विजय कुमार, मुंबई:
जुहू तारा रोड पर जुहु गांव से समुद्र तट की ओर एक पतली सी गली खुलती थी। वहां कभी एक छोटी सी इमारत थी फिलोमिना लॉज जिसकी तल मंजिल पर मशहूर लेखक और फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास रहते थे । किराये के उस मामूली से आवास में उन्होंने अपनी ज़िन्दगी गुज़ार दी। समय बदल गया है। जुहू इलाका भी बदल गया। आज जे. डबल्यू . मेरियट नाम के उस भव्य पंचतारा होटल के सामने सड़क पार की वह नामालूम सी गली जो पद्मश्री के..ए. अब्बास मार्ग कहलाती है और जहाँ एक काली तख्ती पर अब्बास साहब के नाम के वे मिटते हुए हिज्जे हैं, वे एक बीते हुए दौर की कहानी कह रहे हैं। 7 जून को उस विलक्षण प्रतिभा की 107 वी जयंती है। जून महीने में ही 1987 में 1 तारीख को अब्बास साहब का 72 वर्ष की उम्र में निधन हुआ था। लेकिन जन्मतिथियों और पुण्यतिथियों पर रस्मी किस्म की स्मृतियों से ज़्यादा महत्वपूर्ण उस दौर के जीवन मूल्यों और संस्कृति के उस ढाँचे को जानना है जिसमें ऐसी प्रतिभाओं ने अपने समय को रचा। बेहद सादगी, निस्पृहता, सीमित निजी ज़रूरतों वाला वह जीवन, समाज के वंचित तबकों से जुड़ी हुई प्रखर चेतना, आला दर्ज़े की बौद्धिकता, ज़िन्दादिली, सृजन और विचार की दुनिया, बहुआयामी गतिविधियाँ तथा सामाजिक समता के दर्शन से जुड़ा तरक्कीपसंद तहरीक का वह रोमान।
72 वर्ष की ज़िन्दगी में 73 किताबें
अब्बास साहब ने चाहे कहानियां लिखी हों या उपन्यास, इप्टा की गतिविधियाँ से जुड़ाव रहा हो या लोकप्रिय सिनेमा का पटकथा लेखन, सामाजिक-राजनीतिक विषय पर किसी फिल्म का निर्देशन हो या अखबारी लेखन, वे किसी सांस्कृतिक-वैचारिक बैठक में थे या शहर की मज़दूर बस्तियों में आयोजित विशाल जन सभाओं में- हर जगह उनकी एक विलक्षण हिस्सेदारी थी। ताज्जुब होता है कि किस सहजता से वे सृजन की एक विधा से दूसरी में विधा में आवाजाही कर लेते थे। ब्लिट्ज़ में उनका अत्यंत लोकप्रिय कॉलम ‘ लास्ट पेज ‘पचास वर्ष तक अबाध रूप से चला। 72 वर्ष की ज़िन्दगी में उन्होंने 73 किताबें लिखीं।
आवारा, श्री 420, परदेसी, ग्यारह हज़ार लड़कियाँ
एक सोद्देश्य, गंभीर, वैचारिक ऊर्जा से भरे प्रयोगशील सिनेमा के वे ऐसे रचयिता थे जो चालीस के दशक में बंगाल के अकाल पर ‘धरती के लाल' जैसी एक युगान्तरकारी फिल्म बना सकता था, मेक्सिम गोर्की के महान उपन्यास ‘लोअर डेप्थ' पर आधारित चेतन आनन्द की फिल्म ‘नीचा नगर' की पटकथा तैयार कर सकता था! वी. शान्ताराम के लिये ‘डॉक्टर कोटनीस की अमर कहानी' जैसी फिल्म लिख सकता था और वही व्यक्ति पचास के दशक में समाजवाद के सपने पर आधारित एक नये लोकप्रिय कमर्शियल सिनेमा के ‘फार्मेट' को भी गढ सकता था। आवारा, श्री 420, परदेसी, ग्यारह हज़ार लड़कियाँ और सट्टा बाज़ार जैसी फिल्मों की पटकथाएं हिन्दी सिनेमा में विस्थापित जीवन के एक नये समय को दर्शाती थीं। उनके यहाँ समसामयिक घटना, रिपोर्ताज और कला-सृजन के अन्तराल लगभग मिट गये थे।
