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चिंतन-पुरस्कार: पत्रकारिता के महानायक बनने के महासमर से गुज़र रहा भारत

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पुष्परंजन, दिल्‍ली:

1961 और 1975 में मैगसायसाय (मैगसेसे) पुरस्कार प्रकारांतर से पा चुकेे  भारतीय पत्रकार अमिताभ चौधरी और बीजी वर्गीज जब तक जीवित थे, सामान्य तरीके से लोगों से मिलते-जुलते थे। अरुण शौरी और पी. साईंनाथ ने भी मैगसायसाय मिलने के बाद अपने चिंटुओं के माध्यम से कभी ढोल नहीं पिटवाया कि वे पत्रकारिता के महानायक हैं। मगर, अब अधजल गगरी का जमाना है। भारत अभी ' पत्रकारिता के महानायक ' या ' महानायिका ' बनने के महासमर से गुजर रहा है। इधर, खबर है कि 10 साल के बाद पत्रकार बिरादरी को नोबेल शांति पुरस्कार मिला है। सभी पत्रकार इसके पात्र नहीं हो सकते, फिर भी जिन दो को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया, उससे दमन के विरुद्ध लड़ने वाला दुनिया के हर कोने में बैठा सहाफी फख्र महसूस करे, पहली नजर में यह भाव तो पैदा होता है। ओस्लो मैं जब भी जाता था, वहां का विश्वविद्यालय और नार्वेजियन नोबेल कमेटी का मुख्यालय, दो मेरे ठिकाने होते थे। नार्वेजियन कमेटी के पुस्तकालय में पढ़ने को ढेर सारी सामग्री हुआ करती थी।

नार्वे के इतिहासकार गेर लुंडेस्टाग नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चयन करने वाली नार्वेजियन नोबेल कमेटी के सचिव थे। 2005 में मैंने उनका इंटरव्यू इस मकसद से किया था, ताकि पुरस्कार को नमस्कार करने वाले चेहरों को और उसे प्रभावित करने वाली ताकतों को उजागर कर सकूं। डॉ. गेर लुंडेस्टाग से घुमा-फिराकर उकसाने वाले सवाल भी पूछे थे मैंने, मगर वो निर्विकार भाव से जो जवाब देते गए, उसमें ऐसा कुछ नहीं मिला, जिससे पिछले दरवाजे से प्रवेश करने वालों की पहचान हो सके। मगर, यह तो उन्होंने माना कि पुरस्कार के चयन को लेकर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बना रहता है। दस साल बाद दो पत्रकारों को नोबेल शांति सम्मान मिला है। इससे यह भी संदेश गया है कि आप संतुलित होकर सच उजागर कीजिए, अभिव्यक्ति के खतरे उठाइए वो कभी न कभी काम आएगा। जरूरी नहीं कि कोई बहुत बड़े आर्गेनाइजेशन से जुड़े हों। ‘नोवाया गजेटा’ अखबार को इससे पहले हम नहीं जानते थे। मगर, जो लोग रूस में हैं, और खासकर मास्को में, वो जरूर इस अखबार को जानते हैं। पुतिन के एकाधिकारवाद को ललकारने के लिए प्रसिद्ध। प्रावदा से निकले कुछ पत्रकारों ने सोशियो-पॉलिटिको न्यूजपेपर ‘नोवाया गजेटा’ निकालना शुरू किया था, सप्ताह में दो बार इसका प्रकाशन होता है, और अंग्रेजी का वेब पोर्टल हर हफ्ते केवल एक बार। अक्टूबर 2021 तक इसकी 90 हजार प्रतियां बिकने का रिकॉर्ड है। इसके प्रधान संपादक दिमित्री मुरातोव को इसका गुमान नहीं था कि वो कभी नोबेल शांति पुरस्कार साझा करेंगे।

 

सत्ता और हिंसा के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले दो पत्रकारों को मिला इस बार का नोबेल  शांति पुरस्कार

 

