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भारत-चीन जंग 1962: CIA, माओ और नेहरू की भूमिका की पड़ताल 

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पुष्परंजन, दिल्‍ली:

साठ के दशक में भयानक बदहाली से गुजरता हुआ देश चीन। चेयरमैन माओ की सारी तदबीरें उल्टी होती दिख रही थीं। माओ ने 1958 से 1962 के बीच द्वितीय पंचवर्षीय योजना जिसे ‘द ग्रेट लीप फॉरवर्ड‘ कहा जाता है, लागू की थी। उस कार्यक्रम में निजी खेती को निषिद्ध कर सामूहिक खेती और 'कम्युन कल्चर' पर ज़ोर  दिया गया। ऐसा कालखंड, जिसमें हेनान, बानछिआओ मेें बने दर्जनों बांध ढह गए। खेती छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। यांगत्से और येलो नदी में लगातार बाढ़ से अकाल की स्थिति पैदा हो गई। चीनी इतिहासकार वू चियुआंग बताते हैं, ‘द ग्रेट लीप के दुष्परिणामों की वजह से 5 करोड़ 60 लाख लोग मारे गए थे।' हाथ में कटोरा थामे चीन 1962 का युद्ध कैसे लड़ रहा था? माओ की आलोचना करने वाली चीनी लीडरशिप इस सवाल पर चुप हैं।9 सितंबर 1976 को माओ की मृत्यु के बाद तंग श्याओ फिंग ने पद संभाला था। 1966 से 1976 के बीच 'कल्चरल रेवोल्यूशन' के नाम पर माओ से जितनी गंभीर गलतियां हुईं, उसके विरूद्ध आधिकारिक आवाज उठाने वाले तंग श्याओ फिंग ही थे। मगर, तंग श्याओ फिंग ने आर्थिक रूप से चरमराए चीन को 1962 के युद्ध में झोंक दिए जाने की निंदा नहीं की। बाद की लीडरशिप चियांग जेमिन, हू चिन्थाओ भी चुप रहे। शी चिनफिंग ने भी इस सवाल पर चुप्पी साध रखी है। इंस्टीच्यूट ऑफ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज ने 11 जुलाई, 2014 को ‘इंडिया-चाइना 1962 वार : एन ओपन सीक्रेट’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें जानकारी दी गई कि 1962 के युद्ध में पीएलए के 722 सैनिक मारे गए थे और 1400 घायल हुए थे। उनके बरक्स 1383 भारतीय सैनिक शहीद हुए थे और 1047 घायल।

 

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1962 का मोर्चा मैकमोहन लाइन पर खुला था, जो पूर्वी सीमा भूटान से शुरू होकर ब्रह्मपुत्र  घाटी तक लगती है और दूसरा मोर्चा था लदाख में। चीन के मिलिट्री हिस्टोरियन और पीएलए नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शू यान ने जानकारी दी थी कि नेहरू चीन और भारत के बीच तिब्बत को बफर जोन में तब्दील करना चाहते थे। मार्च 1959 में ल्हासा विद्रोह के बाद भारतीय लीडरशिप अलगाववादियों की महत्वाकांक्षा को आगे बढ़ा रही थी। चीनी खुफिया मुख्यालय ‘मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट सिक्योरिटी’ के वरिष्ठ अधिकारी चाओ वेईवेन दक्षिण एशियाई डेस्क लंबे समय तक संभाल चुके हैं, उन्होंने 1947 से 1952 के कालखंड की समीक्षा करते हुए लिखा कि भारत, ब्रिटेन के नक्शे कदम पर चल रहा था, उसकी कोशिश थी कि तिब्बत को स्वायत प्रदेश का दर्जा मिले। यह दीगर है, उन दिनों ब्रिटेन, अमरीका, मिडल ईस्ट देशों की सरकारें भारतीय नेतृत्व वाली लाइन ऑफ एक्शन का समर्थन कर रही थीं। फिर भी पीएलए का दबाव तिब्बत और शिन्चियांग पर लगातार बना हुआ था। मई 1951 में 17 सूत्री समझौता हुआ और उसके प्रकारांतर 1954 में भारत-चीन के बीच एक विस्तृत समझदारी विकसित हुई, जिसके तहत तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया गया। 1959 के मध्य भारत को तिब्बत से खाद्य सामग्री, पेट्रोलियम पदार्थ और आवश्यक वस्तुओं  के व्यापार की आधिकारिक अनुमति मिल गई थी।

 