फिल्मों के जरिये पहली बार महानगर के नैरेटिव को रचा
ख्वाज़ा अहमद अब्बास ऐसे कृतिकार थे जिन्होंने अपने लेखन और फिल्मों के द्वारा पहली बार इस महानगर के नैरेटिव को रचा। हमारे महानगर की शक्ल को ‘बम्बई रात की बाँहों' में उन्होंने जिस रूप में गढा उसमें पूंजीवादी विकास के तमाम अन्तर्विरोध, ऊंचाइयां और तलछटें, चमक-दमक और भयावह अंधेरा, रंगीनियाँ, कहकहें, मस्ती और उन्हीं के हाशिये पर हज़ारों–लाखों बेदखल ज़िन्दगियाँ, सिसकियाँ, अनसुने रुदन और मज़बूरियों के सन्दर्भ थे। कौन भूल सकता है फिल्म ‘शहर और सपना' की उस दिल हिला देने वाली सिचुएशन को जब गांव से उखड़कर रोजी-रोटी की तलाश में बम्बई शहर में आया युवक और उसकी नव ब्याहता यहाँ गटर के एक खाली पड़े उस बड़े से पाइप में अपनी गृहस्थी की शुरुआत करते हैं। आहार, निद्रा और मैथुन के वे नये सन्दर्भ। पाइप पर टंगे टाट के एक मामूली से पर्दे के पीछे की गृहस्थी। लेकिन अभाव, असुरक्षा, हँसने-रोने के साथ कल के लिये कोई उम्मीद भी थी। इसीलिये कि वह मनुष्य है। शहर है तो लाखों लोगों के लिये एक सपना भी है। 1963 में अब्बास की फिल्म ‘शहर और सपना’ आयी और उन्हीं दिनों सत्यजीत रे की फिल्म ‘महानगर' भी आयी। दो महान सर्जक, दो शहर और दो असाधारण नरैटिव। एक की फिल्म में ग्रास रूट का खुरदुरा ग्राफिक यथार्थ था तो दूसरे के यहाँ मानवीय व्यथा का तरल रूपांकन। अब्बास की सृजनात्मकता फुटपाथों पर फैले यथार्थ और सपनों की सबसे अन्दरूनी तहों में प्रवेश करती थी। वे पहली बार उस निराश्रित जीवन को कला के दायरे में लाये। उस फिल्म के 60 वर्ष बाद भी हमारी शहरी सच्चाइयां तो आज भी वही हैं।
आत्मकथा ‘आए एम नॉट आइलैंड'
ख्वाज़ा अहमद अब्बास की वह बहुचर्चित आत्मकथा ‘आए एम नॉट आइलैंड' आज एक नया पाठ चाहती है। यह जाना जाये कि विस्मृति, बिखराव और उपभोग के समय में कला कैसे प्रतिरोध की किसी ज़मीन को सींचती है। कला का मतलब आज जब सिर्फ चटपटा मनोरंजन रह गया है। के. ए. अब्बास अपनी आत्मकथा में इस बात को पुरज़ोर तरीके से रखते हैं कि ‘मेरा मूल काम मनुष्यता के हक में चीजों को सम्प्रेषित करना है। मेरी सोच, मेरी संवेग, मेरी विचारधारा दूसरों तक पहुंचनी चाहिय। वही मेरे लिये बुनियादी तौर पर पत्रकारिता है, कोई राजनीतिक किताब लिखना है, अदब की ज़मीन पर अफसाने या नाटक लिखना है या कोई सार्थक सिनेमा बनाना है।’