28 साल पहले एक अप्रैल 1993 को इस अखबार की पहली प्रति छप कर आई थी। अंतर्राष्ट्रीय मूर्ख दिवस के दिन इसका अनावरण क्या सोच कर किया था, वो शायद अब समझ में आना चाहिए। इंवेस्टीगेटिव रिपोर्टिंग के कारण इस अखबार के तेवर को रूस की पीड़ित जनता पसंद करने लगी थी। मगर यह अखबार माफिया, नेता और नौकरशाह के निशाने पर रहा। अब तक इसके सात पत्रकार मारे जा चुके हैं, फिर भी ‘नोवाया गजेटा’ के तेवर ढीले नहीं हुए।एक और वाकया ध्यान में रखा जा सकता है. 1990 में मिकाइल गोर्वाचोव को नोबेल शांति पुरस्कार के जो पैसे मिले, उसे इस अखबार के वास्ते दान कर दिया था। गोर्वाचोव के दस फीसद शेयर इस अखबार में थे। 14 प्रतिशत शेयरधारक दूसरे शख्स रशियन बिजनेसमैन अलेक्जेंडर लेबेदेव हैं, जो कोई दो दशक तक रूसी खुफिया एजेंसी 'केजीबी' और फॉरेन इंटेलीजेंस सर्विस ‘एसवीआर’ से जुड़े रहे थे। अलेक्जेडर लेबेदेव रूस के 39वें नंबर पर गिने जाने वाले धनाढ्य शख्सियत हैं। अलेक्जेंडर लेबेदेव का पैसा लंदन से प्रकाशित ‘द इंडिपेंडेंट’ और वहीँ मुफ्त में बंटने वाला अखबार ‘इ इंवनिंग स्टेंडर्ड’ में लगा हुआ है।

खैर, नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजे दिमित्री मुरातोव ने बयान दिया है कि सत्ता के विरुद्ध जिन लोगों को रूस में विदेशी एजेंट करार दिया जाता है, उनके साथ हम आगे भी खड़े रहेंगे। दिमित्री मुरातोव का मानना था, ‘ऐसे लोगों पर हमले होते रहे हैं। सत्ता विरोधियों को किसी साजिश के तहत काल कोठरी में सड़ा दिया जाता है, या फिर ऐसे लोगों का देश निकाला कर दिया जाता है।’ नोबेल कमेटी ने कहा है कि रूसी समाज के निंदनीय पहलू को दुनिया इस अखबार के माध्यम से जान पाई। अखबार ने तथ्यपरक पत्रकारिता और पेशेवराना निष्ठा को बनाए रखा है, इसलिए इसे नोबेल शांति पुरस्कार के योग्य मानते हैं। कमेटी की ओर से कहा गया कि दबाव रहित, आजाद और तथ्यों पर आधारित पत्रकारिता आज की जरूरत है, जो झूठ और प्रोपेगंडा को एक्सपोज कर सके।

 

कैसी होगी भविष्य की पत्रकारिता - what will be the future of journalism

नोबेल पुरस्कार चयन समिति ने एक अखबार के ग्रुप एडीटर को पुरस्कृत किया, दूसरी तरफ एक न्यूज वेबसाइट के जरिए पत्रकारिता करने वाली महिला को इस योग्य समझा। मनीला में जन्मी मारिया रेसा अपनी मां के साथ न्यूजर्सी रहने चली आईं। वहीं के प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी साहित्य में बीए किया और पीटीवी-4 से जुड़ गईं। कुछ साल बाद सीएनएन ने उन्हें मनीला, ब्यूरो प्रमुख बनाकर भेज दिया। मारिया रेसा फिलीपींस में कुछ दिन एबीएस-सीबीएन की समाचार प्रमुख भी रहीं। उससे इतर वॉल स्ट्रीट जर्नल में मारिया रेसा आलेख लिखती रहीं। फिर सब कुछ छोड़कर 2012 में अपना वेबसाइट ‘रैपलर’ शुरू किया। मारिया रेसा की पूरी नजर राष्ट्रपति दुतेर्ते के दमन अभियान पर केंद्रीत रही थी। दुतेर्ते ने ड्रग तस्करी रोकने के नाम पर जितने राजनीतिक विरोधियों को कुचला, लोगों को मरवाया, बिना किसी खौफ के मारिया रेसा उसे एक्सपोज करती गईं। दुतेर्ते के इस दमन अभियान में फिलीपींस का  मेनस्ट्रीम दलाल मीडिया और सोशल मीडिया पर उसके लाखों भक्त मारिया रेसा के मनोबल को नहीं तोड़ पाए।

 30 जून 2016 से रोड्रिगो दुतेर्ते फिलीपींस के राष्ट्रपति हैं। ह्यूमन राइट्स वाच ने दुतेर्ते शासन के दौरान सात हजार मौतों पर सवाल उठाया था, जो नशा उन्मूलन अभियान के नाम पर रौंद दिए गए थे। इन सवालों को उजागर करने वाले पत्रकार भी बड़ी संख्या में मारे जा चुके हैं। यही वजह है कि फिलीपींस मीडियाकर्मियों के लिए दुनिया का तीसरा सबसे खतरनाक मुल्क माना जाने लगा है। 1992 से 2021 तक 87 पत्रकार फिलीपींस में मारे जा चुके हैं। ऐसे देश में रहकर सत्ता और माफिया के विरुद्ध एक महिला पत्रकार बिना किसी भय के आवाज उठाती है, तो उसे नोबेल पुरस्कार के योग्य माना जाना चाहिए।भारत में ऐसी विषम परिस्थितियां नहीं हैं क्या? जो गिने-चुने लोग जान जोखिम में डालकर निष्पक्ष रूप से पत्रकारिता कर रहे हैं, उनकी तरफ ओस्लो का ध्यान क्यों नहीं जाता? क्या यहां काम करने के तरीके में कोई खोट है, या प्रोफेशनलिजम को अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है? विडंबना देखिए, जो फिलीपींस पत्रकारिता के लिए दुनिया का तीसरा सबसे खतरनाक मुल्क है, वहां रामोन मैगसायसाय पुरस्कार से लोग नवाजे जाते हैं। 
 

