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समाज के स्याह सच को उजागर करता उपन्यास -फ़ासले-दर-फ़ासले 

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ज्योति स्पर्श, पटना:

समाज में घट रही घटनाओं की हक़ीक़त या यूँ कहें कि समाज में हो रहे उथल- पुथल को महसूस करना और उसे दर्ज करना साहित्य की ज़िम्मेदारी होती है और होनी भी चाहिए। साहित्य कोई मनोरंजन या सिर्फ़ टाइम पास के लिए तो है नहीं. साहित्य की अपनी जवाबदेही है। जाने- माने पत्रकार और उपन्यासकार- शायर नीलांशु रंजन का प्रलेक प्रकाशन से सद्य प्रकाशित उपन्यास " फ़ासले- दर- फ़ासले " भी इसी जवाबदेही को निभाता हुआ समाज के स्याह पक्ष को सामने रखता है। उपन्यास का शीर्षक ही ख़ुद इस तल्ख़ सच्चाई को बयां करता है कि समाज में दो क़ौम के बीच में फ़ासले बढ़ाये जा रहे हैं।उपन्यास में साम्प्रदायिक दंगे का भयावह दृश्य उभरता है जहाँ हिन्दू- मुस्लिम एक दूसरे का बेरहमी से क़त्ल करते हैं बजरंग बली और या अली का नारा देते हुए।लेकिन उपन्यासकार ने यह दिखलाने और समझाने की कोशिश की है कि हिन्दू हों या मुस्लिम दोनों ही राजनेताओं के हाथ के मोहरे हैं और राजनेता अपनी सियासी रोटी सेंकते हैं। उपन्यासकार ने भगवा कट्टरता को दिखाया है तो इस्लाम के मज़हबी कट्टरता को भी।

 

 

लेकिन सच्चाई यह है कि साम्प्रदायिक भावना को हवा देते हैं हमारे राजनेता जिनके पास कोई संवेदना नहीं।  इसके कुछ संवाद पर ग़ौर कीजिये तो अहसास होगा कि लेखक ने दोनों क़ौम को बराबरी से ज़िम्मेदार माना है। मसलन, " तो जुमे के दिन कुछ रुद्राक्षधारी- चंदनधारी- गेरुआ धारी नेता जी भी पहुँच गए और उन्होंने माइक पर चीख़ते हुए ऐलान किया कि अगर मुसलमानों को इस देश में रहना है तो राम भक्त, काली भक्त, दुर्गा भक्त बनकर रहना होगा। उन्होंने चीख़ते हुए कहा कि काली मूर्ति के विसर्जन का जुलूस इसी रास्ते से जाएगा और अगर इन कटुओं ने नमाज़ अदा करने को रास्ता बंद किया तो इन्हें और इनके पुरखों को क़ब्रों से निकल कर इनके आकाओं के पास पाकिस्तान भेज दिया जाएगा... ये राम की धरती है, जिन्ना का पाकिस्तान नहीं.. फिर क्या था... आनन- फानन में मस्जिद में बकराधारी मुल्ले जुट गए और तमाम मरकज़ के दाढ़ी बढ़ाए हुए मूंछ मुंडे मौलाना- इमाम हाथ में तस्बीह फेरते हुए इकट्ठा हुए और उन्होंने विस्फोटक धुआँधार मज़हबी तक़रीर की कि क़यामत की घड़ी आ ग ई है। अल्लाह ताला ने हज़रत मुहम्मद के ज़रिए हमें साफ़ साफ़ हुक्म दिया है कि इस्लाम और शरियत को महफ़ूज़ रखने के लिए क़त्ल भी करना पड़े तो एक पल भी हिचकना नहीं है और ये क़त्ल वक़्त का तक़ाज़ा है और ये क़तई गुनाह नहीं. अगर अल्लाह के बताए हुए इस फ़र्ज़ से मु़ंह चुराएंगे तो क़ज़ा होगी।"

लेकिन साथ ही, प्रेम कहानी की भीनी- भीनी ख़ुशबू भी हमें सराबोर कलती है।  पूरे उपन्यास में शेरो-शायरी है। उपन्यास की नायिका शायरा जो ठहरी। वह एक मुस्लिम से विवाह करती है और फिर शौहर के कट्टरपन से ऊबकर उससे अलग हो जाती है और नायक से टकराती है। मगर लेखक ने दूसरे किरदार अनवर के ज़रिए यह दिखाने की कोशिश की है हर शख़्स वैसा नहीं होता। और आख़िर में एक ज़बरदस्त संदेश भी देता है लेखक. उपन्यास पठनीय है और तारतम्य बना हुआ है बहरहाल, यह अमेज़न पर उपलब्ध है। 

 

(ज्योति स्पर्श युवा पत्रकार व कवयित्री हैं। कई पत्र-पत्रिकाओं में कविता, लघुकथा, समीक्षा प्रकाशित। साहित्यिक स्पंदन पत्रिका के वार्षिकांक का संपादन। आकाशवाणी, दूरदर्शन पटना एवं अन्य चैनल पर कार्यक्रम। संप्रति स्वतंत्र लेखन )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।