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जातिगत जनगणना से घबराना कैसा, नये आधार तय कर ज़रूर होनी चाहिए

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कर्मेंदु शिशिर, पटना:

जब राजनीति विचार विचलित हो जाती है तो उसमें अवांछित लोगों का प्रवेश सुगम हो जाता है। यह बहुत ही चिंत्य स्थिति होती है। इसमें तटस्थता, ईमानदारी और वैचारिकता की गुंजाइश खत्म हो जाती है। ऐसा इसलिए होता है कि बहस-विचार में  रैशनलिटी की पूरी तरह अनुपस्थिति हो जाती है। आप भाजपा के विरोध में कुछ लिखते हैं तो आप देशद्रोही, छद्म धर्मनिरपेक्ष और मुस्लिम परस्त हो जाते हैं। अगर आप बसपा, सपा या राजद की आलोचना कीजिए तो सवर्ण और ब्राह्मणवादी हो जाते हैं।तृणमूल कांग्रेस या कांग्रेस का विरोध करते हैं तो भाजपाई ठहरा दिये जाते हैं। मसलन आप किसी का विरोध मत कीजिए। आप किसी दल के भक्त बनकर ही रह सकते हैं। एक बुद्धिजीवी से अपेक्षित यह होता है कि जनता को ध्यान में रखकर वह हर दल के विचार और कार्यों की समीक्षा करे,विरोध करे।यह प्रक्रिया राजनीति को लेकर पूरी तरह खत्म हो चुकी है। यह बहुत बड़ा खतरा है और यह स्थिति पैसे और ताकत वाले की मनमानी को ही बढ़ावा देगी।यह हर पार्टी को इसलिए सूट करता है कि इससे उसे बेदिमाग लोगों के कट्टर समर्थक ही जुटाने होते हैं। जो उसके कहने पर किसी से भिड़ सकें। किसी की जान ले सकें या खुद की जान दे सकें।   फासिज़्म के लिए यह सबसे मुफ़ीद स्थिति होती है।ऐसे में उसके सामने कोई वैचारिक या नैतिक मुश्किल नहीं होती। मेरी नजर में अभी का दौर ऐसा ही है।

 

सिर्फ सत्ता वर्चस्व कायम करने के लिए जनगणना का उद्देश्य समझ से परे

जातिगत जनगणना जरूर होनी चाहिए। इसको लेकर नये  आधार भी तय करने चाहिए। जैसे उपजातियों को गिना जाय या नहीं? मेरी राय में तो उपजातियों तक विभाजन की गणना होनी चाहिए। जैसे कायस्थ को ले लीजिए। इसमें एक सोनरिया कायस्थ होता है। श्रीवास्तव कायस्थ अपने को सबसे श्रेष्ठ मानता है और सोनरिया को लगभग दलित। एक और समस्या है अंतर्जातीय विवाह वाले की जाति पिता से तय हो कि माँ से ?अमूमन आप पिता से करते हैं। क्यों? इससे स्त्री की बराबरी का हक प्रभावित होता है कि नहीं?भिखारी ठाकुर के गबरघिचोर नाटक में इस सवाल को उठाया गया है। गर्भवती स्त्री कहती है कि मैंने पुरुष से चुटकी भर जोरन लिया तो पूरी दही पर वह दावा कैसे ठोक सकता है? यह जटिल सवाल है लेकिन आप इसे इग्नोर कैसे कर सकते हैं?कोई जाति नहीं मानता है उसके लिए स्पेस दीजियेगा कि नहीं?या बलात विवश कीजिएगा कि तुमको हर हाल में जाति माननी ही होगी? क्या यह समाज के लिए ठीक होगा? फिर आता है कि आप सवर्ण, पिछड़े और दलित का विभाजन तो कर लेते हैं लेकिन इसमें जो सबल और बहुसंख्यक होती हैं वर्चस्व  उनका ही कायम होता है। इसे कैसे रोका जा सकता है, इस पर भी सोचना होगा। इसलिए सिर्फ सत्ता वर्चस्व कायम करने के लिए जनगणना का उद्देश्य समझ से परे है। उद्देश्य यह हो कि जाति आधारित शोषण खत्म हो। समानता, न्याय और आजादी सबको मिले तो कैसे? सबको समान अवसर कैसे मिले?इन तमाम सवालों पर ईमानदारी और सामाजिक बेहतरी के उद्देश्य के लिए गंभीर विचार विमर्श हो और जो सर्वोत्तम आधार निकले उस पर जरूर जनगणना हो।ब्राह्मण की जगह यादव वर्चस्व हो जाय या इस जाति की जगह उस जाति का वर्चस्व कायम हो जाय ,इसका क्या मतलब?

 

लोहिया का स्‍मरण भी जरूरी

आप किसी पद पर जिस जाति,धर्म या समुदाय के लोगों को बिठाना चाहें, बिठायें। मगर आपका यह कर्त्तव्य होता है कि आप उससे प्रभावित लोगों के बीच इस बात का पता करें कि उसका काम कैसा है! उदाहरण के लिए एक कुलपति के पद पर आपने अपनी जाति, धर्म या समुदाय वाले को बिठा दिया। अब आप कल्पना कीजिए कि उसके अधीन कितने कालेज, कितने प्राध्यापक, कर्मचारी, छात्र तथा उनके परिवार के लोग प्रभावित होते हैं। आप यह तो समझिये कि अगर उसने इतने विशाल लोगों को त्रस्त किया तो लोगों की क्या धारणा बनेगी? लोग इतने से गदगद हो जाते हैं कि हमारी जाति, धर्म या समुदाय वाला बन गया। लूट रहा है तो आप उसके लिए लड़ने को तैयार मिलते हैं कि फलां वाला नहीं लूट रहा था?इस तरह हर लूटने वाले को बिना कुछ किये समर्थक मिल जाते हैं।गोकि आपको एक धेला मिलने वाला नहीं। सवर्ण हो या कोई और सबका यही हाल है। डॉ राममनोहर लोहिया कहते थे कि पिछड़े और दलित के बीच से ऐसे लोग आंये जिन पर सवर्ण भी गर्व कर सकें। 

( वरिष्ठ लेखक कर्मेंदु शिशिर का जन्म वाराणसी में हुआ, कर्मभूमि बिहार रही। बहुत लंबी राह (उपन्यास), कितने दिन अपने, बची रहेगी जिंदगी (कहानी-संग्रह), नवजागरण और संस्कृति (वैचारिकी), राधामोहन गोकुल और हिंदी नवजागरण (शोध समीक्षा), हिंदी नवजागरण और जातीय गद्य परपंरा (गद्य समीक्षा), 1857 की राजक्रांति: विचार और विश्लेषण, नवजागरण कालीन साहित्यकार राधाचरण गोस्वामी, निराला और राम की शक्तिपूजा (आलोचना) आदि उनकी प्रकाशित प्रमुख पुस्तकें हैं। संप्रति गाजियाबाद में रहकर स्वंतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।