कविता, दिल्ली:
कुछ लोग एक अजीब सी बेचैनी में जीते हैं। वे जिंदगी भर जैसे किसी तलाश में चल रहे होते हैं। कोई भी चीज उन्हें लगातार चैन नहीं देती। यह बेचैनी और संवेदनशीलता उनके माध्यम से लगातार कुछ न कुछ अद्भुत और अद्वितीय रचती रहती है। कई बार यह बेचैनी उनके साथ ही जाती है और कई बार उन्हें अपने साथ लेकर ही। गुरु दत्त के साथ जो हुआ वह दूसरी तरह के हादसे की श्रेणी में आता है। एक ऐसा हादसा जिसने 39 साल की उम्र में ही उनकी जान ले ली। जिसके बारे में आज तक ठीक से कहना मुश्किल है कि वह सचमुच आत्महत्या ही था या कुछ और। गुरु दत्त की मौत शराब और नींद की गोलियों के अत्यधिक सेवन के कारण हुई थी। कहा नहीं जा सकता कि यह मात्रा जानबूझकर ली गई थी या इसके पीछे लापरवाही थी। हालांकि इससे पहले भी वे दो बार आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे। नींद न आने की बीमारी गुरु दत्त को काफी समय से थी। उनके करीबी दोस्त रहे विमल मित्र अपनी किताब ‘बिछड़े सभी बारी बारी’ में भी इस बात का जिक्र बार-बार करते हैं-बार-बार रात में उठकर उनसे बात करने आने की बात, काफी मशक्कत के बाद आधी रात को उनके लिए नींद की गोली लाने की बात और ठीक मात्रा में ही उन्हें दवा देने की बात भी। इस सन्दर्भ में गुरु दत्त के बेटे तरुण दत्त का एक लेख भी है। अपने जमाने की चर्चित पत्रिका धर्मयुग में छपे इस लेख में उन्होंने लापरवाही और आत्महत्या से बढ़कर इसे हत्या की साजिश कहा था। उनके कहने का पुख्ता अंदाज विश्वास दिलाने वाला था कि गुरु दत्त हार मानने या टूटकर बिखर जाने वाले लोगों में से तो बिलकुल नहीं थे। फिर क्या हुआ था आखिर?
बिना मोहब्बत गुरु की कहानी अधूरी
खैर, यह मौत थी या आत्महत्या या फिर हत्या, इस सवाल को छोड़ भी दें तो भी कह सकते हैं कि यह मौत लगभग वैसे ही थी जैसा अंत गुरु दत्त ‘कागज़ के फूल’ में अपने नायक के लिए रचते हैं। कागज के फूल को गुरु दत्त की जिन्दगी की अपनी कहानी कहकर ही प्रचारित किया गया। खुद गुरु दत्त ने ही इसकी कहानी लिखी थी और इसे इस तरह ही देखा-समझा जाए उनकी यह चाहत भी थी। हालांकि यह फिल्म फ्लॉप रही थी। बाद में भले ही इसे क्लासिक के तौर पर देखा गया लेकिन, उस समय के दर्शकों ने इस आत्महंता कहानी को सिरे से खारिज कर दिया था। सिर्फ यही नहीं और भी दो क्लासिक्स गुरु दत्त की झोली में हैं- प्यासा और साहिब बीबी और गुलाम। गुरु दत्त की जिंदगी पर जब भी बात की जाए, अकेले की जानी असंभव है। एक प्रेम त्रिकोण सा इसमें आना ही आना है. इस त्रिकोण के तीन सिरे गुरु दत्त, गीता दत्त और वहीदा रहमान हैं।अभिनेत्री वहीदा रहमान लंबे अरसे तक गुरु दत्त खेमे की एक जरूरी कड़ी रहीं। कहा जाता है कि वे गुरु दत्त के लिए प्रेरणा और जीवन-स्त्रोत भी थीं। उन्हीं वहीदा रहमान ने एक इंटरव्यू में इस बात से साफ़ इंकार किया था कि गुरु दत्त की मौत का कारण कागज के फूल की असफलता थी बल्कि उन्होंने इसका दोष उनकी आत्महंता प्रवृति को दिया था। उनका कहना था, ‘गुरु दत्त को कोई नहीं बचा सकता था, ऊपरवाले ने उन्हें सबकुछ दिया था पर संतुष्टि नहीं दी थी। कुछ लोग कभी भी संतुष्ट नहीं रह सकते, जो चीज उन्हें जिंदगी नहीं दे पाती उसकी तलाश उन्हें मौत से होती है। उनमें बचने की चाह नहीं थी। मैंने कई बार उन्हें समझाने की कोशिश की कि एक जिन्दगी में सबकुछ नहीं मिल सकता और मौत हर सवाल का जवाब नहीं है।‘
