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आइये जानते हैं एक सिख परिवार की आजादी से पूर्व और आजादी के बाद की कहानी, उन्हीं की जुबानी

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द फॉलोअप टीम, रांची :  आजादी शब्द जितना छोटा है, उसके मायने उतने ही बड़े हैं। सैकड़ों सालों तक संघर्ष के बाद अपना मुल्क आजाद हुआ। आजादी के लिए कई लोगों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दी। हम अंग्रेजों के गुलाम रहे, लेकिन देश की आजादी के लिए दिलों के अंदर दहकने वाली चिंगारी को हमारे पुरखों ने जिंदा रखी। हमारी कई पीढ़ियां गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहे। लेकिन आजादी की दृढ़ इच्छाशक्ति हमेशा दिलों में कायम रही। आइये जानते हैं एक सिख परिवार की आजादी से पूर्व और आजादी के बाद की कहानी, उन्हीं की जुबानी।


पहाड़ी मंदिर में लहराया था तिरंगा 

आजादी के पहले मुल्क ने अपने दामन में कई कहानियां समेटे हुए है। कई लोग यह भी कहते हैं कि रांची के पहाड़ी मंदिर में 14 अगस्त 1947 को ही तिरंगा फहरा दिया गया था। आजादी के दीवाने अपने आपको रोक नहीं पाए। आजाद होते ही मुल्क के अवाम को यह बताना चाहते थे कि...देख अब हमारा मुल्क आजाद हो गया। यह उत्साह व उमंग की पराकाष्ठा थी। सैकड़ों लोग पहाड़ी मंदिर पर चढ़कर आजादी की जंग का जश्न मना रहे थे, क्योंकि वहां हमारा तिरंगा लहरा रहा था। लेकिन अब वो एक कहानी बन गयी है। 


सभी मिल-जुलकर मनाते थे हर त्योहार

आजादी के बाद रावलपिंडी से रांची तक का यह सफरनामा एक ऐसे ही शख्स बलदेव सिंह सिख परिवार का है, जो आजादी से ठीक दो माह पहले रांची आया था। आजादी से पहले यह परिवार अब के पाकिस्तान के रावलपिंडी से रांची आया था। अमृतपुरा उनके गांव का नाम है। अमृतपुरा यह वह शहर है जहां, कभी यह परिवार रहता था। रावलपिंडी शहर में  12 कट्ठा में इनका मकान था। लंबा-चौड़ा खेत भी था। यहां तीनों भाई अपने बच्चे और परिवार के साथ खुशी-खुशी जीवन जी रहे थे। वे बताते हैं कि आजादी से पहले रावलपिंडी में हिंदू-मुसलमान और सिख परिवार सुखी जीवन व्यतीत कर रहे थे। स्कूल में अंग्रेजी, उर्दू, मैथ आदि विषयों में इन सबकी पढ़ाई होती थी। हर कोई उर्दू भी पढ़ता था। अगर पर्व-त्योहार नहीं आए, तो यह पता भी नहीं चलता था कि कौन सा परिवार हिंदू का है और कौन सा मुस्लिम या फिर सिख का।  बलदेव सिंह आजादी से पहले की होली को याद कर आज भी रोमांचित हो उठते हैं। 


रावलपिंडी में दंगा भड़का तो, भागना पड़ा  

होली को लेकर स्कूल में छुट्टियां थी, इसलिए बलदेव सिंह उनके भाई प्रीतम सिंह और चातरक सिंह भी छुट्टी पर थे। वह गतका खेलने गए थे, तभी उनके सरदार ने कहा कि रावलपिंडी के मेन रोड में गुरुद्वारे के पास सिखों से दंगाइयों के बीच झगड़ा-झंझट हो गया है, स्थिति तनावपूर्ण हो गई। राइट शुरू हो गया है, तो तुम बच्चे के साथ अपने घर चले जाओ। तीनों भाई घर वापस लौट के आए और अपने मां-बाप को पूरी कहानी बताई। तीनों भाइयों के पिता बेअंत सिंह उस समय के अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर से सुरक्षा की मांग की। आधे घंटे के अंदर घोड़े पर सवार होकर डिप्टी कमिश्नर उनके घर पहुंचे। फोर्स मुहैया कराने की बात कही गई। लेकिन तब तक दंगाइयों ने पूरे मोहल्ले पर हमला कर दिया। इन तीनों भाइयों के पिता बेअंत सिंह किसी तरह अपनी जान बचा पाए। लेकिन इनके चाचा अतर सिंह की दंगाइयों ने हत्या कर दी। 


