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जेपी स्मृति-3: संघर्ष वाहिनी की बैठक होनी थी, दुखद समाचार मिला जयप्रकाश नहीं रहे! 

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श्रीनिवास, रांची:

उस दिन- आठ अक्टूबर 1979-  मैं मुजफ्फरपुर में था। मेरा परिवार तब वहीं था। हम एक दिन पहले पहुंचे थे। संघर्ष वाहिनी की राष्ट्रीय परिषद में भाग लेने। कनक (लिखना पड़ रहा है, भारी मन से- जो अब नहीं हैं) और शायद अंजली भी साथ थीं। तब तक कनक से रिश्ता महज मित्रता का था। देश भर से साथी आ रहे थे। आ चुके थे। कुछ समारोह स्थल पर, कुछ स्थानीय मित्रों के घर रुके थे। सुबह तैयार होकर नाश्ता करते हुए आठ बजे आकाशवाणी पर वह समाचार- कि जेपी नहीं रहे!  सुन कर हम स्तब्ध रह गये। परिवार के लोग भी। आपस में बिना कुछ बोले हम पटना लौटने की तैयारी करने लगे. तब मोबाइल नहीं था कि किसी से बात हो पाती। मगर यही हाल मुजफ्फरपुर पहुँच चुके अन्य साथियों का भी था। उनमें से अनेक बस स्टैंड पर या पहलेजा घाट (तब तक गंगा पर पुल नहीं बना था; उत्तर बिहार से पटना आने के लिए स्टीमर ही एक साधन था)  पर मिले। महेंद्रू घाट से हम सीधे श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल पहुंचे, जहाँ हमारे सेनानायक का शव रखा था। हम सब हैरान थे कि जेपी के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन के लिए आम और खास लोगों की उस भीड़ में तत्कालीन प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और कद्दावर दलित नेता जगजीवन राम शामिल नहीं थे। उनकी महज व्यस्तता को इसका कारण मानना तो कठिन है। तो? ऊंचे शासकीय पदों पर रहने के बावजूद उस दौरान सत्ता-विहीन जेपी को मिलते रहे सम्मान, उनकी लोकप्रियता, उनकी लोकनायक की हैसियत से चिढ़? ईर्ष्या? पता नहीं।

जसलोक, मुंबई में जेपी

तब तक हम उस सदमे से लगभग उबर चुके थे। वैसे भी जेपी की सेहत अच्छी नहीं थी। नियमित डायलिसिस होती थी। मगर अचानक ऐसा कुछ होगा, यह कल्पना नहीं थी‌। मुझे तो और भी नहीं। दो दिन पहले, छह अक्टूबर को ही तो रात मैं जेपी की तीमारदारी में रहा था। आज उन दिनों को याद करते हुए, यह संस्मरण लिखते हुए भारी दुविधा में हूं- छह की रात के उस अविस्मरणीय अनुभव के बारे में लिखूं; या आठ अक्टूबर के दिन और पूरी रात जेपी के पार्थिव शरीर के आस पास रहते हुए, जेपी के प्रति सच्ची श्रद्धा रखने वाले आम व खास लोगों के अलावा औपचारिकता के तहत आते रहे वीआईपी (जिनमें इंदिरा गांधी और संजय गांधी भी थे) की भीड़ के नजारे को याद करूं? छह की रात का अनुभव एकदम निजी है। अपने वाहिनी नायक के कमरे में रात भर बैठना। उनके इशारे को समझ कर उसके अनुरूप पानी देना या हाथ सहला देना- तनाव और आह्लाद का मिला जुला अनुभव। फिलहाल इसे रहने देता हूं। वैसे भी पहले कई बार लिख चुका हूं।

 

