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लाल-जवाहर-2: मातृभूमि के लिए अपने समस्त सुख साम्राज्य को स्वाहा करने वाले

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डाॅ. जंग बहादुर पाण्डेय, रांची:

देती रही रत्न धन-जन के तू मुझको चिरकाल से, 
देती आज प्रसाद-रूप क्या प्रभु-पूजा के थाल से? 
पुण्य भूमि यह सुन जगती से बोली वचन रसाल-से, 
मेरा-सा तेरा आंचल भी भरे जवाहरलाल से।। 

-राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
 
भारत भूमि ने अपने जिन स्फटिक चरित्रों को जन्म देकर मानवता का कल्याण केतु फहराया है, उनमें पंडित जवाहरलाल नेहरु अन्यतम हैं। मातृभूमि के आह्वान पर अपने समस्त सुख साम्राज्य को स्वाहा करने वाले, रेशमी कपड़ों.का परित्याग कर कुलिश की नोक पर मचलने वाले लोकदेव नेहरू भारतीय स्वातंत्र्य-संग्राम के महारथियों के प्रथम शक्ति में परिगण्य हैं - इसमें संदेह नहीं। हमारे लोकनायक नेहरू का जन्म 14 नवंबर 1889 को इलाहाबाद में हुआ। उनके पिता पंडित मोतीलाल नेहरु बड़े नामी बैरिस्टर थे। ऐसे प्रतिभाशाली समृद्ध पिता के इकलौते पुत्र होने का सौभाग्य पंडित नेहरू को प्राप्त हुआ था। पंडित जवाहरलाल नेहरू के शिक्षा का श्रीगणेश घर पर ही हुआ। 15 वर्ष की उम्र में वे इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध स्कूल 'हैरो' भेजे गए। 2 वर्षों के बाद उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज में प्रवेश कर 3 वर्षों तक विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की। वकालत की परीक्षा लंदन स्थित विद्यालय से पास कर 1912 ई0 में वे स्वदेश लौट आए। 

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पंडित नेहरू अत्युच्च शिक्षा प्राप्त कर विदेश से लौटे थे। उन्हें अच्छी-सी-अच्छी नौकरी मिल सकती थी, किंतु वे सरकारी नौकरियों को लात मारकर वकालत करने लगे। वकालत से अर्थोंपार्जन में समय की अधिक बर्बादी होती थी, अतः देश सेवा के लिए उन्होंने वकालत को भी त्याग दिया। उन्होंने अपना सारा जीवन ही राष्ट्र सेवा के लिए अर्पित कर दिया। ऐसे समय में उन्हें एक सुयोग्य पथ प्रदर्शक की आवश्यकता थी। उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नेतृत्व प्राप्त किया। गांधीजी ऐसा व्यक्ति चाहते थे- जो मनसा, वाचा,और कर्मणा देशसेवा में अपना उत्सर्ग कर दें ।उन्हें नेहरू के रूप में मनोनुकूल व्यक्ति प्राप्त हुआ। गांधीजी ने रॉलेट एक्ट के विरोध में सत्याग्रह करने का संकल्प किया। जवाहरलाल जी भी उसमें सम्मिलित होना चाहते थे, परंतु उनके पिता नहीं चाहते थे। पंडित मोतीलाल नेहरू ने गांधी जी से सिफारिश कराई कि जवाहरलाल जेल न जाएँ। गांधी जी की आज्ञा से जवाहरलाल जी ने जेल जाना स्थगित कर दिया। 

कुछ दिनों बाद देश में 13अप्रैल 1919 में जलियांवाला बाग कांड हुआ। निर्दोष भारतवासी संगीन की नोक पर डायर द्वारा तड़पा-तड़पाकर मारे गए। अंग्रेजों के इस राक्षसी दुर्व्यवहार ने जवाहरलाल जी के हृदय पर बड़ा ही गहरा आघात किया। विदेशी सरकार ने इस खूनी कांड के कारण भारतीयों के हृदय की धड़कती ज्वाला को शांत करने के लिए प्रिंस ऑफ वेल्स को भारत बुलाकर उसके प्रति भारतीयों से भक्ति-प्रदर्शन कराने की चेष्टा की। किंतु, प्रिंस का आना तो आग में और भी घी डालना था। गांधी जी ने इसका विरोध किया और ऐलान किया कि प्रिंस का स्वागत काले झंडे से किया जाए। इलाहाबाद में पंडित मोतीलाल नेहरू तथा जवाहरलाल ने यह काम किया। बस क्या था, अंग्रेजी सरकार ने पिता-पुत्र को जेल की चहारदीवारी के अंदर बंद कर दिया। जवाहरलाल जी ने श्रवण कुमार के भाँति पितृभक्ति दिखाई। वे स्वयं कमरे में झाड़ू लगाते थे, पिता के कपड़े साफ करते थे तथा इसी प्रकार के अनेक सेवा कार्य खुशी-खुशी करते थे। तब से जवाहरलाल अनेक बार जेल गए। तरह-तरह की विपत्तियां झेली और तभी दम लिया जब अंग्रेज रावण का विनाश किया। 

70 years of independence top ten points of Jawaharlal Nehru speech Tryst  with Destiny on India s independence day 15 august 1947 - News Nation

 