और इस तरह रावलपिंडी से रांची आना हुआ

10वीं बोर्ड की परीक्षा देने के बाद बलदेव सिंह रिजल्ट का इंतजार कर रहे थे, लेकिन परिणाम निकलने से पहले हीं उन्हे अपनी जन्म भूमि छोड़नी पड़ी। दंगाइयों के कारण चारों ओर अफरातफरी का माहौल। अपना सबकुछ छोड़ कर ट्रेन में रावलपिंडी से भारत भागते लोग। उन्हीं परिवारों से एक परिवार था बेअंत सिंह का। बेअंत सिंह परिवार 21 जून 1947 को रांची पहुंचा। रांची गोस्सनर कॉलेज के पीछे रिफ्यूजी कैंप बना था, जहां फौजी बाहर से आये लोगों को लोग भी थे। देश विभाजन के बाद आए लोगों को रिफ्यूजी कैंप में रखा गया था। यह परिवार भी वहां पड़ाव डाल दिया। रिफ्यूजी कैंप में बेअंत सिंह परिवार को वहां ढाई साल गुजारना पड़ा। कुछ दिनों के बाद ठेकेदार प्रीतम सिंह के यहां बेअंत सिहं और कलवंत सिंह उनके यहां नौकरी मिल गई। इस तरह कुछ और समय बीता। जीवन सामान्य होने लगे। फिर वह दिन भी आया, जिस दिन मुल्क हमारा आजाद हो गया। रेडियो पर जैसे ही आजादी के बारे में घोषणा हुई कि देश आजाद हो गया है। यह खबर सुनते ही रिफ्यूजी कैंप के तमाम लोग रांची की मेन रोड की सड़कों पर निकल पड़े। सभी हाथ में तिरंगा लहरा रहा था। भारत माता के जयकारे लग रहे थे। चारों तरफ खुशी और उमंग का माहौल था। 


वे भी क्या दिन थे

कुछ दिनों के बाद बेअंत सिंह के परिवार के पास कुछ पैसे आ गये। प्रीतम सिंह, चातरक सिहं और बलदेव सिंह अपने परिवार साथ भुतहा तालाब के पास किराए का मकान लिया। कई सालों तक उस मकान में रहने के बाद बलदेव सिंह टाटा कंपनी में अप्रेंटिसशिप में ज्वाइन कर लिया। छह-सात महीने काम करने के बाद इंडियन नेवी में बहाल हो गए। उनकी पहली पोस्टिंग कोचीन में हुई। चातरक सिंह और प्रीतम सिंह अपने पिता के साथ मिलकर दुकानदारी शुरू की। फिरायालाल चौक के सामने शास्त्री मार्केट में उस समय का रिफ्यूजी मार्केट में कपड़े की दुकान खोल ली। कई वर्ष बीत जाने के बाद गौशाला के पीछे इस परिवार ने अपना घर बना लिया। आज सभी तीनों भाई का घर वहीं आसपास में है। लेकिन 15 अगस्त का दिन वे आज भी वह याद कर रोमांचित हो जाते हैं। बलदेव सिंह जोर देकर कहते हैं, 15 अगस्त और 26 जनवरी को देश में पर्व की तरह मानान चाहिए एक ऐसा पर्व जो हर जात धर्म के लोग मानते हों। सड़क और दफ्तरों तक सिर्फ स्वतंत्र और गणतंत्र दिवस सिमट कर ना हर जाये। सभी के घरों में पर्व पर जैसे अच्छे पकवान बनते हैं वैसे इस दो दिन भी बने सभी को बच्चे हों या वृद्ध पता लेगे कि आज कुछ खास है।


जिन्ना-नेहरू के रुख से मिले कई जख्म

प्रीतम सिंह आजादी की भावना से इस कदर जुड़े कि अपने हाथ में प्रीतम सिहं आजाद गोदवा लिया। बलदेव सिंह कहते हैं महात्मा गांधी तो संत थे। अगर उनकी इच्छा के अनुसार लोग चलते तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान कभी अलग नहीं होता। लेकिन नेहरू जी पॉलीटिशियन थे। लिहाजा मोहम्मद जिन्ना चाहते थे कि भारत के वह प्रधानमंत्री बने, लेकिन जब ऐसा नहीं होता दिखा तो उन्होंने अपने लिए मुसलमानों के नाम पर अलग से मुल्क बनाने की मांग की। उस समय के लोगों ने पाकिस्तान को तो अलग कर दिया लेकिन जो जख्म बंटवारे के समय मिला, वह कई सदियों बाद भी हरे हैं। बलदेव सिंह बताते हैं कि हम तीन कपड़ों के सहारे रावलपिंडी से भागकर रांची आए थे। सपने में भी नहीं सोचा था कि वापस  कभी घर और खेत नहीं देख पाएंगे। सब कुछ छूट गया। हमारे जानवर, हमारे खेत, हमारा मकान सब कुछ छोड़ना पड़ा। वे बताते हैं कि 15 अगस्त 1947 को रांची के मोराबादी मैदान में आजादी का जश्न मनाने के लिए स्वतः जुट गए और वहां झंडात्तोलन हुआ। बलदेव सिंह के मन में एक कसक भी है। वे बताते हैं कि भारत सरकार ने उस समय 10 एकड़ खेती के लिए नामकुम के पास जमीन दी थी। लेकिन आज तक ना तो वह जमीन मिली और न उसके कागजात। यह कहते हुए वे उदास हो गए।