हैदर रिज़वी, मुंबई:
3 मुहर्रम यानी अगले ही दिन यज़ीद की पहली दस हज़ार( अलग-अलग इतिहासकारों ने सेना की अलग-अलग संख्या लिखी है। संख्या 2000 से 200000 तक जाती है। किन्तु इस घटना के समय दस हज़ार की संख्या ही अधिकतर जगहों पर लिखी मिलती है) सैनिकों की सेना वहाँ पहुंची। सेना खेमों के पास आई और पहरा दे रहे अब्बास को बुलाकर आदेश दिया कि यह हुसैन के ख़ेमे नहर के पास से हटाये जाएँ, यज़ीद का आदेश है। अब्बास ने कहा इस रेगिस्तान में और कहाँ ख़ेमे लगाये जायेंगे। हमारे काफ़िले में औरते और बच्चे हैं पानी से ज्यादा दूर रहना उनके लिए इस रेगिस्तान में बहुत दुष्कर होगा। किन्तु यज़ीदी सेना न मानी और सेना के सरदार ने हुक्म दिया की यदि अब्बास ख़ेमे न हटाये तो हमला करके हटवा दो। अब यहाँ से शुरू होती हैं करबला के ऐतिहासिक युद्ध की घटनाएँ, इतिहास का पहला युद्ध जिसमें दो सेनाएं नहीं लड़ रही थीं बल्कि ऐसा युद्ध जो एक बड़ी सेना और एक परिवार के बीच लड़ा गया। नहर के पास से ख़ेमे हटा लेने की सुन अब्बास को जोश आगया और उन्होंने तलवार खींच ली किन्तु हुसैन ने अब्बास को युद्ध से दुबारा रोक दिया और ३ मुहर्रम को ही ख़ेमे नहर के पास से हटा लिए गए. लेकिन इस छोटी सी घटना ने संख्या बल पर उछल रही यजीदी सेना को डरा दिया।
दरअसल अब्बास को युद्ध में हज़रत अली के समतुल्य माना जाता था। कहते हैं अली ने एक बार जवानी में खुदा से यह दुआ की थी कि जैसे मैंने अपनी तलवार से मुहम्मद साहब की हमेशा सुरक्षा करी, ऐ खुदा मुझे भी एक मेरे जैसा ही बेटा दे जो वक़्त पड़ने पर मेरे हुसैन की ऐसे ही हिफाज़त कर सके...... तो अली ने अब्बास की परवरिश भी इसी लिहाज़ से की थी....जैसे ही यजीदी सेना ने ख़ेमे हटाने की बात की अब्बास आगे बढे और सामने खडी यज़ीदी सेना की पहली पंक्ति के सामने तलवार से एक लकीर खींच दी. और सेना को ललकारा के हुसैन के ख़ेमे हटवाना तो बहुत दूर की बात है, अगर किसी में हिम्मत है तो इस लकीर को भी पार करके दिखाए..... यजीद के इतिहासकार हमीद इब्ने मुस्लिम ने लिखा है के जब अब्बास ने ललकार लगाई तो लोगों को अली का ज़माना याद आगया और उनका सारा युद्ध उन्माद काफ़ूर हो गया. सारी की सारी सेना आगे बढ़ना तो दूर दो क़दम पीछे हट गयी.... किन्तु उसी समय इमाम हुसैन द्वारा रोक लिए जाने के कारण यहाँ पर कोई युद्ध नहीं हुआ. किसी शायर ने इस वाकये को कुछ यूं लिखा है:
अल्लाह रे अब्बास की हैबत लबे दरिया
उस वक़्त जो हैदर की दुआ नाज़ करेगी
दो लाख के लश्कर में सुकूं ऐसा था तारी
के एक सुई भी गिर जाए तो आवाज़ करेगी।
इसके बाद से दोनों ही और से युद्ध की कोई पहल नहीं हुई। यजीदी की फौजी टुकडियां आ आकर जमा होती रहीं और यज़ीदी सेना की संख्या ६०००० से २ लाख ( अलग अलग इतिहासकारों के अलग अलग मत हैं) तक करबला में इकठ्ठा हो गयी। कुछ वो साथी जो बाद में आकर इमाम हुसैन की सेना में मिले। जब इमाम हुसैन का काफिला कर्बला पहुँचने वाला था तो उसके आगे एक और काफिला काफी दूरी पर चल रहा था. किसी ने आकर बताया के आगे वाला काफिला अरब के मशहूर व्यापारी ज़ुहैर इब्ने कैन का है.... यह सुनते ही हुसैन ने अपना काफिला धीरे चलाना शुरू कर दिया... असल में ज़ुहैर हुसैन की बहुत इज्ज़त करते थे और हुसैन नहीं चाहते थे के उन दोनों की मुलाक़ात हो और मुरव्वत में ज़ुहैर को इमाम हुसैन की मदद करनी पड़े। इधर दूसरी तरफ ज़ुहैर को भी पता चल चूका था के पीछे किसका काफिला आरहा है... लेकिन मजबूरी ये थी के बीवी साथ थी जिसे वो बहुत मुहब्बत करते थे और बीच रास्ते में बीवी को छोड़ हुसैन के साथ शामिल होने का मतलब था मौत।