नाना शायर ‘हाली', अंग्रेजों ने दादा को पानीपत में तोप से बांधकर उड़ा दिया था
एक असाधारण परम्परा के वारिस थे अब्बास साहब। नाना ख्वाज़ा अल्ताफ हुसैन ‘हाली' उर्दू के मशहूर शायर तो दादा 1857 के सैनिक विद्रोह के एक शहीद। ब्रिटिश हुकूमत ने उनके दादा ख्वाज़ा गु़लाम अब्बास को पानीपत में तोप के मुँह से बांधकर उड़ा दिया था। अब्बास साहब के पिता गुलाम उस सिबतैन अलीगढ युनिवर्सिटी के स्नातक थे और उन्होंने यूनानी दवाओं का आधुनिकीकरण किया । अब्बास साहब ने अलीगढ युनिवर्सिटी से अंग्रेज़ी साहित्य और कानून की पढाई के बाद अपने लिये लेखन का रास्ता चुना। समाज के हर तबके का सूक्ष्म निरीक्षण, करवट लेता हुआ एक ज़माना और स्मृतियों की एक समृद्ध परम्परा। अपने लेखन में उन्होंने काल्पनिक चरित्रों को जवाहरलाल नेहरु, गांधी, मुहम्मद अली जिन्ना और शौकत अली के इर्द गिर्द इस तरीके से बुना कि हकीकत और कल्पना वहाँ एक दूसरे से पूरी तरह से घुल मिल गये थे।
पुश्तैनी हवेली एक मज़लूम सिख को सिर्फ एक रुपये में बेच दी थी
कैसा था उस दौर का जीवन ? जुहू में अब्बास साहब का वह छोटा सा आवास बाहर से आये हर किसी के लिये खुला था। कोई नामचीन हो या नौसिखिया। जिसे जहाँ जगह मिली, उन दो कमरों की दुनिया में पसर गया। उनकी किताबें और निजी कपड़े तक दूसरों के लिये थे। अपनी सम्पत्ति बनाने का उन्हें कोई मोह नहीं था। पानीपत की अपनी पुश्तैनी हवेली उन्होंने देश के विभाजन के बाद उस तरफ सेआये एक मज़लूम सिख को सिर्फ एक रुपये में बेच दी थी। उनका जब निधन हुआ तो अपनी लिखी उन 73 किताबों में से सिर्फ तीन किताबें उनकी अल्मारी में बची थीं। अपने लिखे को लेकर संजोने, बचाने का भी कोई मोह नहीं। वह खुलकर जिया गया एक जीवन था। बाहर भीतर की तमाम ज़ंजीरों को तोड़ता हुआ।
(लेखक विजय कुमार कवि, आलोचक,निबन्धकार और अनुवादक हैं। अदृश्य हो जायेंगी सूखी पत्तियां, चाहे जिस शक्ल से, रात पाली, मेरी प्रिय कविताएं (कविता संग्रह), साठोत्तरी हिन्दी कविता की परिवर्तित दिशायें, कविता की संगत, कविता के पते-ठिकाने (आलोचना), कवि-आलोचक मलयज के कृतित्व पर साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित मोनोग्राफ़ के अलावा अंधेरे समय में विचार, खिड़की के पास कवि (वैचारिक)समेत कई किताबें प्रकाशित। कई पत्रिकाओं के विशेषांक का संपादन। शमशेर सम्मान, देवीशंकर अवस्थी सम्मान, प्रियदर्शिनी अकादमी सम्मान और महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी सम्मान। आईडीबीआई बैंक मुम्बई प्रधान कार्यालय में राजभाषा विभाग के महाप्रबंधक पद से सन् 2005 में स्वैच्छिक अवकाश। सम्प्रति स्वतन्त्र लेखन।)