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मगर, जो खेल सीआईए ने 1957 से 1951 के बीच किए, उन गतिविधियों पर से आंख मूंद लेने से तिब्बत मामले का सही आकलन नहीं किया जा सकता। सीआईए उन दिनों बाकायदा उत्तर-पूर्वी तिब्बत के खाम क्षेत्र में विद्रोही तैयार करने में अपनी ताकत झोंक चुका था। अमरीकी सेना के' टेंथ माउंटेन डिवीजन' ने वर्जीनिया और कोलाराडो के कैंप हाले में खंफा गुरिल्लों को प्रशिक्षित किया। नेपाल सीमा से लगे खाम में युद्ध के वास्ते 14 हजार गुरिल्ले और 3900 पशु (ख़ुसूसन याक, कुत्ते और बन्दर)  भी सीआईए के प्रशिक्षण कार्यक्रम के हिस्से थे। 1958 में यह सबकुछ सीआईए के तत्कालीन निदेशक ऐलेन डलेस की देखरेख में चल रहा था। तिब्बत में माओ विरोध की मुख्य वजह क्या थी? यह भी जान लेना चाहिए। माओ ने 1958 से 1962 के बीच जिस ‘द ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ योजना को लागू किया था, उसके दुष्परिणामों से तिब्बत अछूता नहीं रह सका था। माओ ने निजी खेती पर रोक लगाकर सामूहिक खेती और कम्युन सिस्टम को मेन लैंड चाइना के साथ-साथ तिब्बत में भी अमल करवाया था। तिब्बत का खाम, आम्दो और गोलोक के लोग इस जोर-जबर्दस्ती से भयानक रूप से प्रभावित हुए। मेन लैंड चाइना की तरह तिब्बत में भी अकाल पड़ा, लोग दाने-दाने को तरस गए। कोई पांच लाख मौतें तिब्बत में हुईं। तिब्बत में रोड कंस्ट्रक्श्‍न के बहाने बड़ी मात्रा में हान चाइनिज बसाए गए, जो शिन्चियांग तक घुस आए।

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इसके अलावा पूर्वी तिब्बत में माओ ने सांस्कृतिक क्रांति के तहत मठों को उजाड़ देने, मूर्तियों को ध्वस्त करने का आदेश दे रखा था। अकाल मृत्यु और धार्मिक अधिकारों से वंचित की जाने वाली कार्रवाई को मार्शल रेस कहे जाने वाले खंफा बर्दाश्त नहीं कर पाए। उन्हें निरस्त्र और नियंत्रित करने के वास्ते चीन को नेपाल सरकार से भी समझौता करना पड़ा। नेहरू तिब्बत में सीआईए की गतिविधियों से कितना वाकिफ थे, ऐसा कुछ उनके छोड़े दस्तावेजों को देखने से स्पष्ट नहीं होता। चीन-तिब्बत मामलों के जानकार स्टीवेन ए होफमैन भी सुनिश्‍चित नहीं थे कि नेहरू को सीआईए के ‘कवर्ट ऑपरेशन’ की कोई जानकारी थी। इसलिए तिब्बत में जो कुछ हुआ, उसे नए सिरे से खंगालने की जरूरत है। दलाई लामा का महाभिनिष्क्रमण और भारत में तिब्बतियों की निर्वासित सरकार अकेले नेहरू का फैसला नहीं था। सीआईए द्वारा अब तक दिए जा रहे सालाना फंड, ट्रेनिंग को ध्यान से देखने पर पता चलता है, जैसे इसकी पटकथा वाशिंगटन में लिखी गई हो। ‘चाइना डिसीजन फॉर वार विद इंडिया’ के पेज 96 से 99 में इसकी चर्चा है कि तिब्बती 1950, 1959 और 1960 में तीन बार संयुक्त राष्ट्र से और अधिक स्वायतता दिए जाने का आग्रह कर चुके थे।

तब नेहरू की तरफ से ब्रिटेन, अमरीका व दूसरी शक्तियों से अपील की गई कि तिब्बतियों से संपर्क नहीं गांठें, इससे क्षेत्रीय अस्थिरता का खतरा बढ़ता है। मगर अमरीकी इस पर अड़े थे कि तिब्बतियों को अधिक स्वायत्तता मिलनी ही चाहिए। खंफा योद्धाओं की ट्रेनिंग के उपरांत उनकी सक्रियता तिब्बत में बढ़ चुकी थी, नतीजतन दार्जिलिंग, कलिंगपोंग, डुआर्स, सिक्किम, नेपाल का मनांग तिब्बती शरणार्थियों से भरने लगा था। तिब्बती मामलों के एक्सपर्ट और इतिहासकार त्सेरिंग शाक्य स्वीकार करते हैं कि 1959 और 60 के बीच इस इलाके की कूटनीति को नेहरू ने जिस तरह हैंडिल किया था, उससे चीन बहुत हद तक हर्षित और आश्‍वस्त था। नेहरू जो शक्ति संतुलन चाह रहे थे, वो सारी तदवीरें उल्टी पड़ रही थीं। ल्हासा विद्रोह और उसके प्रकारांतर 17 मार्च 1959 को दलाई लामा के महाभिनिष्क्रमण के बाद पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने तिब्बत का लोक्का क्षेत्र, नेफा और भूटान से लगी सीमाओं को सील कर दिया। इन इलाकों को सील करने के बाद चीन और भारत के संबंध सामान्य नहीं रह गए थे। लोक्का-नेफा सीमा पर 23 अगस्त, 1959 को पहली बार पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) और भारतीय सेना के बीच झड़प हुई। उसके बाद बड़े स्केल पर युद्ध के बादल मंडराने लगे थे, मगर ख्रुश्‍चेव के हस्तक्षेप से यह टल गया।

