मनोहर महाजन, मुम्बई:
बंबई ताड़देव के फेमस महालक्ष्मी स्टूडियो में गुरु दत्त की बतौर डायरेक्टर पहली फिल्म ‘बाज़ी’ (1951) के एक गाने की रिकॉर्डिंग हो रही थी। गाना था “..तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले, अपने पे भरोसा है तो एक दांव लगाले..।” इसे गाने आई थीं 20- 21वर्ष की एक युवती गीता। गीता (23 नवंबर 1930- 20 जुलाई 1972) की गायकी के साथ साथ उसकी ख़ूबसूरती भी चकित कर देने वाली थी। ये युवती उस दौर की 'स्टार-सिंगर' थीं। विभिन्न भाषाओं में 400 या ज्यादा गाने गाकर शोहरत की बुलंदियों पर थी। उसके सामने अपने करियर की शुरुआत करने वाले गुरुदत्त की हैसियत कुछ भी नहीं थी.. वो भव्य 'लिमोज़ीन' में घूमती थीं और गुरु का संसार एक टेबल, एक कुर्सी थी जिस पर उसका सारा सृजन होता। गुरु दत्त का बड़ा परिवार था। वहीं 23 नवंबर 1930 को जन्मी इस युवती का पूरा नाम 'गीता घोष रॉय चौधरी' था। जितना लंबा नाम उतना ही समृद्ध ज़मींदार परिवार। लेकिन फिर भी दोनों में 'लव एट फर्स्ट साइट' हो गया। तीन साल प्रेम के बाद दोनों ने शादी कर ली। साल था 1953 बंगाली रस्मों से दोनों का विवाह हुआ। गीता, गीता घोष रॉय चौधरी से गीता दत्त बन गईं।
गीता की ननद ललिता लाज़मी याने गुरु दत्त की छोटी बहन और ‘रुदाली’ जैसी फिल्मों की मशहूर डायरेक्टर कल्पना लाज़मी की मां का कहना था: "गीता की खूबसूरती अजंता की गुफाओं में बनी पेंटिंग जैसी थी-डार्क एंड ब्यूटीफुल।" वहीं गीता की बेटी नीना मेमन के मुताबिक: "मेरी मां बच्चों जैसी नटखट थीं. मौज में रहने वाली.उन्हें अपने दोस्तों के साथ बातें करना बहुत पसंद था। मैंने अपनी मां को कभी-कभार ही अकेले देखा. वे घर में ही रहना पसंद करती थीं। हारमोनियम पर कुछ न कुछ गाते रहना उनकी आदत था।" शादी के बाद खार इलाके में एक किराये के फ्लैट में गीता-गुरु दत्त रहने लगे। दोनों के तीन बच्चे हुए। उनकी शादी 11 साल चली.फिर अचानक न जाने किसकी नज़र लग गई.दोनों के संबंध खराब होने लगे। कई वजहें बताई जाती हैं, कौन सी कितनी सच या झूठ है कहा नही जा सकता। सब कुछ अतीत के गर्त छुपा है। गुरुदत्त के बहन ललिता के मुताबिक, “दोनों में 'ईगो को टकराव' था।दोनों ही अपने अपने फन में माहिर थे। गीता एक्ट्रेस बनना चाहती थी और गुरू दत्त कामयाब फ़िल्म मेकर. गीता के साथ दिक्कत ये भी थी कि वो गुरु दत्त को लेकर बहुत 'पज़ेसिव' थी। बहुत ज़्यादा पज़ेसिव होना भी किसी वैवाहिक जीवन के लिए खतरनाक बात हो सकती है। गीता के साथ ऐसा ही हुआ।फिल्मी दुनिया एक आभासी दुनिया है। परदे पर किरदारों को प्यार करते दिखना होता है और उसे असली प्यार जैसे दिखाना होता है। गीता को गुरु दत्त के साथ काम करने वाली हर औरत पर शक़ होने लगा। उन पर हर वक़्त नज़र रखने लगीं। इसी वजह से दोनों के बीच लगातार झगड़े और ग़लत फ़हमियां होने लगीं। वो इतनी ज़्यादा बढ़ीं कि वे दोनों ही विनाश के उस रास्ते पर चल पड़े, जहां से वापसी बेहद मुश्किल थी। ये भी कहा जाता है शादी के बाद गुरु दत्त ने गीता को कहा कि वे दूसरे निर्देशकों के लिए न गाए। इस कारण गीता डिप्रेशन में रहने लगीं और कई तरह के व्यसनों का शिकार होने लगीं।
गुरु दत्त और वहीदा रहमान एक के बाद एक फिल्म में साथ काम कर रहे थे। उनके अफेयर के चर्चे चारों ओर थे। गीता की भी महत्वाकांक्षाएं थीं। उन्हें 'सिंगिंग' के अलावा 'एक्टिंग' में भी आगे बढ़ना था। इसीलिए ‘गौरी’ नामक फिल्म शुरू की गई। लेकिन गुरु दत्त ने दो दिन में ही ये कहते हुए शूटिंग बंद कर दी कि गीता का बर्ताव ठीक नहीं है। वे रिहर्सल पर नहीं आती हैं। लेकिन वे ऐसा क्यों कर रही थीं इसे लेकर बहुत निश्चिंत होकर कुछ भी कहना गलत होगा। एक इंसान प्रेम वाले रिश्तों में, या दोस्ती की भावना के तहत किन अदृश्य जज़्बात से घिरा रहता है उन्हें शब्दों से बयाँ नही किया जा सकता।