लेकिन आठ और नौ अक्टूबर का दायित्व निश्चय ही बड़ी चुनौती थी- पटना और पूरे बिहार, बाहर से भी, जेपी के अंतिम दर्शन को पहुंच रही भीड़ को संभालना। तब केंद्र में चरण सिंह की सरकार थी। बिहार में भी जनता पार्टी की ही। पुलिस की भारी तैनाती थी। फिर भी मेमोरियल हॉल कैंपस में अनुशासन और शांति बनाये रखने का जिम्मा जेपी द्वारा गठित वाहिनी के सदस्यों का था। उस दिन जुटी भीड़ को देख कर यह एहसास होना कि जेपी कितने बड़े और लोकप्रिय थे, सचमुच लोकनायक, भी एक खास अनुभव था। उस दिन वाहिनी का बढ़ा हुआ भाव देख कर भी मन में गुदगुदी होती थी। अंदर और गेट पर तैनात वाहिनी के साथियों की बांह पर संगठन का बैच बंधा हुआ था। बैच कम पड़ गया तो उसकी फोटो कापी करना ली गयी। विभिन्न जिलों के युवा दावा करते कि मैं वाहिनी का हूं, बैच चाहिए। अंततः कहना पड़ा कि वाहिनी के भी सभी सादस्यों को अंदर रहने की अनुमति नहीं मिल सकती। सामने गांधी मैदान में भारी भीड़। कोई परिचित दिख गया, तो अंदर जाने देने का रिक्वेस्ट। जो कल तक विरोधी थे, ऐसे संगठनों के लोग भी।
'बड़े' नेता/मंत्री आदि आते तो साथ में उनके चेलों-चमचों का हुजूम। हम वाहिनी वालों पर किसी का रौब तो नहीं चलता, पर हम भी एक सीमा से अधिक उद्दंड नहीं हो सकते थे। सबसे तनावपूर्ण माहौल तब बन गया, जब संजय गांधी आये। वाहिनी के ही एक उग्र साथी के मुंह से अपशब्द निकल गये; उनके साथ धक्का-मुक्की जैसी स्थिति बन गयी। लेकिन साथियों ने तत्काल स्थिति संभाल ली।

 

4 नवंबर, 1974 पटना; जेपी पर लाठी प्रहार

रात ही हमें मालूम हो गया कि जेपी की अंत्येष्टि में उनके परिजनों की मर्जी के अनुसार हिंदू रिवाजों और कर्मकांड का पालन होगा। कुछ साथी इससे उत्तेजित थे। तय हुआ कि हम एक पर्चा बांट कर इस पर आपत्ति दर्ज करेंगे। किसी बैठक और बाकायदा फैसला करने का समय नहीं था। मगर सुबह शव यात्रा शुरू होने के पहले वाहिनी का वह पर्चा बंट रहा था। उसमें कहा गया था कि चूंकि जेपी इस तरह के कर्मकांड के खिलाफ थे, इसलिए उनकी अंत्येष्टि में ऐसे कर्मकांड का हम विरोध करते हैं। जाहिर है, बहुतों को बुरा लगा। मुझे संदेह है कि वाहिनी के भी सभी साथी इस मौके पर वह पर्चा निकालने से सहमत थे। हालांकि इससे वाहिनी की खास तरह की 'क्रांतिकारी' छवि जरूर बनी। कुछ की नजर में 'जिद्दी' और झगड़ालू की भी। दस अक्टूबर को गांधी मैदान में शोक सभा होनी थी। हमने कहा- शोक सभा नहीं, श्रद्धांजलि सभा होगी। मुझे याद है, नौ अक्टूबर की शाम चर्खा समिति में बैठे चंद्रशेखर जी का रिएक्शन- जाये दीं, ई वाहिनी वाला सब बड़ा जिद्दी बाड़े सन।

जो भी हो, नौ की सुबह संघर्ष वाहिनी के साथियों ने पूरे गणवेश में अपने नायक को अंतिम विदाई दी। हम विवश होकर देखते रहे कि शवयात्रा सेना के नियंत्रण में होने की तैयारी थी। सेना के वाहन पर फूल मालाओं से ढंकी जेपी की देह रखी गयी। आगे पीछे और साथ में चलने को आतुर भीड़ का कोई अंत नहीं था। जैसे ही शवयात्रा प्रारंभ हुई, मैं अकेला राजेंद्र नगर स्थित वाहिनी कार्यालय के लिए पैदल चल पड़ा। जोर से भूख लगी थी। लोहानीपुर में एक झोपड़ी नुमा होटल में खाने बैठ गया। जेपी की अंत्येष्टि का आंखों देखा विवरण रेडियो पर आ रहा था। सुना- जेपी के भतीजे (नाम याद नहीं) ने मुखाग्नि दी...और मैं अधूरा खाना छोड़ कर उठ खड़ा हुआ। पैसे देकर बाहर आ गया।

शहीद स्मारक, पटना के सामने से गुजरता जुलूस

 

श्रद्धांजलि सभा में डाकू! नहीं, बागी!!