भारत अभी 'पत्रकारिता के महानायक' या 'महानायिका' बनने के महासमर से गुजर रहा है। जो सत्ता पक्ष की पत्रकारिता कर रहे हैं, उस गलियारे में भी इसकी रेस लगी है कि कौन आगे है। 'महानायिकाओं' के बीच का महाभारत बाहर वालों को तब दिखता है, जब उनमें से एक 'मीडिया महानायिका', यूएन में कूटनीतिक मिशन के कमरे से बाइज्जत बाहर निकाली जाती है। इससे न्यूजरूम में बैठी बाकी महानायिकाओं के सीने को ठंडक पहुंचती है। बची-खुची कसर को सोशल मीडिया के शूरवीर पूरी कर देते हैं। आज तो हालत यह है कि सोशल मीडिया का हर तीसरा-चौथा आदमी पत्रकार है। यह भीड़ आपको समझाती है कि परमाणु नीति-विदेश नीति कैसे तय किए जाने चाहिए, पत्रकारिता के पैरामीटर क्या हैं, पीएम की यात्रा को पत्रकार किस तरह से कवर करते हैं। काश, ओस्लो में विराजी नोबेल कमेटी यहां की विषम परिस्थितियों को देखती। यह भीड़ आज की तारीख में इतनी विकराल, हाहाकारी है, जरा सा इनकी सोच से अलग होकर बात कीजिए, कोई सवाल कीजिए, इनका कपड़ा फाड़ो कार्यक्रम शुरू हो जाता है।

ध्यान से देखिये और महसूस कीजिये, जो पत्रकार सत्ता की गोद में नहीं बैठे, उन्हें भी विवश होकर अपने भक्तों की गोद में बैठ जाना होता है। हर-हर मोदी के बरक्स घर-घर मोबाईल टीवी चैनल खुल गए। इन्हें चलाने वालों में सौ-दो सौ वो दिलजले पत्रकार भी हैं, जो कभी टीवी स्टार हुआ करते थे। सरवाइवल का सवाल है। 2024 में यदि सत्ता बदली, तो मेनस्ट्रीम मीडिया में वापसी की उम्मीद भी। यूट्यूब ने 10 अरब डॉलर का फंड 48 देशों के वास्ते रखा है, जिनमें से एक भारत भी है। मोबाईल टीवी चैनल के वास्ते प्रोग्राम बनाइए और यूट्यूब पर अपलोड कीजिए, अथवा लाइव दिखाइए। हजार से ऊपर हिट के बाद डॉलर में पेमेंट की उम्मीद ने मोबाईल टीवी चैनलवालों को 'गालीप्रूफ' भी बना दिया है। दर्शक कमेंट बॉक्स में सराहें तो ठीक, गाली दें, तो बला से। दरअसल, जो ‘पत्रकारिता का महानायक’ घोषित करवा चुके हैं, वो अपने भक्तों से भी भय खाते हैं कि जरा सा पटरी से उतरें, फिर यह भीड़ हमें भी नहीं बख्शने वाली।

सवाल यह है कि वो पत्रकार जाएं कहां, जो किसी के पाले में नहीं हैं? यदि जो पत्रकार सत्ता पक्ष का है, उसके साथ मार-पिटाई, गाली-गलौज, उसकी हत्या का अधिकार किसने दे दिया? फर्क क्या रह गया गौरी लंकेश की लाश पर लानत देने वालों में, और उसके उलट रोहित सरदाना की मौत पर जश्न मनाने वालों में? रोहित सरदाना के एरोगेंस को मैं नापसंद करता था, मगर उसकी मौत पर जश्न मनाएं, दिवंगत के परिजनों का मानमर्दन करें, यह इंसानियत नहीं, दरिंदगी है। यही होने लगा है इन दिनों, जो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए भयावह है!

 

(कई देशी-विदेशी मीडिया  हाउस में काम कर चुके लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संंप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक)

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