वहीदा रहमान के अलग होने के साल भर बाद ही दुनिया से हुए विदा
इस बात में जाहिर है एक अनाम दर्द और अपने को निर्दोष साबित करने का प्रयास था। दरअसल अधिकतर लोग जैसे गीता दत्त के घर वापस न लौटने को गुरुदत्त की मौत की वजह बताते रहे वैसे ही वहीदा रहमान के गुरु दत्त से बिलकुल कट जाने और केवल गुरु दत्त की फिल्मों में ही काम करने के सात साल के कांट्रेक्ट को ‘रीन्यू’ न होने देने की उनकी जिद को भी। हालांकि यह कोई गैरवाजिब जिद न थी। अभिनेत्री वहीदा को भी अपने हिस्से का खुला आकाश चाहिए था। जहां वे आराम से अपने अभिनय के पर फैला सकें. कुछ हद तक यह खीझ साहिब बीवी और गुलाम के छोटी बहू के रोल से भी उपजी थी जिसे मीना कुमारी को दे दिया गया था, वहीदा के गुरु दत्त कैंप से लगातार जुड़े रहने के बावजूद। वहीदा रहमान के अलग होने के ठीक साल भर के भीतर ही गुरुदत्त दुनिया से विदा हुए थे. इस अभिनेत्री के साफ़-सुथरे चमकदार व्यक्तित्व और फ़िल्मी जीवन पर इस मौत का दोष एक धब्बे की तरह लगा रहा है। हालांकि अपने शालीन और मर्यादित व्यवहार के लिए जानी जाने वालीं वहीदा रहमान भविष्य में जब भी इस सवाल से घिरीं, इसे अपना व्यक्तिगत जीवन कहकर टाल जाती रहीं। उनके ही एक अजीज के अनुसार उन्होंने इसलिए अपने कदम पीछे खींच लिए थे कि उन्हें अहसास हो चुका था कि गुरु दत्त की जिन्दगी में गीता दत्त की जगह कोई नहीं ले सकता। उन्हें शायद लगा होगा कि वे पीछे लौट जाएंगी और सब सुधर जाएगा. हालांकि वहीदा चाहतीं तो आराम से गुरु दत्त के साथ शादी कर सकती थीं. गीता दत्त घर छोड़कर जा ही चुकी थीं। लोग कुछ दिनों में सब कुछ भूल ही जाते और फिर कहानी भी दूसरी ही हुई होती। पर यह हो न सका इसलिए भी कि ये तीनों कोई और नहीं गुरु दत्त, गीता दत्त और वहीदा रहमान थे।
न सुनना मंजूर ही न था, बच्चे जैसे जिद्दी रहे गुरु दत्त
एक अनाम सा डर वहीदा रहमान के दिल में गुरु दत्त के स्वभाव की अस्थिरता को भी लेकर रहा हो शायद। गुरु दत्त अपने निजी जीवन में और बतौर कलाकार भी उस जिद्दी बच्चे जैसे थे जिसे कुछ चाहिए होता है तो बस चाहिए होता है। ना नुकुर, किन्तु-परंतु की वहां कोई गुंजाइश होती ही नहीं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण वह बंदिश है जो गीता दत्त से लेकर वहीदा तक समान रूप से लागू थी। उन्हें और कहीं फिल्म करने की आजादी नहीं थी। गुरु दत्त के अकेले पड़ जाने का सबसे बड़ा एक कारण यह भी था कि वे अति की सीमा तक ‘पजेसिव’ थे। अपनी बनाई कैद में लोगों को बांधकर रखते हुए वे यह भी भूल जाते थे कि सामने वाला भी उनकी ही तरह एक इंसान और कलाकार है। जब वे किसी खांचे या कहें तो एक ही तरह के काम से बंधकर नहीं जी सकते थे तो उस व्यक्ति की छटपटाहट की सीमा क्या रहती होगी? नर्तक, लेखक और कोरियोग्राफर से लेकर निर्देशक, लेखक और अभिनेता तक उनकी विविधरंगी यात्रा क्या किसी ऐसी ही कैद में वह स्वरूप ग्रहण कर पाती? लेकिन न सुनना तो गुरु दत्त को मंजूर ही नहीं था. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है प्यासा के लिए दिलीप कुमार की ना के बाद गुरु दत्त का खुद उस भूमिका में उतरना।
आत्ममोह और आत्मकेंद्रीयता की प्रवृत्ति
