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यूपी के चुनाव में प्रियंका गांधी के दख़ल के मायने- एक विश्लेषण

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शकील अख्तर,  ग्वालियर:

लड़ाई अगर ठीक से लड़ी जाए तो जीत मुश्किल नहीं है। आप को किसान से नफरत है, मजदूर से है, नौकरी पेशा से है, छोटे व्यापारी से है, स्टूडेंट से है, गांव वालों से है, कोरोना से मर गए लोगों से भी हैं कि कहते हैं ठीक हुआ, मोक्ष को प्राप्त हुए। स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल रहा। या तो बिना अस्पताल में भर्ती हुए घर में बिना आक्सीजन के तड़प-तड़प के मर गए या किसी सिफारिश से अस्पताल पहुंच पाए तो किसी का बिल 15 लाख से कम नहीं आया। अधिकतम की कोई सीमा नहीं थी। वह करोड़ से भी उपर पहुंचे हैं। और आप कहते हैं कि सिस्टम गड़बड़ है! मगर धूल अब बैठने लगी है। चीजें साफ हो रही हैं। कुछ तो एकदम क्लीयर हो गई हैं। एक, ओवेसी खाली भभका थे। दूसरे मायावती पूरी तरह अप्रसांगिक हो गई हैं। तीसरे भाजपा नीचे जा रही है। चौथे, एसपी की साइकल रुक गई है। और लास्ट बट नाट लीस्ट कि प्रियंका का प्रभामंडल बढ़ रहा है। लोगों का विश्वास बढ़ रहा है। लोग आ रहे हैं। उनमें हिम्मत आ रही है।


और यही है लड़ाई के संकेत कि जीत सकते हैं। अभी एक युवा लड़की ने हमारे ट्वीटर पर लिखा कि सर हमने अपनी जिंदगी में यूपी में कांग्रेस की सरकार नहीं देखी। क्यों लिखा उसने? शायद कुछ उम्मीद बंधी है। पिछले चुनाव में बहुत आरोप लगे थे। प्रियंका गांधी के पास अब सारी खबरें आ गई होंगी। टिकट बेचने से लेकर और भी खराबियों तक। 2017 की हार के बाद एक मीटिंग में एक कांग्रेस के नेता का धीरज टूट गया था। उसने सारे बड़े नेताओं के सामने एक सबसे वरिष्ठ नेता पर साफ आरोप लगाया कि उन्होंने टिकट किस आधार पर और किस को दिए। मीटिंग में सन्नाटा छा गया। जिसके उपर सारे चुनाव की जिम्मेदारी थी उसे भरी सभा निर्वस्त्र कर दिया गया। महिलाएं गुस्से और क्षोभ से उसकी तरफ देखने लगीं। लेकिन जैसा कि कांग्रेस में होता है, कुछ नहीं हुआ। खैर अब वे नेता भी कांग्रेस से शायद विदा लेने की तैयारी कर रहे हैं। 

 

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यह एक गंभीर समस्या है। सभी दलों में है। कुछ दिनों पहले स्वामी यति नरसिंहानंद का एक वीडियो बहुत वायरल हुआ। जिसमें वे भाजपा, सपा सभी दलों पर महिलाओं के शोषण का आरोप लगा रहे हैं। प्रियंका गांधी इस समस्या की जड़ को समझ गई हैं। जब ज्यादा से ज्यादा महिलाएं राजनीति में आएंगी तो इस तरह की बेहूदी, शर्मनाक मांग करने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ेगी। प्रियंका ने 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने का एलान करके राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात कर दिया है। महिलाओं में एक नई उम्मीद जगी है। युवा महिलाएं सवाल कर रही हैं। उनका अत्मविश्वास दिख रहा है। यही चीज प्रियंका की सबसे बड़ी ताकत बनेगी। यूपी में मेहनत राहुल ने भी कम नहीं की थी। 2007 में पहली बार वे यूपी विधानसभा के चुनाव में सक्रिय हुए थे। गांव गांव घूमे थे। मगर वह मंडल कमंडल का समय था। साम्प्रदायिकता का मुकाबला क्षेत्रीय दल जातिवादी राजनीति से कर रहे थे। मुलायम के खिलाफ ब्राह्मण मायावती के साथ चले गए। उस माहौल में राहुल की धर्म और जाति से परे गरीब, किसान, मजदूर और युवाओं के पक्ष की आदर्शवादी राजनीति किसी के समझ में नहीं आई।


