प्रेमकुमार मणि, पटना:
आज आचार्य नरेंद्र देव (31 अक्टूबर 1889-19 फरवरी 1956) का जन्मदिन है। इसी तारीख को 1889 में उत्तरप्रदेश के सीतापुर में वकील बलदेव प्रसाद के बेटे के रूप में वह जन्मे थे। बहुत संभव है, नयी पीढ़ी के कम लोग उन्हें जानते हों , क्योंकि वह अपनी तरह के इंसान थे। कर्मयोगी इंसान. नेता थे , लेकिन नेताओं की आम-प्रवृत्ति से भिन्न. विद्वान भी थे, लेकिन उनकी आम-प्रवृत्ति से भिन्न। आचार्यजी भारत में समाजवाद के उन्नायकों में रहे। 1934 में पटना में आयोजित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के स्थापना सम्मेलन की उन्होंने अध्यक्षता की थी। 1948 में कांग्रेस से सोशलिस्ट पार्टी जब अलग हुई, सोशलिस्ट पार्टी की रीति-नीति बनाने और उसे स्वरुप देने का कार्य उनने किया। 1949 में नयी सोशलिस्ट पार्टी का स्थापना समारोह बिहार के गया में हुआ, उसकी भी अध्यक्षता उन ने ही की। 1954 -55 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष भी वही थे।
इस राजनैतिक व्यस्तता के साथ उन्होंने पर्याप्त लेखन कार्य भी किया। ' राष्टीयता और समाजवाद ' उनके राजनैतिक आलेखों का संकलन है। लेकिन ' बौद्ध धर्म दर्शन 'और ' अभिधम्मकोश' का फ्रेंच से हिंदी में अनुवाद उनका ऐसा कार्य है, जिसके लिए विद्वत जगत उनका ऋणी रहेगा। 1942 की अगस्त क्रांति के बाद जवाहरलाल नेहरू और नरेन्द्रदेव अहमदनगर किला जेल में रखे गए थे। उनका बैरक एक ही था। यहीं बैठ कर नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया लिखा और नरेन्द्रदेव ने बौद्धधर्म दर्शन की रचना और चौथी-पांचवीं सदी के बौद्ध दार्शनिक वसुवंधु के विलुप्तप्राय ग्रन्थ अभिधम्मकोश, जिसका ह्वेनसांग ने चीनी भाषा में अनुवाद किया और फिर चीनी से जिसका फ्रेंच में 1926 में अनुवाद हुआ। फ्रेंच से हिंदी में अनुवाद किया। ' बौद्धधर्म दर्शन का बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् से और अभिधम्मकोश का प्रकाशन हिंदुस्तानी अकादमी से हुआ। डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में नेहरू ने आदर के साथ आचार्यजी के इस कार्य में दत्तचित्त होकर लगे होने की चर्चा की है।
नरेन्द्रदेव की इज्जत गाँधी और नेहरू दोनों करते थे। लेकिन उनकी वैचारिकता को कोई बहुत अधिक प्रभावित नहीं कर सका। हालांकि आचार्य भी दोनों की बहुत इज्जत करते थे। गांधी जी ने एक दफा कुछ महीने उन्हें अपने आश्रम में स्वास्थ्य-लाभ करने के उद्देश्य से रखा। विदा होने के पूर्व गांधी ने उनसे भारत की समस्याओं और उसके निदान पर चर्चा की। आचार्य ने बिना लाग-लपेट के कहा - महात्मा जी, आपके रास्ते भारत का कल्याण नहीं होगा।इसके लिए मार्क्सवादी रास्ता ही सही होगा। नेहरू के बारे में भी उनकी स्पष्ट राय थी। वह कहते थे -' चाहे जवाहरलालजी की निजी राय कुछ भी हो , कांग्रेस समाजवाद से बहुत दूर है ।' इस मायने में वह अपने समाजवादी साथियों जयप्रकाश और लोहिया से बिलकुल भिन्न थे। उनमें गांधी-नेहरू को लेकर कोई व्यामोह नहीं था। गाँधी की साधन की शुचिता की विचारणा का वह समर्थन करते थे। लेकिन उनके आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक और शिक्षा को आर्थिक संबल बनाने जैसी बातों का पूरी तरह विरोध भी करते थे। जेपी -लोहिया की तरह उनका समाजवाद वायवी नहीं था। मार्क्सवाद के प्रति लोहिया और जेपी ने भी बाद के दिनों में कुछ सवाल उठाये, लेकिन नरेन्द्रदेव ने मार्क्सवाद की भौतिक व्याख्या पर जो सवाल उठाये हैं, वे मौलिक हैं। द्वंद्वात्मकता के तहत मार्क्सवाद चेतना को भौतिकता से प्रभूत मानता है। नरेन्द्रदेव द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को द्वंद्वात्मक सदवाद कहना पसंद करते थे। उनका मानना था चेतना में जो सूक्ष्मता और क्रियाशीलता है, उसे हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। यह उनपर बौद्ध -दर्शन का प्रभाव है। नागार्जुन और वसुबन्धु दोनों जगत और चेतना को सापेक्ष मानते हैं। अपने पृथक रूप में ये कुछ नहीं, अर्थात शून्य होते हैं। एक दूसरे के प्रति सापेक्षता ही इन्हे अस्तित्व में लाती है। जगत इसलिए अस्तित्व में है, क्योंकि उसे महसूस करने केलिए कोई चेतन (ब्रह्म ) है और चेतन इसलिए अस्तित्व में है कि उसे धारण करने केलिए कोई जगत है।अपने ' परमार्थ दर्शन ' में नरेन्द्रदेव के गुरु मित्र महामहोपाध्याय रामावतार शर्मा ने भी ऐसा ही मत व्यक्त किया है। दुर्भाग्य है कि नयी पीढ़ी को इन चीजों में कोई रूचि ही नहीं रह गयी है।
आज हमें आचार्य जी की सचमुच बहुत जरूरत महसूस होती है। ऐसे समय में जब हमारी राजनीति उग्र राष्ट्रवाद की गिरफ्त में है और मुल्क की पूरी अर्थसत्ता पूंजीपतियों के कब्जे में, हमें उनकी बातें, उनके विचार और उनकी चेतावनी अपनी ओर खींच रहे हैं। 1952 के अगस्त में उनके समाजवादी साथियों ने जब दक्षिणपंथी कांग्रेसी कृपलानी की पार्टी किसान मजदूर प्रजा पार्टी से इस शर्त के साथ विलय स्वीकार लिया कि प्रस्तावित प्रजा सोशलिस्ट पार्टी वर्ग -संघर्ष का विचार त्याग देगी, तब उदास होकर आचार्य जी ने कहा था - वर्ग संघर्ष का ख्याल त्याग देने के बाद समाजवाद में बचेगा क्या ? यही हुआ। जेपी सर्वोदयी हो गए और लोहिया कांग्रेस - नेहरू विरोध में ऐसे डूबे कि अनजाने ही पूरी समाजवादी टोली दक्षिणपंथियों की देहरी तक पहुंच गई।यह उनका तात्कालिक प्रोग्राम रहा होगा, लेकिन व्यक्ति और विचार जब एक दफा फिसलन का शिकार हो जाता है, तो फिर सम्भलना मुश्किल हो जाता है। आचार्य नरेन्द्रदेव के विचारों की रौशनी में हम अपने समय की राजनीति के रास्ते तलाश सकते हैं।
(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)
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