इस स्थिति को समझने के लिए गुरु दत्त की फ़िल्म 'क़ाग़ज़ के फूल' की कहानी को याद करना होगा जो वो 1958 में बना रहे थे। ये वो वक़्त था जब उनके वहीदा रहमान से संबंधों के कारण घर में कलह चलती थी। गीता दुखी थीं। अब फिल्म की कहानी देखें. एक डायरेक्टर है जिसकी बीवी है। समृद्ध सामाजिक आर्थिक परिवार से है। दोनों के एक बच्ची है लेकिन वो पति को बच्ची से मिलने नहीं देती। एक दिन स्टूडियो में वो शूटिंग कर रहा होता है कि उसे एक युवती नज़र आती है जो पहले भी मिल उससे चुकी थी। वो कैमरे के सामने से उसे आते देखता है तो चौंक जाता है. उसमें वो अपनी 'म्यूज़' देखने लगता है और उससे उसे प्रेम भी हो जाता है. लेकिन ज़माना दोनों के रिश्ते को क़ुबूल नहीं करेगा इस सोच से वो परेशान रहता है। यहीं फिल्म का "दी एन्ड" होता है।
अब ये पूरी कहानी, सिवा अपने अंत के, गुरु दत्त, गीता और वहीदा की ही कहानी लगती है। त्रासदी देखिए कि इसी फिल्म में सारे फीमेल-सांग्स गीता ने गाए और वही गाने वहीदा पर फ़िल्माये गए। फ़िल्म में वहीदा का पात्र बड़ी वेदना के साथ वो गाने गाता है, जिन्हें शायद उससे भी अधिक वेदना के साथ गीता ने रिकॉर्डिंग स्टूडियो में गया था। ऐसा नहीं है कि गीता को गुरु दत्त से प्यार नहीं था या गुरुदत्त उन्हें नहीं चाहते थे। लेकिन नामालूम वजूहात की वजह से पांच-छह साल बाद 1964 में गुरु दत्त अपने फ्लैट में मृत पाए गए। शराब और नींद की गोलियों के साथ उन्होंने दुनिया छोड़ दी। इस सदमे ने गीता को पूरी तबाह कर दिया। उन्होंने हद से ज़्यादा शराब पीनी शुरू कर दी। ठीक अपने पति की तरह नींद की गोलियों और दीगर ड्रग्स का सहारा भी लिया। बतौर गायिका भी उनका करियर ख़ात्मे की कगार पर पहुंच गया। जो गाने उन्हें मिलने थे वो आशा भोसले को मिलते रहे और आशा सफलता की ओर अग्रसर होती गईं।
गुरु दत्त की मृत्यु के बाद घर चलाने के लिए गीता को फिर काम शुरू करना पड़ा। छोटी-मोटी फीस के लिए वे स्टेज शो तक में परफॉर्म करने लगीं। शोज़ और रिकॉर्डिंग के दौरान भी उनके खूब शराब पीकर आने के किस्से भी सुनाई देते रहे।1971 में गीता ने। फ़िल्म ‘अनुभव’ में गाने गाए। इतने तनाव और दुख को दौर में भी उन्होंने इसमें ‘मुझे जां न कहो मेरी जां’ और ‘कोई चुपके से आके’ जैसे गीत गाए जो आज भी यादगार हैं। अगले ही साल 20 जुलाई 1972 को लीवर की बीमारी गीता दत्त को लील गई। वे सिर्फ 42 साल की थीं।
गीता दत्त सिंगिंग की दुनिया में लता मंगेशकर से वरिष्ठ थीं। लेकिन गुरु दत्त से शादी के बाद उन्होंने ऐसा रास्ता अपनाया जिसका अंत 49 साल पहले ही हो गया। लता मंगेशकर उसके बाद भी गाती रहीं। उन्होंने घर-बार न बसा कर सिर्फ और सिर्फ गायन पर अपने आपको केंद्रित किया। गीता ऐसा नहीं कर पाईं। जीवन के अंतिम पड़ाव पर एक 'म्यूज़िकल इवेंट' में बहुत सारे सिंगर गाने के लिए जुटे। लता जी जब मंच पर आईं तो भीड़ दीवानी हो गई। उनके गानों को भरपूर तालियां मिलीं। पर गीता जब मंच पर आईं तो दर्शकों ने उन्हें पहचाना तक नहीं और उन्हें वो स्वागत नहीं मिला जिसकी वो हक़दार थीं।न तालियां!..न प्रशंसा..!! गीता जैसी कलाकार के साथ उस भीड़ का अमानवीय और बर्बर बर्ताव- तौबा!! शायद भीड़ को ये बताने की आवश्यकता थी कि गीता की "लैगेसी' लता जी से कहीं कम न थीं। आज अगर वो ज़िंदा होतीं तो 91 वर्ष की होतीं और संगीत के खज़ाने में गीतों के न जाने कितने नगीने और जड़ चुकी होतीं।