logo

स्मृति शेष: ऐसे समय राहत का न होना

11751news.jpg

शहरोज़ क़मर, रांची:
“ 'आँखों में पानी रखो, होटों पे चिनगारी रखो' राहत इन्दौरी इस अँधेरे दौर में  बेहद ज़रूरी शायर थे।  जिनकी आवाज़ में एक साथ हिंदुस्‍तान की मिट्टी से मुहब्बत और ज़ालिम हुक्मरानों से नफ़रत सुनाई देती थी। उनके अलविदा कहने का वक़्त नहीं था। उनका न होना उदास और अकेला कर देने वाला है!” ऐसा कहने वाले हिंदी के दमदार कवि मंगलेश डबराल हमारे बीच नहीं हैं, वहीं आज ही की तारीख़ एक साल पहले कोविड राहत को भी ले उड़ा था। अपने शहर इंदौर में वक़्त की तमाम पेचीदगियों से राहत ली और अब्दी नींद सो गए थे। दिलनवाज़ शख़्सियत को दिल ही ले डूबा था।

शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
आँधी से कोई कह दे कि औक़ात में रहे।
-
उसकी याद आई है साँसों ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है।
-
उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर-मंतर सब
चाक़ू-वाक़ू, छुरियां-वुरियां, ख़ंजर-वंजर सब।
--
सरहद पर तनाव है क्या?
ज़रा पता तो करो चुनाव है क्या?

ऐसे कई रंग हैं, जिनसे अरबों चेहरे कभी सुर्ख़ तो कभी गुलाल होते हैं। मोहब्बत दुलारती है, तो अना (स्वाभिमान) हर ग़लत को दुत्कारती है। Rahat Indori साहब के बिना दुनिया में कोई भी मुशायरा अधूरा माना जाता रहा। ऐसा शायर जिसने फिल्मों के लिए गीत भी लिखे, पर अदब के स्वाभिमान को कभी गिरवी नहीं होने दिया। लेकिन यह बात बहुत कम ही लोग जानते हैं कि समय, हालात और संवेदना की लफ़्ज़ों से सच्ची अक्कासी (चित्रण) करने वाले इस शायर का कभी रंगों से भी याराना था। मक़बूल फ़िदा हुसैन की तरह राहत भी संकट के दिनों में सिनेमा की होर्डिंग्स पर हीरो-हीरोइन की फोटो बनाया करते थे। वहीं फ़िदा जब माधुरी दीक्षित पर फ़िदा होकर फ़िल्म मीनाक्षी बनाते हैं, तो उसके गाने भी राहत लिखते हैं। आप जब भी राहत से मिलते तो ऐसी राहत मिलती कि आप भूल जाते कि आप ऐसे शायर से मिल रहे हैं, जिसके साथ सेल्फी लेने की होड़ रहती है। भूल जाते कि यह कभी प्रोफेसर हुआ करते थे और  इंदौर के किसी कॉलेज में उर्दू पढ़ाते थे। सितंबर 2017 की बात है। एक शाम जब उनसे रांची के एक होटल में मुलाक़ात हुई तो ऐसे कई पन्ने फ़िज़ा में तैर रहे थे। राहत के लब जब खुलते तो शमा अदब रौशन हो जाया करती रही। तंज़, नफ़ासत, चुस्की, जोश, जज़्बे, ईमान और आक्रोश भी बेहद शाइस्तगी (सदाशयता) के साथ रूबरू होते। मुक़ामी (स्थानीय) एक शायर ने जब कहा कि यहाँ अब तक उर्दू अकादमी तक नहीँ खुल सकी। राहत साहब बोले, खुलनी भी नहीं चाहिए। इससे उर्दू का कुछ भी भला नहीं होने वाला। कोई भी ज़बान किसी अकादमी नहीं बल्कि अवाम के बूते ज़िंदा रहती है। आपके सूबे में भी अगर उर्दू की बू-बास बची हुई है, तो आप लोगों की वजहकर ही। मैं अकादमियों से दूर रहता हूं। उसका इस्तेमाल अब सियासत करती है। तारीख़ी लाल किला मुशायरे में अब एमएलए और मिनिस्टर की सिफ़ारिशों पर लोग मुशायरा पढ़ने पहुंच जाते हैं। राहत साहब से मिलने के बाद लगा कि न महज़ इनकी शायरी बहुत दिलकश है और पानीदार है, बल्कि अंदाज़-ए-गुफ्तगू भी। उनके अंदर की शख़्सियत जब महफ़िल में नमूदार होती, तो एक तिलिस्म-सा छा जाता।

समकाल के महत्व पूर्ण कवि पंकज चतुर्वेदी लिखते हैं, राहत इंदौरी अपने उम्दा अल्फ़ाज़ की बदौलत हमेशा याद आयेंगे। किसी कवि की सबसे मार्मिक और प्रभावशाली रचनाएँ वे होती हैं; जिनमें उसके हृदय और समय के सच का इज़हार होता है, जो दरअसल एक ही बात है। राहत इंदौरी साहब की एक ग़ज़ल को--जो मेरे दिल के क़रीब है--जगजीत सिंह की नाज़ुक आवाज़ के स्पर्श ने बहुत संजीदा और मर्मस्पर्शी बना दिया है। उसकी कुछ पंक्तियों में हमारे वक़्त की ट्रेजेडी का शायद सबसे मुकम्मल एहसास है :

"दोस्ती जब किसी से की जाए 
दुश्मनों की भी राय ली जाए 

मौत का ज़हर है फ़ज़ाओं में 
अब कहाँ जा के साँस ली जाए 

बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ 
ये नदी कैसे पार की जाए"