मनोहर महाजन, मुंबई:
(वो 9 नवम्बर 1977 का दिन था। हमारे क़ौमी तराने "सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा के रचयिता अल्लामा इक़बाल की सौवीं बरसी पर आयोजित शो 'याद-ए-इक़बाल 'जो उर्दू-एकेडमी के सौजन्य से बम्बई (अब मुंबई) के बिड़ला 'मातुश्री हाल' में हो रहा था। इसमें जगजीत सिंह और चित्रा सिंह अल्लामा इक़बाल के कलाम को अपनी आवाज़ों से गुलज़ार करनेवाले थे। इस शो की 'एन्करिंग' याने 'संचालन' की बाग़डोर मुझे सौंपी गई थी। शो की सदारत कर रहे थे चीफ़-गेस्ट अभिनय-सम्राट दिलीप कुमार। इसी शो में उनसे मिलने की मेरी वर्षों पुरानी चाह पूरी हुई थी। पर मेरी ये 'चाह' जिस अजीबो-ग़रीब तरीक़े से पूरी हुई, वो आज तक मेरे ज़हन में महफूज़ थी, पर आज दिलीप कुमार साहब के अचानक इस दुनिया से चले जाने पर भारी दिल से आपसे शेयर कर रहा हूँ। यह संस्मरण मेरी पुस्तक 'यादें मेरे दौर की' में शामिल है।)
स्टेज सेट हो चुका था, दर्शक दीर्घा खचाखच भर चुकी थी
शो शाम 7:30 बजे शुरू होना था। सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। जगजीत और चित्रा समेत सारे म्युज़ीशियंस आ चके थे। स्टेज सेट हो चुका था।साउंड सिस्टम चेक किया जा चुका था। दर्शक दीर्घा खचाखच भर चुकी थी। बस इन्तज़ार था चीफ़-गेस्ट अभिनय सम्राट दिलीप साहब के आने का।
साढे सात से आठ बज गये..आठ से साढ़े आठ...पर चीफ-गेस्ट का कोई आता पता न था।
मैंने ऑरर्गेनाइज़र्स से दरयाफ़्त किया! उनके चेहरों पर हवाइयां उडी हुई थीं। वो कई बार दिलीप साहब के यहाँ फ़ोन कर चुके थे और हर बार उन्हें जवाब मिला कि दिलीप साहब की तबीयत अचानक नासाज़ हो गई है। इसलिये वो इस शो में न आ पायेंगे। शो के ज़्यादर टिकट दिलीप साहब के नाम पर बिके थे और उनका इसमें न आना, इस शो के लिये दर्शकों के क्रोध का निशाना सकता था।
सायरा बोलीं, कितनी बार बताना पड़ेगा कि साहब की तबीयत नासाज़ है
वो मोबाईल का ज़माना नहीं था और न ही टेलीफोन की लक्ज़री उपलब्ध थी। पूरे हाल में मात्र एक 'पब्लिक-टेलिफोन-बूथ' था। जिसमें आठ आने का coin डालकर फ़ोन किया जा सकता था। दिलीप साहब का न आना, कितना खौफ़नाक़ मन्ज़र पेश कर सकता है। इसका अंदाज़ा मुझे और ऑर्गेनाइज़र्स को पूरी तरह था,और हम सब बेहद खौफ़ज़दा थे। समय तेज गति से आगे बढ़ रहा था..घढ़ी की सुइयां साढ़े नौ को छू रही थीं। बेचैनी ज्वालामुखी का रूप धार सकती थी।
मैने ऑरगेनाज़र्स में से एक से आख़री बार दिलीप साहब के यहाँ फ़ोन लगाने को कहा,और खुद बात करने का फैसला किया। आठ आने का coin डालकर फ़ोन किया गया.काफी देर तक रिंग जाने के बाद सायरा बानो जी ने फ़ोन उठाया। मैने अपना परिचय देते हुए दिलीप साहब के शो में फौरन आने की दख्वास्त की,वरना कोई बड़ा हादसा होने की बात कही। "..ओफो! कितनी बार आप लोगों को कहना पडेगा कि साहब की तबीयत नासाज़ है।वो शो में नहीं आ सकते..: " सायरा जी ने ग़ुस्से में जवाब दिया।
मैने भी अपना आपा खो दिया: "देखिये मैडम जी ये अल्लामा इक़बाल की सौवीं बरसी का जश्न है। उर्दू एकेडमी की तरफ से। दिलीप साहब की सदारत में ये जश्न आयोजित किया गया है। टिकटें उनके नाम से बिकी हैं। अगर कोई हादसा पेश आया तो इसकी ज़िम्मेदारी दिलीप साहब के सर होगी। क्या आप चाहती हैं कि कल के सारे अखबारों के 'फ़्रंट पेज' पर न्यूज़ हो कि दिलीप साहब के फलाँ शो मे न आने की वजह से दर्शकों ने हाल में आग लगा दी। कुर्सियां टूटी इतने लोग जख्मी हुए इतने लोग.."
