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ज़िंदाबाद इंक़लाब-5: हवा में रहेगी मेरे ख्‍़यालों की बिजली....

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कनक तिवारी, रायपुर:

भगत सिंह के साथ दिक्कत है। हर संप्रदाय, जाति, प्रदेश, धर्म, राजनीतिक दल, आर्थिक व्यवस्था को उन्हें पूरी तौर पर अपनाने से परहेज है। उनके चेहरे की सलवटें अलग%अलग तरह के लोगों के काम आ जाती हैं। वे उसे ही भगत सिंह के असली चेहरे का कंटूर घोषित करने लगते हैं। उनका असली चेहरा पारदर्शी, निष्कपट, स्वाभिमानी, जिज्ञासु, कर्मठ और वैचारिक नवयुवक का है। वह किसी भी व्यवस्था की रूढ़ि को लेकर समझौतापरक नहीं हो सकता। आज भी दुनिया और भारत उन्हीं सवालों से जूझ रहे हैं। उन्हें भगतसिंह ने वक्त की स्लेट पर स्थायी इबारत की तरह लिखा था। साम्राज्यवाद, पूंजीवाद, अधिनायकवाद और तानाशाहियां अपने जबड़े में लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सर्वहारा बल्कि पूरे भविष्य को फंसाकर लीलने के लिए तत्पर हैं। भगतसिंह की भाषा पढ़ने पर कुछ भी पुराना या बासी नहीं लगता। वे भविष्यमूलक इबारत गढ़ रहे थे। नए भारत के बारे में सोच की डींग उन्होंने नहीं मारी। जो सोचा वह कर दिखाया। भगतसिंह का ब्रिटिश साम्राज्यवाद से जनसंघर्ष पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल को लेकर हुआ। मजदूरों और कर्मचारियों को किसी भी सरकारी अन्याय के विरुद्ध हड़ताल नहीं करने का अधिकार ब्रिटिश अवधारणा से उत्पन्न हुआ है। हिंदुस्तानी अदालतें मौलिक भारतीय अवधारणाओं की समीक्षा नहीं करतीं। वहां भी भगतसिंह की बौद्धिक गतिशीलता का प्रस्थान बिंदु इतिहास में झिलमिला रहा है जिस तरह आसमान में धु्रुव तारा। 

 

लोग गांधी को अहिंसा का पुतला कहते हैं। भगत सिंह को हिंसक कह देते हैं। भगत सिंह हिंसक नहीं थे। जो आदमी किताबें पढ़ता था, उसे समझने के लिए अफवाहों की जरूरत नहीं है। उसको समझने अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, ब्याज स्तुति और ब्याज निंदा की जरूरत नहीं है। भगत सिंह ने ‘मैं नास्तिक क्यों हूं‘ लेख लिखा। ‘नौजवान सभा का घोषणा पत्र‘ लिखा। वह कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के समानांतर है। अपनी जेल डायरी लिखी जो आधी अधूरी आई है। ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी एसोसिएशन‘ का घोषणा पत्र, उसका संविधान बनाया। पहली बार भगतसिंह ने कुछ ऐसे बुनियादी मौलिक प्रयोग हिन्दुस्तान की राजनीतिक प्रयोगशाला में किए हैं। उसकी जानकारी तक लोगों को नहीं है। उनके मित्र काॅमरेड सोहन सिंह जोश उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी में ले जाना चाहते थे। भगतसिंह ने मना कर दिया। फांसी के फंदे पर चढ़ने का फरमान पहुंचने के बाद जल्लाद उनके पास आया। तब बिना सिर उठाए भगतसिंह ने कहा ‘ठहरो भाई। मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं। एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। थोड़ा रुको।‘ भगत सिंह ने मौलिक प्रयोग किए थे। ‘इंकलाब जिंदाबाद‘ मूलतः भगत सिंह का नारा नहीं कम्युनिस्टों का नारा था। भगतसिंह ने इसके साथ जोड़ा था ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद।‘ तीसरा नारा जोड़ा ‘दुनिया के मजदूरों एक हो।‘ ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद‘ का नारा आज भी कुलबुला रहा है। सोच कर भगतसिंह ने ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद‘ का नारा दिया होगा। सोच कर भगत सिंह ने कहा दुनिया के मजदूरों एक हो। भगतसिंह भारत के पहले नागरिक, विचारक और नेता हैं। कहा था हिन्दुस्तान में केवल किसान मजदूर के दम पर नहीं, जब तक नौजवान उसमें शामिल नहीं होंगे, कोई क्रांति नहीं हो सकती। 

 

 