{10 अक्टूबर, पटना; 1979 }

आठ अक्टूबर को जेपी का निधन हुआ। नौ अक्टूबर को अंत्येष्टि हो गयी। परंपरागत हिंदू रिवाजों के तहत। इस पर वाहिनी ने अपनी आपत्ति दर्ज की थी। दस अक्टूबर को होने वाली शोक सभा को, वाहिनी के अनुरोध पर श्रद्धांजलि सभा के रूप में मनाना तय हुआ। वाहिनी मित्रों के अलावा सर्वोदय और राजनीतिक दलों के अनेक लोग पटना पहुंच चुके थे। उनमें एक खास चंद्रशेखर (बाद में प्रधानमंत्री बने) जी थे, जो हमेशा जेपी के करीब रहे। उसी दिन दोपहर तक चंबल के तीन चर्चित पूर्व डाकू- माधो सिंह, मोहर सिंह और एक अन्य (नाम याद नहीं), जो खुद को बागी कहा जाना पसंद करते थे, भी पहुंचे। वे जेपी (उनके लिए 'बाबूजी' ) के अंतिम संस्कार में शामिल होना चाहते थे। मगर पेरोल पर जेल से रिलीज होने में विलंब होने के कारण समय पर पटना नहीं पहुंच सके। इस कारण मध्यप्रदेश सरकार और प्रशासन नाराज भी था। 

प्रसंगवश, चर्खा समिति में बातचीत के क्रम में मैंने माधो सिंह से कहा था, विशुद्ध मजाक में- हम लोगों को हमेशा पैसे की जरूरत रहती है। कल हम बाजार में चंदा मांगने निकलेंगे। आप लोग बस हमारे साथ रहियेगा, आसानी से चंदा मिल जायेगा। माधो सिंह भी मजाक समझ गये, हंसते हुए बोले- एकदम चलेंगे। जेपी के प्रति उनकी श्रद्धा और दुर्दांत डाकू से आम आदमी बन चुके उन लोगों को देख कर अफसोस हुआ, आज और ज्यादा होता है कि इस बात को आज याद भी नहीं किया जाता, न आज के युवाओं को मालूम भी होगा कि जेपी के सामने 1972 में  400 से अधिक बागियों ने समर्पण किया था। यह अपने आप में अनोखी घटना थी। वैसे इसके पहले विनोबा भावे के सामने चंबल के करीब तीन सौ डाकुओं ने बंदूक का त्याग कर खुद को कानून के हवाले कर दिया था। बाद में आत्मसमर्पण के इच्छुक बागियों और इस काम में लगे लोगों को विनोबा जी ने ही जेपी का नाम सुझाया था।

 

 

इससे जुड़ा का एक उल्लेखनीय प्रसंग यह है कि '71 में एक दिन माधो सिंह अचानक जेपी से मिलने पटना आ गये थे। अपना नाम राम सिंह बताया। जेपी आवास पर ही ठहरे। बागियों के समर्पण पर चर्चा की। कुछ दिन बाद जेपी से कहा- बाबूजी, मैं ही माधो सिंह हूं।
जेपी ने पूछा- तुम पर डेढ़ लाख का ईनाम है। तुमने यहां आकर मेरे पास रहने का जोखिम कैसे उठाया!
माधो सिंह ने कहा था- हमें आप पर पूरा विश्वास है।

समर्पण के साथ ही जेपी ने शर्त रखी थी कि इनमें से किसी को मृत्युदंड नहीं दिया जाये। उनका कहना था कि यदि फांसी ही होनी है, तो कोई आत्मसमर्पण क्यों करेगा! लेकिन कायदे से यह तो अदालत पर निर्भर करता था। इसलिए बाद में जेपी ने कहा था कि यदि इनमें से किसी को फांसी हो गयी, तो वे भी अनशन करके प्राण त्याग देंगे।
(यह विवरण किसी लेख में पढ़ा है। कहां, याद नहीं।)

हमारे, खास कर मेरे लिए कल तक के ऐसे 'खूंखार' लोगों को इतने निकट से देखना, उनसे बात करना एक रोमांचक अनुभव था, पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले जिनके किस्से पढ़ता रहा था।

सभी फोटो मशहूर फोटोग्राफर रघु राय, उनकी किताब से

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जेपी स्मृति-1: जवाहर और जयप्रकाश के रिश्‍ते के बीच सियासत

जेपी स्मृति-2: बापू ने कहा था, जयप्रकाश और लोहिया भारत की आत्मा

 

(जन-सरोकार से जुड़े लेखक  झारखंड-बिहार के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। जेपी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। प्रभात खबर से भी संबंद्ध रहे। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।