सितंबर, 1959 में ख्रुश्‍चेव चीन के हांगचोऊ पहुंचे, पहला विषय था लोक्का-नेफा तनाव को कम करना। माओ, चाउ एनलाई, पीआसी के प्रेसिडेंट ल्यू शाओची, चीनी सेना प्रमुख जनरल लेई यींगफू, माओ के सचिव हू छियाओमू , ख्रुश्‍चेव के साथ विमर्श  में उपस्थित थे। युद्ध विराम पर सहमति बनी, चीनी सेना 20 किलोमीटर पीछे हटी और वास्तविक नियंत्रण रेखा को स्वीकार किया। ख्रुश्‍चेव के बीच-बचाव से दोनों पक्षों ने सीमा पर 23 महीने तक शांति बनाए रखा। 26 फरवरी, 1962 को पेइचिंग की ओर से भारत को पत्र भेजा गया कि वह सीमा विवाद सुलझाए। पीएलए को सबसे अधिक दिक्कत नेहरू द्वारा स्थापित फारवर्ड लाइन को लेकर थी। चीन का कहना था कि भारतीय सेना ने नेहरू की फारवर्ड पॉलिसी स्थापित करने के बहाने चीन का दो हजार वर्गमील इलाका कब्जा कर लिया है। 5 मई, 1962 को लोंगचू चौकी से पहली गोलीबारी हुई। 19 मई 1962 को एक बार फिर गोलाबारी।  जुलाई 1962 में नई दिल्ली स्थित सेना मुख्यालय से सभी पोस्ट कमांडरों को आदेश जारी हुआ कि चीनी सेना गोली चलाती है, तो उसका मुंहतोड़ जवाब देना है।

 

नेहरू पर देश के अंदर भी जबर्दस्त दबाव था. चंद उदाहरण की चर्चा यहाँ ज़रूरी है, जून 1959 में गांधीवादी कहे जाने वाले जय प्रकाश नारायण ने बयान दिया कि तिब्बत सेक्युलर होने से अच्छा धर्म प्रधान स्टेट रहे, चाहे वह आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़ा क्यों न हो जाए, मगर किसी देश को इसका अधिकार नहीं है कि वह वहां पर विकास के नाम पर अपनी मर्जी थोपे। जेपी का साफ इशारा था कि तिब्बत को माओवादी राह पर अग्रसर होने की आवश्यकता नहीं, उसे बौद्ध मठों के अधीन ही रहने दिया जाए। मतलब, भारत तिब्बतियों की स्वायत्तता के लिए मदद करे। 2011 में इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने हारवर्ड-येन्छिंग इंस्टीच्यूट के लिए एक सीरिज लिखी थी ‘जवाहर लाल नेहरू एंड चाइना : ए स्टडी इन फेल्योर?’ रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 1950 में सरदार पटेल का निष्कर्ष था कि चीन, कम्युनिस्ट से अधिक एक राष्ट्रवादी देश है और उससे ‘फुल स्केल वार’ की संभावना कभी नहीं बनती। सरदार पटेल की मृत्यु 15 दिसंबर 1950 को हुई थी, तो क्या उनके कहे शब्द को नेहरू ने शास्वत मान लिया था? जुलाई 1958 में पेइचिंग में एक नक्शा मुद्रित हुआ था, जिसमें भारत के एक बड़े हिस्से को चीनी अधिकार क्षेत्र में दर्शाया गया था। क्या यह भारत के लिए वेकअप कॉल नहीं था, और पटेल उससे अनभिज्ञ थे?

चीन के प्रति एक और उदगार संघ प्रमुख एमएस गोलवरकर ने 1960 में व्यक्त किए थे। रामचंद्र गुहा उसी लेखमाला में लिखते हैं कि गुरु गोलवरकर ने कहा था- ' चीन पंचशील के सिद्धांतों के लिए सबसे मुखर रहा है। पिछले दो हजार वर्षों से चीन हमारा महान पड़ोसी और मित्र रहा है, तब से हमारा दोस्त है जब से उसने बौद्ध धर्म को अंगीकार किया।' अब प्रश्‍न यह उठता है कि तत्कालीन संघ प्रमुख गुरु गोलवरकर भी पटेल की तरह पेइचिंग में प्रकाशित चीनी नक्शे से अनभिज्ञ थे? 1998 में पत्रकार एमवी कामथ ने अपने एक आलेख में पंडित दीनदयाल उपाध्याय को कोट किया, जिसमें सितंबर, 1959 में चीन के विरूद्ध कार्रवाई न करने के वास्ते पंडित नेहरू को उन्होंने ‘वाजिद अली शाह’ की उपाधि दे डाली थी। उसके हफ्ते भर बाद आर्गेनाइजर में पंडित दीनदयाल उपाध्याय लिखते हैं कि नेहरू, चीन से भिड़ने से इसलिए बच रहे हैं, क्योंकि उन्हें घायल होने का डर सता रहा है। ऐसे में अकेले नेहरू को, सन 62 के युद्ध का ज़िम्मेदार क्यों माना जाना चाहिए?

 

(कई देशी-विदेशी मीडिया  हाउस में काम कर चुके लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संंप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक)

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