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साबरमती का संत-34: महात्‍मा गांधी, कांग्रेस और लोकसेवक संघ

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  34वीं किस्त -संपादक। )

कनक तिवारी, रायपुर:

आजाद के बाद कांग्रेस के भविष्य को लेकर गांधी ने अपनी प्रार्थना सभाओं में बहुत कुछ कहा है। वे कांग्रेस के लिए आशंकित, आशान्वित और ऊपरी तौर पर तटस्थ भी होते थे। गांधी ने कहा कांग्रेस पूरे भारत की पार्टी है। उसे देखना है हिन्दू, मुसलमान, पारसी और सभी धर्मों, जातियों के लोग सुखी रहें। मैं कतई नहीं कहना चाहता कि कांग्रेस केवल मुसलमानों को खुश करे या कायर बनी रहे। मैंने कायरता की पैरवी कभी नहीं की। बहादुरी के साथ शांति की स्थापना कांग्रेस का मुख्य कार्यक्रम होना चाहिए। 28 जुलाई, 1947 को गांधी ने फिर कहा। मुसलमानों ने भले ही अपना अलग राष्ट्र बना लिया है। लेकिन भारत हिन्दू इंडिया नहीं है। कांग्रेस केवल हिन्दुओं का संगठन नहीं बन सकती। हिंदुस्तान को रचने वाले मुसलमान कभी नहीं कहते वे भारतीय नहीं हैं। अपनी कमजोरियों के बावजूद हिंदू धर्म ने कभी नहीं कहा उसे बटवारा चाहिए। कई धर्मों के मानने वालों ने मिलकर हिंदुस्तान बनाया है। वे सब भारतीय हैं। तलवार की जोर पर आजमाई ताकत के बदले सत्य की ताकत बड़ी होती है। 

 

गांधी ने 18 नवम्बर, 1947 को डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद से बातचीत में कहा मौजूदा हालत में तो कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए। या फिर बहुत ऊर्जावान व्यक्ति के नेतृत्व में जिंदा रखा जाना चाहिए। यहां गांधी समग्र विचार के बाद कांग्रेस को भंग कर देने का निर्विकल्प प्रस्ताव नहीं रच रहे थे। जाहिर है वे कांग्रेस के नेतृत्व से पूरी तौर पर असंतुष्ट थे। मरने के एक पखवाड़े पहले गांधी ने 16 जनवरी को एक पत्र में लिख दिया था कांग्रेस एक राजनीतिक पार्टी है। इसी रूप में वह कायम रहेगी। उसे राजनीतिक सत्ता मिलेगी तो वह देश की कई पार्टियों में से केवल एक पार्टी कहलाएगी। इतिहास यह बात हैरत के साथ दर्ज करेगा कि अपनी मौत के एक दिन पहले 29 जनवरी को कांग्रेस संविधान का ड्राफ्ट लिखते जांचते गांधी ने फिर कहा था। कांग्रेस संविधान में शामिल किया जाए। कांग्रेस स्वयमेव खुद को भंग करती है। वह लोकसेवक संघ के रूप में पुनर्जीवित होकर संविधान में लिखे बिंदुओं के आधार पर देश को आगे बढ़ाने के काम के प्रति प्रतिबद्ध होती है। इसी कथन का अमित शाह ने आधा अधूरा उल्लेख किया है। यही प्रमुख और बुनियादी दस्तावेज है जिसे बीज के रूप में भविष्य की कांग्रेस के गर्भगृह में गांधी ने बोया था। वह बीज एक विशाल वृक्ष के रूप में गांधी की मर्यादा के अनुसार विकसित नहीं हो सका। यह बात अलग है। 

 

हरिजन में ‘निर्णायक शुक्रवार शीर्षक से प्रकाशित अपने लेख में प्यारेलाल लिखते हैं:  गांधी जी 29 तारीख को दिन भर इतने व्यस्त रहे कि अन्त में थककर चूर हो गये। कांग्रेस-संविधान के मसौदे की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा: ‘मेरा सिर चकरा रहा है फिर भी मुझे इसे समाप्त करना होगा।‘‘ गांधीजी ने कांग्रेस का संविधान तैयार करने का कार्य अपने हाथ में लिया था। फिर उन्होंने कहाः ‘‘मुझे डर है कि मुझे देर तक जागना पड़ेगा।‘‘ अगले दिन गांधीजी ने मसौदे में संशोधन करके, ‘‘ध्यान से पढ़ने के लिए‘‘ कहकर प्यारेलाल को दे दिया। गांधीजी ने उनसे कहा कि ‘‘यदि विचार में कहीं अन्तर आ जाये तो उन्हें पूरा कर देना। इसे मैंने भारी थकान की हालत में लिखा है। प्यारेलाल जब मसौदे में संषोधन करके गांधीजी के पास ले गये तो उन्होंने ‘‘आद्योपान्त पढ़ने की अपनी स्वभावगत विषेषता के अनुसार एक-एक मुद्दे को लेकर उसमें जोड़-बदल किये और पंचायतों की संख्या के हिसाब में हुई भूल को ठीक किया।‘‘ 

