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दिन रेख़्ता-़3: वह इत्रदान-सी एक ज़बान- दिलों में नाज़ुकी और हवा में ख़ुशबू

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(उर्दू और हिंदी दोनों ठेठ भारतीय भाषाएं हैं। दोनों का उदय भी लगभग एक साथ ही हुआ। बाद में दोनों की राहें अलग-अलग हो गईं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्‍टिस रहे आनंद नारायण मुल्‍ला ने क्‍या खूब शेर कहा है, 'उर्दू और हिंदी में फ़र्क़ सिर्फ़ है इतना,हम देखते हैं ख्‍़वाब वो देखते हैं सपना।' हिंदी के प्राध्‍यापक और लेखक विनीत कुमार के आप दो संस्‍मरणात्‍मक लेख पढ़ चुके हैं कि उन्‍होंने उर्दू कैसे सीखी। अब पढ़िये उर्दू दिवस पर दिन रेख़्ता की तीसरी कड़ी में पुलिस के एक आला अधिकारी की राय-संपादक)

ध्रुव गुप्त, पटना:

उर्दू को ऐसे ही मुहब्बत की भाषा नहीं कहा गया है। सचमुच ही यह ऐसी भाषा है जिसे सुनते ही दिलों में नाज़ुकी और हवा में ख़ुशबू तैर जाती है।  जो तहज़ीब, बांकपन और दिलों में उतर जाने की अदा उर्दू में है, वह और कहां ? मेरा दुर्भाग्य रहा  कि मैं  कभी शुद्ध-शुद्ध उर्दू का उच्चारण नहीं कर सका। ज़ुबां में ऐसी लोच ही नहीं आई।  दोस्तों को खूबसूरत अंदाज़ में उर्दू बोलते सुनकर मुझे उनसे ईर्ष्या होती है।  एक दफ़ा मुझे ग़ज़ल के गुर सिखा रहे उर्दू के एक उस्ताद शायर को मैंने कहा - मैंने बहुत कोशिश की उस्ताद,  लेकिन मेरी ज़बान से आपलोगों जैसी उर्दू नहीं निकलती ही नहीं। उनका कहना था - 'मुहब्बत कर लीजिए ज़नाब, उर्दू अपने आप आ जाएगी।' आज यह देखकर अफ़सोस होता है  कि एक ही भाषा से  जन्मी और हिन्दी की सगी बहन कही जाने वाली मुहब्बत की यह भाषा अपने ही वतन में उपेक्षा झेल रही है।

 

हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बताया जाने लगा है। नतीज़तन  उर्दू के बोलने  और इसकी क़द्र करने वाले लोगों की संख्या में  तेजी से कमी आ रही है।  यह अफ़सोसनाक तो है, लेकिन इसमें ताज़्ज़ुब की कोई बात नहीं। मुहब्बत और मुहब्बत की ज़बान ने इतिहास के किस दौर में उपेक्षा और बदसलूकी नहीं झेली है ? आज विश्व उर्दू दिवस पर उर्दू प्रेमियों को मुबारकबाद, बशीर बद्र साहब के इस शेर के साथ -

वो इत्र-दान सा लहजा मिरे बुज़ुर्गों का

रची-बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुश्बू !

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(लेखक आईपीएस अफ़सर रहे हैं। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।