15 अगस्त 1947 ई0 में जब भारत राष्ट्र स्वतंत्र हुआ, शताब्दियों से परतंत्र भारतीयों ने मुक्ति की सांस ली। जनता ने अपने जनप्रिय नेता को अपना प्रधानमंत्री चुना। खुशहाली का सूरज चमका। 1952 , 1957 और 1962 ई0 में जब-जब निर्वाचन होता रहा, नेहरू जी एकमत से देश के प्रधानमंत्री होते रहे। उन्होंने इस देश को धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्र और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने के लिए कुछ उठा नहीं रखा। नेहरू की विरासत को उनकी इकलौती पुत्री भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी तथा नाती राजीव गांधी ने बाखूखी और कुशलता पूर्वक संभाला। नेहरू जी केवल भारत के ही नहीं विश्व के नेता थे।  सारे संसार में जब कोई तूफान आता था, लोगों की दृष्टि उनकी और टंग जाती थी। उन्होंने समग्र संसार को पंचशील के अमोघ औषधि प्रदान की। जब नेहरू जी 1961 ई0 के नवंबर में अमेरिका गए थे। वहां के प्रेसिडेंट जान  कैनेडी ने उनका स्वागत करते हुए कहा था - *"आपका स्वागत करते हुए हमारे देश को प्रसन्नता होती है। इस देश का निर्माण उन लोगों ने किया है, जिनकी कीर्तिपताका समुद्र की तरंगों पर फहराती दिखाई देती है। आप और आपके महान नेता गांधी जी विश्व नेता हैं। संसार आप की नीति का मान, आदर और सत्कार करने के लिए लालायित है।"

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नेहरू जी का कार्य क्षेत्र राजनीति तक ही सीमित नहीं था,वे उच्च कोटि के लेखक और साहित्यकार भी थे।इनके साहित्य का माध्यम प्रायः अंग्रेजी भाषा ही है।किन्तु इनकी सभी पुस्तकों का अनुवा हिन्दी में भी उपलब्ध है।इनके व्यक्तित्व और कृतित्व में इतिहासकार, राजनीतिज्ञ और साहित्यकार की त्रिवेणी का अपूर्व संगम है। मेरी कहानी इनकी आत्मकथा है जिसे वस्तुतःकेवल व्यक्ति की आत्मकथा न कहकर तत्कालीन राष्ट्रीय संघर्ष की कहानी कहा जा सकता है।विश्व इतिहास की झलक और हिन्दुस्तान की कहानी इतिहास की महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।पिता के पत्र पुत्री के नाम बाल साहित्य की दृष्टि से बड़ी उपयोगी और प्रसिद्ध पुस्तक है।इनके अतिरिक्त हिन्दुस्तान की समस्याएं, स्वाधीनता और उसके बाद,राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी, भारत की बुनियादी एकता,लड़खड़ाती दुनिया आदि पुस्तकों में इनके लेखों और भाषणों का संग्रह है।

सारा संसार अपने ज्वलंत समस्याओं के समाधान के लिए उनकी ओर आंख लगाए ही था कि एकाएक 27 मई 1964 को उनका पंच भौतिक शरीर उठ गया। उनके निधन पर किसी कवि ने बड़े ही हृदय द्रावक शब्दों में लिखा था-

धरती काँपी, आकाश हिला,  सागर में उठा उबाल रे,
रो रही विकल भारतमाता, चल बसा जवाहरलाल रे।
गंगा रोई, यमुना रोई, लो रोने लगा प्रयाग रे, 
आ गए हिमालय के आंसू, सागर में आए झाग रे।।

 

पं. नेहरू ने अपनी वसीयत में भारतीय जनता के प्रति आभार प्रकट करते हुए लिखा है:
भारतीय जनता से मुझे इतना प्रेम और स्नेह मिला है कि मैं चाहे जो कुछ भी  क्यों न ,करू उसके अल्पांश का भी बदला नहीं चुका सकता।और सच तो यह है कि प्रेम जैसी अमूल्य वरस्तु का बदला चुकाया भी नहीं जा सकता।  "मेरी इच्छा है कि मरने के बाद मेरा दाह संस्कार कर दिया जाए।यदि मैं विदेश में मरू तो दाह संस्कार वहीं कर दिया जाए और भस्म प्रयाग भेज दी जाए।उसकी एक मुट्ठी गंगा में प्रवाहित कर दिया जाए।भस्म का कुछ भी भाग न बचाया जाए और न सुरक्षित रखा जाए।...........अपनी इस अभिलाषा की पूर्ति के लिएऔर भारत के सांस्कृतिक उतराधिकार के प्रति अपनी अंतिम श्रद्धाजंलि अर्पित करने की इच्छा से मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि मेरी भस्म में से मुट्ठी भर इलाहाबाद के पास गंगा में प्रवाहित कर दी जाए,जिससे कि वह उस महासागर तक पहुंच जाए,जो भारत का पाद प्रक्षालन करता है।मैं चाहता हूँ कि मेरी भस्म का शेष भाग विमान द्वारा ऊपर से उन खेतों पर बिखेर दिया जाए,जहाँ भारत के किसान कड़ी मेहनत करते हैं,ताकि वह भस्म भारत की धूल और मिट्टी में मिलकर भारत का ही अभिन्न अंग बन जाए।"
 आज हम दर्पण की तरह स्वच्छ  राजनीतिज्ञ, अनासक्त कर्मयोगी, महान मुक्तिदाता, भारत के निर्माता शांति के अग्रदूत तथा मानवता के महान हितैषी पंडित जवाहरलाल नेहरू के पद चिन्हों पर चल पाएँ, तो हमारी स्वतंत्रता ही सुरक्षित नहीं रहेगी, वरन मानव कल्याण के कितने ही राज मार्ग खुल सकेंगे।

 

(लेखक हिन्दी विभाग, रांची विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रह चुके हैं। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।