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जब मौत आई तो उनके पास से मिले महज़ दो जोड़ी कुरता, टायर की बनी चप्पल और एक झोला

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पुष्‍यमित्र, पटना:

एके राय (15 जून 1935-21 जुलाई 2019) के बारे में आप क्या जानते हैं? यही न कि एक जमाने में वे धनबाद के एमपी थे। तीन बार एमपी और तीन बार एमएलए रहे। बड़े ईमानदार थे। इतने कि मरे तो दो जोड़ी कुरता, टायर की बनी चप्पल और एक झोला छोड़कर गये। इन तीन लाइनों में एके राय की कहानी खत्म हो जाती है। जो नहीं जानते, वो तो खैर नहीं ही जानते। जो जानते हैं, उनकी भी एके राय के बारे में लोगों को अधिक बताने में दिलचस्पी नहीं। उनकी भी नहीं जो झारखंड आंदोलन के इतिहास के इनसाइक्लोपीडिया हैं। वे इन तीन लाइनों को हद से हद एक पन्ने तक ले जाते हैं। पर क्यों? क्योंकि अगर आप एके राय के बारे में विस्तार से जान जायेंगे तो उन तमाम लोगों की छवि धराशायी हो जायेगी, जिन्हें आजतक आप झारखंड आंदोलन का अगुआ मानते हैं। जिनकी छवि इतनी मेहनत से गढ़कर बनायी गयी है। जिनके पास सत्ता आती जाती रहती है। एके राय का क्या है। वे तो पिछली सदी में ही मिसफिट होने लगे थे। उनके पास दूसरों को देने के लिए बचा ही क्या था। सिवाय सिद्धांतों के। 

 

 

मगर जब आप इस किताब को पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि एके राय झारखंड आंदोलन के ऐसे किरदार थे, जिन्होंने शिबू सोरेन, बिनोद बिहारी महतो और निर्मल महतो जैसे बड़े नेताओं को न सिर्फ खड़ा किया बल्कि उनकी पोलिटिकल शेपिंग की। उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन को एक ऐसा ढांचा दिया जिससे झारखंड आंदोलन मजबूत और प्रभावी हुआ। वे अगर झारखंड आंदोलन के गांधी नहीं थे तो उनकी भूमिका किसी सूरत में लोहिया जैसे नेता से कम नहीं थी। जिस तरह लोहिया ने यूपी-बिहार में पिछड़ों की राजनीति को पावरफुल बनाया, उसी तरह एके राय ने झारखंड आंदोलन में आदिवासी और सदान गठजोड़ को आकार दिया। 

 

इतना ही नहीं, उन्होंने छत्तीसगढ़ आंदोलन के एक अगुआ नेता शंकर गुहा नियोगी को भी वैचारिक क्षमताओं से लैस किया। खुद हाशिये पर रहे मगर ताउम्र वैचारिक सिद्धांतों पर पगे नेताओं को खड़ा किया और उन्हें जनवादी आंदोलनों से जोड़ा। इन सबके साथ-साथ वे धनबाद जैसे इलाके में कोयला खान मजदूरों के पक्ष में फैक्टरियां, कंपनियां, सरकार और माफियों से लड़ते रहे। उन्हें बस में रखा। जिस धनबाद की पहचान हमें काला पत्थर और गैंग्स ऑफ वासेपुर जैसी हिंसक, आपराधिक, अवैध धन के ताकत को दिखाने वाली फिल्मों से मिली है। उस धनबाद में एके राय सिद्धांत, इमानदारी, निर्भयता और वोट की ताकत के आधार पर बीसवीं सदी के आखिरी दशक में एक महामानव की भूमिका निभाते रहे। 

आज झारखंड पर उसी झारखंड मुक्ति मोर्चा का शासन है, जिसकी स्थापना में एके राय की सबसे बड़ी भूमिका थी। यह मुक्ति नाम भी उन्होंने ही दिया था, क्योंकि वे बांग्लादेश मुक्ति के आंदोलन से बड़े प्रभावित थे। मगर उसी झारखंड में आपको एक गली तक एके राय के नाम की नहीं दिखेगी। कहते हैं धनबाद के एक अस्पताल का नाम एके राय के नाम पर रखने की सिफारिश हुई थी, मगर हेमंत सोरेन टाल गये। जबकि शिबू सोरेन को राजनीतिक नेता के रूप में स्थापित करने में एके राय की बड़ी भूमिका मानी जाती है। उन्हें दिशोम गुरू के रूप में स्थापित करने में भी एके राय की भूमिका थी।

दिलचस्प है कि तमाम वैचारिक स्खलनों और भ्रष्टाचार के सिद्ध आरोपों के बावजूद झारखंड में शिबू सोरेन को पूज्य बनाने की कोशिश होती रहती है। क्योंकि वे अस्मितावादी मानकों पर फिट बैठते हैं। मगर एक इमानदार, साहसी और निर्लोभी छवि के बावजूद एके राय को हमेशा खारिज करने की कोशिश की जाती है। उनके योगदानों पर सवाल उठते हैं। उन्हें कमतर बताने की कोशिश होती है। मगर फिर भी वह हिमालयी व्यक्ति छोटा नहीं हो पाता।

खैर। इन हालात में सचिन झा शेखर और उनके भाई केआरजे कुंदन ने मिलकर यह बड़ा काम किया है कि उन्होंने एके राय के योगदानों पर एक किताब लिखी है। अब कम से कम वे तमाम तथ्य तो पब्लिक डोमेन में हैं जो एके राय की महती भूमिका को उजागर करते हैं। यह बड़ा काम हुआ है। उन्होंने एके राय के जीवन और खासकर झारखंड आंदोलन और धनबाद के मजदूरों के पक्ष में उनके द्वारा किये गये प्रयासों की जानकारी एक जगह इकट्ठा कर दी है। इस किताब को पढ़ने बैठा तो दो घंटे में खत्म करके उठा। आप इसे पढ़े हुए बार-बार चमत्कृत होंगे। इस अद्भुत राजनेता के बारे में पढ़कर हैरान रह जायेंगे। मुझे तो इस किताब को पढ़कर विस्साव शिंबोर्स्का की वह पंक्ति याद आ गयी: 

हमने सोचा था कि
आखिरकार खुदा को भी
एक अच्छे और ताकतवर इंसान में
भरोसा करना होगा
लेकिन अफसोस
इस साल में
इंसान अच्छा और ताकतवर
एक साथ नहीं हो सका!

( शिंबोर्स्का को जिस ईमानदार और ताकतवर इंसान की तलाश थी, वह अरुण कुमार राय (एके राय) थे।) 

(लेखक  एक घुमन्तू पत्रकार और लेखक हैं। उनकी दो किताबें रेडियो कोसी और रुकतापुर बहुत मशहूर हुई है। कई मीडिया संस्‍थानों में सेवाएं देने के बाद संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।कई