आत्ममोह और आत्मकेंद्रीयता की इस प्रवृत्ति का कुछ लेना-देना उनके बचपन से भी था. मां अपने सब बच्चों में सबसे अधिक लगाव उन्हीं से करती रहीं। वे गुरु दत्त की प्रतिभा और जिद को जानती थीं। शायद इसलिए उनके हर निर्णय को बिना सवाल बचपन से ससम्मान तवज्जो देती थीं। पर इस माने जाने ने भी गुरु दत्त का बहुत नुकसान किया। यह उस मां के लगाव की पराकाष्ठा ही थी कि उनके नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोने में उनका अनिष्ट छिपा है, यह जानते ही उन्होंने उनका नाम गुरु दत्त कर डाला था। पर वे नहीं जानती थीं कि अनिष्ट नामों में नहीं होता और नाम बदलने भर से चला भी नहीं जाता। सदाबहार अभिनेता और गुरु दत्त के अभिन्न मित्र देव आनंद ने बिलकुल ठीक ही कहा था- वे भावुक इंसान थे बहुत, उनकी वजह से हमें इतनी आला दर्जे की फिल्मों की सौगात मिली, मगर उनकी मौत का कारण भी वह भावुकता ही बनी ।
गुरु दत्त अपने आपमें एक संपूर्ण कलाकार बनने की पूरी पात्रता रखते थे। उनकी साहित्यिक रुचि और संगीत की समझ की झलक भी हमें उनकी सभी फिल्मों में दिखती है। वे विश्वस्तरीय फ़िल्म निर्माता और निर्देशक थे। उनकी जिद का ही परिणाम था कि फिल्म इंडस्ट्री को कई बेहतरीन फिल्में, पटकथाएं, एक बेहतरीन टीम और वहीदा रहमान जैसी एक सशक्त और शाश्वत अदाकारा मिली। वहीदा और देव आनंद की वह बेमिसाल जोड़ी भी, जो बरसों तक सिनेमाप्रेमियों के दिलों पर राज करती रही। कुछ लोग गीता दत्त का नाम भी इस फेहरिस्त में जोड़ते हैं लेकिन, गीता दत्त गुरु दत्त से मिलने से पहले से ही बाजी फिल्म के गीत ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना लें’ से चमकता हुआ सितारा हो चुकी थीं।
गुमनामी, चुप्पी और दर्द के वो नौ साल
हां, गुरु दत्त से पहले प्रेम और फिर शादी करके उन्होंने अपने पर भरोसा रखते हुए इक दांव ही खेला था, जिसमें अंततः वे असफल रहीं. पर तमाम बंदिशों और रुसवाइयों के बावजूद वे गुरु के बैनर की फिल्मों के लिए न सिर्फ गाती रहीं, बल्कि यह गाना उनके लिए हमेशा गले से ज्यादा दिल से गाना रहा। यह गुरु दत्त के लिए उनके प्यार की इंतहा के सिवा और क्या हो सकता था? यह अलग बात है कि वहीदा रहमान के उनकी जिंदगी से निकल जाने के बाद वे गुरु दत्त के घर वापस लौट आने की पुकार को अनसुना करती रही थीं। क्योंकि वे जानती थी, सुबह फिर गुरु दत्त होंगे, उनके दोस्त और करीबी होंगे, उनकी फ़िल्में होंगी और उनके हिस्से वे अंतहीन चुप्पियां और अकेलापन ही होगा। गीता बस उनसे सुबह फोन करने की बात कहती थीं। वे जानती थीं उनका फोन नहीं आयेगा। गुरु दत्त के जाने के बाद उनकी टीम तो रही पर उसमें वह बात न रही। अबरार अलवी पटकथा और डायलॉग लेखक के रूप में काम करते रहने के बावजूद वह नहीं रह पाए जो गुरु दत्त के रहते होते. गीता दत्त गुरु दत्त के जाने के बाद से ही नर्वस ब्रेक डाउन से गुजरीं तो फिर कभी उबरी ही नहीं। इसके बाद के नौ साल उनके लिए गुमनामी, चुप्पी और दर्द के साल थे जो किसी कलाकार के जीते जी मौत जैसे ही होते हैं।
(कविता हिंदी की चर्चित राइटर हैं। कई किताबें प्रकाशित। सम्मान भी कई। प्रमुख हैं, मेरी नाप के कपड़े, उलटबाँसी, नदी जो अब भी बहती है (कहानी संग्रह), मेरा पता कोई और है (उपन्यास) के अलावा राजेन्द्र यादव के लेखों के संकलन, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मोहन राकेश के पत्रों के साथ राजेन्द्र यादव के साक्षात्कारों के संकलन, उनकी सम्पादित किताबें हैं। सम्प्रति स्वतंत्र लेखन।)
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