को ही एम्बुलेंस बना लेते हैं। गांव के युवाओं को मरीज को कांधे पर उठाकर 3-4 किलोमीटर तक कच्चे रास्ते पर चलना पड़ता है, तब जाकर मुख्य सड़क तक पहुंच पाते हैं।ग्रामीणों ने बताया कि कई बार सिर्फ सही वक्त पर अस्पताल न पहुंच पाने के कारण जान चली गई। इसके बावजूद अब तक कोई जनप्रतिनिधि या प्रशासनिक पहल नहीं हुई है।