अचानक फ़ोन पर धीर गम्भीर एक परिचित आवाज़ गूंजी
अचानक फ़ोन पर धीर गम्भीर एक परिचित आवाज़ गूंजी। जिसे मैं करोडों में पहचान सकता था। ये आवाज़ किसी और की नहीं हरदिल अज़ीज़ मेरे ख्वाबों के शहनशाह दिलीप कुमार साहब की थी,जो पूछ रही थी: "कौन साहब बोल रहे हैं?" पता नहीं सकपकाहट में या घबराहट में, गुस्से में मेरे मुँह से निकला: "मैं इस शो का 'कुत्ता' बोल रहा हूँ... जी, मेरा मतलब..इस शो का होस्ट,मास्टर ऑफ़ सेरेमनी बोल रहा हूँ।"
"कुत्ते साहब! बेगम सायरा साहिबा ने आपको बताया नहीं कि मेरी तबीयत अचानक ख़राब हो गयी है?" "आपकी तबीयत कितनी ख़राब है, मुझे नहीं पता सर ,पर अगर आप यहाँ तशरीफ-फ़रमा नहीं हुए तो आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते कि यहाँ कितनों की तबीयत खराब हो जायेगी." इसके बाद मैने वो सभी बातें फिर से दोहरा दीं,जो मैने सायरा जी को कही थीं. "कुत्ते साहब! हम पहुंच रहे हैं..." इतना कहकर दिलीप साहब ने फ़ोन रख दिया।
दिलीप साहब की कार आते ही भगदड़ सी मच गई
हॉल मातम की जगह खुशनुमा माहौल में तब्दील हो गया। जब मैंने घोषणा की की दिलीप साहब तशरीफ़ ला रहे हैं। अचानक मैने रियलाइज़ किया कि बातों के दौरान दिलीप साहब को मैने ग़ुस्से में अपना परिचय शो का 'कुत्ता' कहकर दिया था,और वो मुझे 'कुत्ता सहाब' सम्बोधित करते रहे, तो शर्म से पानी पानी हो गया। रात 10 बजे के क़रीब दिलीप साहब की कार हॉल के पीछे जहाँ स्टेज का एन्ट्री-पॉइंट है,प्रविष्ट हुई।
कार देखते ही भगदड़ सी मच गई पत्रकार,फोटोग्राफर्स और दीगर लोग उनकी एक झलक पाने को टूट पड़े। ऑर्गेनाज़र्स दिलीप साहब को स्टेज के पीछे के हिस्से में लेकर आये। दिलीप साहब ने इधर-उधर नज़र डालते हुए पूछा: "कुते साहब कहाँ हैं?" वहाँ मौजूद सभी लोगों की निगाहें सवालिया नज़रों से चारों ओर घूमने लगीं।उनका सवाल मेरे कानों में भी पड़ा। उन्होने फिर कहा:"अजी वो साहब जिन्होने मुझसे फ़ोन पर बात की थी...शो के एंकर?" अब मुझे सामने आना ही था: "जी,मैं हूँ." उन्होने पूछा :"मेकअप-रुम कहाँ है?" इशारा पाकर उन्होंने मेरा हाथ पकडा और मुझे मेकअप रुम मे ले गये।
दरवाजा की चिटकनी लगाकर बोले, यहाँ पानी मिलेगा?
अंदर जाकर दरवाजा बन्द कर चिटकनी लगा दी। अब अंदर हम दोनों थे। मेरी ओर देखते हुए वो बोले: "तो कुत्ते साहब..?" मुझे लगा मेरी बातें इन्हें नागवार गुजरी हैं। पठान खून है, अब मेरी ठुकाई लाज़मी है। तभी उन्होने कोट की अन्दरूनी जेब से चांदी की एक 'निप' निकली और बोले: "कुत्ते साहब!यहाँ पानी मिलेगा?" मेक अप रुम में पानी की कोई व्यवस्था नहीं थी।
मैने कहा: "दो मिनट रुकिये मैं बिस्लरी की बॉटल ला देता हूँ..." अमाँ छोडिए.." कहते हुए उन्होंने वो 'निप' मुँह लगाई और गटगट करके कुछ पेय-पदार्थ पी गये। और मुँह पोंछते हुए बोले: "कुत्ते साहब! बताइये मुझे कया करना है?" मैने बताया, और पिछ्ली सदी के महानतम शो 'याद-ए-इक़बाल' की तामीर हुई। और मुझे मिला 'एंकर' का पर्यावाची अपने द्वारा ही नामांकित और दिलीप कुमार द्वारा अनुमोदित नाम:"कुत्ते साहब।"
ये थी उस महान शख्सियत, हर दिल की धड़कन दिलीप कुमार साहब से मेरी पहली मुलाक़ात जिसे रोते दिल, बहते आंसुओं के साथ आपके साथ शेयर कर रहा हूँ, इस 'दुआ' के साथ कि ईश्वर उनके शैदाइयों को, उनके चाहने वालों को और विशेषतया मैडम साय रबानो को इस महान दुख को वहन की क्षमता दे।