राजनीतिक रोटी सेंकने गांधी और भगतसिंह को एक दूसरे का दुश्मन बता दिया जाता है। भगत सिंह को गांधी का धीरे धीरे चलने वाला रास्ता पसंद नहीं था। फांसी की सजा मिलने पर उनसे बेहतर बयान किसी भी राजनीतिक कैदी ने वैधानिक इतिहास में नहीं दिया है। भगत सिंह को संगीत और नाटक का भी शौक था। प्रताप, किरती, महारथी और मतवाला वगैरह तमाम पत्रिकाओं में हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी में भगतसिंह लिखते थे। गणेशशंकर विद्यार्थी की उन पर मेहरबानी थी। भगत सिंह कुश्ती बहुत अच्छी लड़ते थे। एक बार भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद में दोस्ती वाला झगड़ा हो गया। तो भगत सिंह ने चंद्रशेखर आजाद को कुश्ती में चित भी कर दिया था। बहुरंगी, बहुआयामी जीवन इस नौजवान ने जिया। खाने पीने का शौक भी भगत सिंह को था। कम से कम दुनिया के 35 ऐसे बड़े लेखक थे जिनको भगत सिंह ने ठीक से पढ़ रखा था। भगत सिंह समाजवाद और मजहब को अलग अलग समझते थे। वे हिन्दुस्तान के पहले रेशनल थिंकर, विचारशील व्यक्ति थे जो मजहब के दायरे से बाहर थे। श्रीमती दुर्गादेवी वोहरा को लेकर भगतसिंह को अंग्रेज जल्लादों से बचने के लिए अपने केश काटकर प्रथम श्रेणी के डब्बे में कलकत्ता तक की यात्रा करनी पड़ी। लोगों ने कहा सिक्ख होकर अपने केश कटा लिए आपने? भगत सिंह ने धार्मिक व्यक्ति की तरह जवाब दिया मेरे भाई तुम ठीक कहते हो। मैं सिक्ख हूं। गुरु गोविंद सिंह ने कहा है अपने धर्म की रक्षा के लिए शरीर का अंग अंग कटवा दो। मैंने केश कटवा दिए। मौका मिलेगा तो गरदन कटवा दूंगा। यह तार्किक विचारशीलता भगत सिंह की है। उस नए हिन्दुस्तान में वे 1931 के पहले कह रहे थे जिसमें हिन्दुस्तान के गरीब आदमी, इंकलाब और आर्थिक बराबरी के लिए, समाजवाद को पाने के लिए, देश और चरित्र को बनाने के लिए, दुनिया में हिन्दुस्तान का झंडा बुलंद करने के लिए धर्म जैसी चीज की हमको जरूरत नहीं होनी चाहिए। 


भगत सिंह ने शहादत दी। फकत इतना कहना भगत सिंह के कद को छोटा करना है। जितनी उम्र में भगतसिंह कुर्बान हो गए, उसी उम्र में मदनलाल धींगरा और करतार सिंह सराभा चले गए। भगतसिंह लाला लाजपत राय के समर्थक और अनुयायी शुरू में थे। उनका परिवार आर्यसमाजी था। भूगोल और इतिहास से काटकर भगतसिंह के कद को बियाबान में नहीं देखा जा सकता। लाला लाजपत राय की जलियान वाला बाग की घटना के दौरान लाठियों से कुचले जाने की वजह से मृत्यु हो गई। तो भगतसिंह ने केवल उस बात का बदला लेने के लिए सांकेतिक हिंसा की और सांडर्स की हत्या हुई। भगतसिंह चाहते तो और जी सकते थे। आजादी की अलख जगा सकते थे। बहुत से क्रांतिकारी साथी जिए ही। भगतसिंह ने सोचा कि यही वक्त है जब इतिहास की सलवटों पर शहादत की इस्तरी चलाई जा सकती है। जिसमें वक्त के तेवर पढ़ने का माद्दा और ताकत हो वही इतिहास पुरुष होता है। उन्होंने दुनिया का ध्यान अंग्रेज हुक्मरानों के अन्याय की ओर खींचा और जानबूझकर असेंबली बम कांड रचा। भगतसिंह इतिहास की समझ के एक बहुत बड़े नियंता थे। 
भगतसिंह पर शोधपरक किताबें लिखी जानी चाहिए थीं। उतनी अब भी नहीं लिखी गई हैं। कुछ लोग भगतसिंह के जन्मदिन और शहादत के पर्व को हाल तक मनाते रहे थे। अब उनके हाथ में साम्प्रदायिकता के झंडे आ गए हैं। वे उस रास्ते को भूल चुके हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने गुलामी कर रहे हैं। पश्चिम के सामने बिक रहे हैं। बिछ रहे हैं। फिर भी कहते हैं हिन्दुस्तान को बड़ा देश बनाएंगे।

गांधी और भगत सिंह में गहरी राजनीतिक समझ थी। भगत सिंह ने गांधी के समर्थन में भी लिखा है। उनके रास्ते निस्संदेह अलग अलग थे। उनकी समझ अलग अलग थी। नौजवानों को आगे करने की जुगत भगत सिंह ने बनाई थी। राह बताई थी। उस रास्ते पर भारत का इतिहास नहीं चला। भगत सिंह ने कहा था हिन्दुस्तान के नौजवान हिन्दुस्तान के किसान के पास नहीं जाएं, गांवों में जाएं। उनके साथ पसीना बहाकर काम करें। तब तक हिन्दुस्तान की आजादी का कोई मुकम्मिल अर्थ नहीं होगा। भगत सिंह किताबों और विचारों के तहखाने में कैद है। भगत सिंह ने कहा था बड़े बड़े अखबार बिके हुए हैं। भगतसिंह और उनके साथी छोटे छोटे ट्रैक्ट 16 और 24 पृष्ठों की पत्रिकाएं छाप कर बांटते थे। विचारों की सान पर अगर कोई चीज चढ़ेगी वही तलवार बनेगी-यह भगतसिंह ने सिखाया था। इसलिए कहा था दुनिया के मजदूरो एक हो। इसलिए कहा था किसान, मजदूर और नौजवान की एकता होनी चाहिए। उन पर राष्ट्रवाद का नशा छाया हुआ था। उनका रास्ता माक्र्स के रास्ते से निकल कर आता था। एक अजीब तरह का राजनीतिक प्रयोग भारत की राजनीति में होने वाला था। भगत सिंह काल कवलित हो गए। असमय चले गए।

 

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।