 

अ.भा. कांग्रेस कमेटी के महासचिव आचार्य जुगल किशोर ने प्रस्तुत मसौदा निम्नलिखित टिप्पणी के साथ समाचारपत्रों के लिए 7 फरवरी को जारी कियाः ‘‘जैसा कि इस बारे में समाचारपत्रों में पहले भी कुछ प्रकाशित हो चुका है...महात्माजी ने कांग्रेस संविधान में फेर-बदल करने का प्रस्ताव रखा था। उसका पूरा मसौदा जो उन्होंने मुझे विनाशकारी 30 जनवरी को सुबह दिया था, मैं जारी कर रहा हूं।....यह हरिजन में ‘‘हिज लास्ट विल टैस्टामेण्ट‘‘ (गांधीजी का आखिरी वसीयतनामा) शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। भारतीय जनसंघ की स्थापना 1952 में हुई। 1977 में वह जनता पार्टी में विलीन हो गया। अर्थात राजनीतिक दल भंग हो गया। जनता पार्टी का संविधान उस धड़े का भी अनुशासन तंत्र हो गया। 1980 आते आते जनता पार्टी के भारतीय जनसंघ के शामिल तबकों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्यता लेते दोहरी सदस्यता का पचड़ा खड़ा किया इससे जनता पार्टी में टूट हुई और भारतीय जनसंघ के लोगों ने निकलकर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। उसका नया संविधान बना। अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में गांधीवादी समाजवाद को पार्टी का मुख्य ध्येय बनाया गया हालांकि अब वह काॅरपोरेटीकरण के गुलामों में तब्दील हो गया है। पार्टी की संरचना में ढांचागत परिवर्तन होकर दूसरी पार्टी में विलीन होने पर भी इसे राजनीतिक पार्टी भारतीय जनसंघ का भंग होना नहीं कहा जा सकता क्योंकि विचारधारा तो कायम रही है। ढांचा बदलता गया। 

 

गांधी इसी तरह कांग्रेस की विचारधारा, संविधान और कार्यक्रम जारी रखना चाहते थे। उसका केवल नाम बदलना बताया। देश में जनता के लिए उसकी केन्द्रीय भूमिका नहीं बदली। उन्होंने कहा कांग्रेस पूरे भारत की पार्टी है। यह भी कि ‘‘यद्यपि भारत का विभाजन हो गया मगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्र्रेस द्वारा प्रयुक्त साधनों से देष को आजादी मिलने के बाद कांग्रेस के अपने मौजूदा स्वरूप में अर्थात एक प्रचार माध्यम और संसदीय तन्त्र के रूप में उपयोगिता समाप्त हो गई है। भारत को अपने सात लाख ग्रामों की दृष्टि से जो उसके शहरों और कस्बों से भिन्न हैं सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है। भारत में लोकतन्त्र के लक्ष्य की ओर बढ़ते समय सैनिक सत्ता पर जनसत्ता के आधिपत्य के लिए संघ होना अनिवार्य है। हमें कांग्रेस को राजनीतिक दलों और साम्प्रदायिक संस्थाओं की अस्वस्थ्य सपर्धा से दूर रखना है। ऐसे ही अन्य कारणों से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी मौजूदा संस्था को भंग करने और नीचे लिखे नियमों के अनुसार ‘‘लोक सेवक संघ‘‘ के रूप में उसे विकसित करने का निष्चय करती है। इस संघ को आवश्यकता पड़ने पर इन नियमों में परिवर्तन करने का अधिकार रहेगा।‘‘ इस नजर से देखने पर यह साफ होगा कि गांधी और कांग्रेस के रिश्ते को समझना आसान नहीं है। गांधी का लिखा कहा एक तरह से, बल्कि सभी तरह से, एक पिता का संतान पीढ़ी के लिए लिखा संदेश या वसीयत है। वह एक पारिवारिक हलफनामा है। उसके आधार पर गांधी विरोधी विचारधारा अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बने कि गांधी ने मानो कांग्रेस को खत्म कर देने का कोई ऐलान या फतवा जारी किया था।

जारी

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।