हालांकि बीवी ने ज़ुहैर को कई बार मजबूर किया के वह क्यों हुसैन का साथ नहीं दे रहे। इस पर ज़ुहैर हमेशा खामोश रह जाते। अचानक एक दिन मुहब्बत ने जोश मारा और ज़ुहैर ने अपनी बीवी को एक कागज़ पकड़ाया तथा समझाया। यह तलाक़नामा है, मैं हुसैन की मदद को जा रहा हूँ और लाजिम है कि अब ज़िंदा वापस न आऊँ। अगर यजीदी सेना मेरे बाद तुम्हे परेशान करे तो यह तलाक़नामा दिखा देना कि तुमने मुझे तलाक़ दे दिया था। क्योंकि मैं हुसैन के साथ गया। इससे वह सेना तुम्हे नहीं परेशान करेगी। इतिहास में दर्ज है के दस मुहर्रम के युद्ध में उस बूढ़े व्यापारी ने ऐसा युद्ध किया कि एक बार यजीदी सेना को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ। किन्तु इसी बीच एक सिपाही ने धोखे से एक भाला फ़ेंक मारा और यह बहादुर ज़मीन पर गिर गया। फिर क्या था, पूरी की पूरी सेना एक आदमी पर टूट पड़ी और चंद पलों बाद ही दूर हवा में एक भाले की नोक पर ज़ुहैर इब्ने कैन का कटा सर घुमाया जारहा था।
ज़ुहैर की बीबी बानो युद्ध के बाद भी वहां से नहीं गयी, और सारी ज़िन्दगी उसी रेगिस्तान में रहकर हुसैन और उनके परिवार का मातम करते हुए काट दी। कुछ वो साथी जो बाद में आकर इमाम हुसैन की सेना में मिले। जॉन एक नौजवान जो ईसाई था और मुहम्मद साहब को बहुत पवित्र शख्सियत मानता था ... वह शादी करके अपनी माँ के साथ अपनी बीवी को विदा करके ले जारहा था। उसको जैसे ही पता चला के मुहम्मद साहब के नवासे को घेर लिया गया है फ़ौरन ही हुसैन की सेना में शामिल हो गया। जॉन की ख़ास बात यह थी कि बहुत ही अच्छा घुड़सवार और घोड़ों के करतब का माहिर भी था। आशूर के दिन जब जंग शुरू हुई। उसने काफी देर तक यजीदी सेना को छकाया, लेकिन जल्द ही दूर खड़ी देखती माँ और नई नवेली दुल्हन के सामने उसका सर बदन से जुदा कर दिया गया। इसी तरह इमाम हुसैन के बचपन के दोस्त हबीब इब्ने मज़ाहिर भी खबर पाते ही कर्बला पहुंचे। हबीब जिस वक़्त पहुंचे हुसैन के खेमों में पानी ख़त्म हो चूका था, बच्चे प्यासे तड़प रहे थे। हबीब बाहर ही थे के किसी ने कहा हबीब आपको हुसैन की बहन जैनब ने सलाम कहलवाया है और मदद को आने का शुक्रिया कहा है। बताते हैं के हबीब वहीँ अपनी पगड़ी ज़मीन पर रख कर रोने लगे के अब यह वक़्त आगया है के अली की बेटी हम गुलामों को सलाम भिजवाये।
हबीब के साथ उनका जवान बेटा भी जब शहीद हुआ तो हुसैन ने हबीब को जाने से रोक दिया और खुद उसकी मय्यत को उठा कर लाये। उसके बाद हबीब भी उसी दिन जंग में वीरगति को प्राप्त हुए। 3 मुहर्रम सन 61 हिजरी को हुसैन के ख़ेमों(तम्बुओं) को नहर के पास से हटाने के बाद यजीदी सेना ने नहर पर क़ब्ज़ा कर लिया और हुसैनी सेना को वहां से पानी भरने के लिए पाबंदी लगा दी. मर्दों ने पानी पीना कम कर दिया ताकि औरतों और बच्चों के लिए अधिक दिन तक पानी संचित करके रखा जा सके . किन्तु 7 मुहर्रम को हुसैनी काफिले के पास एक बूँद पानी न रहा. दुधमुहे बच्चे तक प्यास से तड़प रहे थ।. इतिहासकारों ने उस समय कर्बला के रेगिस्तान की जो गर्मी बतायी है वहां किसी व्यक्ति का एक दिन भी पानी के बिना जीवित रहना नामुमकिन था।
अली अकबर के बाद हुसैन के बड़े भाई हसन का बेटा कासिम वीरगति को प्राप्त हुआ! कासिम की उम्र 16 वर्ष थी। कासिम की मौत के बाद यजीदी सेना ने गुस्से में कासिम की लाश पर घोड़े दौडाए। जब हुसैन कासिम की लाश उठाने गए तो उन्हें लाश के बजाय कासिम के शरीर के कुचले हुए टुकड़े अपनी अबा(अंगरखा) में समेट कर लाने पड़े. धीरे धीरे सूरज अपना मुंह शर्म से छुपाता जारहा था और हुसैन के परिवार के मर्द ख़त्म होते जा रहे थे।
क्रमश:
पहला भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: मुहर्रम: आख़िर क्या थी कर्बला की कहानी, जिसे भुलाना सदियों बाद भी मुश्किल
दूसरा भाग पढ़ने के लिए क्लिक करें: कर्बल कथा-2: माविया की मृत्यु के बाद बेटा यज़ीद खुद खलीफा बन बैठा
(लेखक का लालन-पालन उत्तर प्रदेश के ओबरा में हुआ। कर्बल कथा टाइटल से एक किताब प्रकाशित। संप्रति मुंबई में रहकर टीवी और फिल्मों के लिए लेखन)
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