याद रहे यह वही चुनाव था जब राहुल रात को चुपचाप दलितों के घर जाकर उनका हालचाल पूछते थे। साथ चल रहे मीडिया को सुबह मालूम पड़ता था। लोग तब भी यकीन नहीं करते थे और आज तो जब कारिडोर में चार कदम टहलने के फोटो भी अखबारों के पेज वन पर संपादकों की अलंकृत भाषा के साथ छपते हैं तब कौन करेगा! मगर जैसा कि कहते हैं कि सत्य अपने पीछे इतने प्रमाण छोड़ जाता है कि वे मिटाए नहीं मिटते। ऐसे ही जब राहुल जाते थे तब उनके साथ वे सारे पत्रकार होते थे, जो आज गोदी मीडिया के बड़े स्तंभ बने हुए हैं। टीवी एंकर हैं। एडिटर हैं। आज राहुल की बहुत आलोचना करते हैं। मगर इनसे पूछा जाए कि सीने पर हाथ रखकर सच बताओ कि क्या राहुल के दलितों के घर जाने की पूर्व सूचना कभी दी जाती थी? क्या राहुल इसको छुपाते नहीं थे कि इस तरह दलितों के घर जाना मीडिया को पता नहीं चले और फोटो नहीं बन पाएं? गरीब की निजता का हनन न हो? क्या सुबह पत्रकार गुस्सा नहीं होते थे कि रात को बताया क्यों नहीं? हमें नहीं लगता कि कितने भी भक्त हो गए हैं मगर वे सच से इनकार कर पाएंगे। राहुल प्रचार से बचते थे। आज भी अपने विरोधी नेता की तरह वे आत्मप्रचार नहीं कर पाते।

 

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तो, खैर बात उस दौर की हो रही थी कि जब राहुल ने युपी में बहुत मेहनत की मगर उन के साथ के नेता इस मेहनत को जमीन पर ट्रांसलेट नहीं कर पाए। और कांग्रेस की कश्ती में उछाल नहीं आ पाया। याद रखें यह वह दौर था जब अखबारों के मालिक राहुल को उगता हुआ सूर्य बता रहे थे। अख़बार के पहले पेज पर मालकिन के राहुल पर लेख होते थे। आज तो पैसा और भय दोनों के कारण अख़बार भाषा और शैली के एक से एक नए प्रयोग कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के मुख्यमंत्री के कंधे पर रखे हाथ पर एक से एक नई उपमाएं दी जा रही हैं। मगर तब हालत यह थी कि राहुल अख़बार मालिकों और संपादकों से मिलते भी नहीं थे। सामान्य रिपोर्टरों, कैमरामेनों से आज की तरह ही तब भी सहजता से मिलते थे। हाल चाल पूछते थे। अभी जैसे कोरोना के कठिन समय में पत्रकारों की चुपचाप मदद की तब भी वैसे ही चुपचाप करते थे। हाल चाल पूछते थे। किसी तेज होने का दावा करने वाले चैनल के एंकर के चाहे वह उस समय भी निंदा में ही लगा रहता हो परिवार में कोई बड़ी दुर्घटना हो जाए तो अस्पताल में व्यवस्थाएं देखने से लेकर लोदी रोड श्मशान घाट पर आकर शोक में शामिल भी होते थे। 


ऐसा नहीं है कि मीडिया को यह सब याद नहीं। बुरे समय में साथ खड़े होने वाले और संवेदना के साथ कम लोग होते हैं। उन्हें नकार सकते हैं। मगर भूल नहीं सकते। अभी मीडिया सोचने लगा था कि उसके पास बहुत पैसा आ गया। प्रभावशाली हो गया। मगर कोरोना में घर में शव पड़े थे कोई उठाने वाला नहीं था। पूरा परिवार संक्रमित। कोई इलाज नहीं था। ऐसे में राहुल फिर चुपचाप आगे आए। प्रियंका ने इससे आगे बढ़कर मदद की। राहुल के लिए जो जीवनदायी रेमडेसिविर इंजेक्शन मंगाए गए थे वे एक पत्रकार के परिवार को जरूरत पड़ने पर उनको पहुंचा दिए। शुक्र रहा कि कोरोना से पीड़ित राहुल को उनकी जरूरत नहीं पड़ी। तो यह जज्बे होते हैं। देर से आते हैं, मगर लोगों की समझ में आते हैं।  जनता की मेमोरी शार्ट होती है। पुराना भूल जाती है। मगर जब चीजें हद से गुजर जाती हैं। तब उसे भी अपने नफे नुकसान का कुछ अहसास होने लगता है। नफरत और विभाजन का उन्माद उतरने लगता है। बच्चों का भविष्य याद आने लगता है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह नफरत की आग अब तक सब कुछ जलाकर खाक कर चुकी होती। मगर सकारात्मकता, प्रेम, भाइचारे की शीतल बौछारें कभी भी खत्म नहीं होती हैं। रुक सकती हैं। कम हो सकती हैं। मगर बंद नहीं हो सकतीं। यही भावना है जो किसी युवा से पुछवाती है कि हमने अपने होश संभालने के बाद से यूपी में सबकी सरकारें देखीं। कांग्रेस की नहीं। यह प्रियंका की जीत है। उनकी जगाई उम्मीद की कहानी की शुरुआत। कहानी कहां जाती है। क्या मोड़ लेती है। यह तो समय बताएगा। मगर इसे लिखने के लिए अब युवा और खासतौर से महिलाएं साथ आईं हैं इससे उम्मीद बंधती है कि कहानी आगे बढ़ेगी। सुखद होगी।

 

( राजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले लेखक मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।