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विवेक का स्‍वामी-12: मेहनतकश शूद्रों के आधार पर ही खड़ा हुआ इंडो-आर्य समाज का ढांचा

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कनक तिवारी, रायपुर:

विवेकानन्द के वक्त हिन्दू समाज में भी कई दोष दाखिल हो ही चुके थे। उनकी अनदेखी विवेकानन्द नहीं कर सकते थे। बाल विवाह, जाति प्रथा, वर्ग विभेद और सामाजिक अलगाव जैसी जड़ताओं से उन्हें बेसाख्ता नफरत थी। वे ऐसे जहरीले माहौल को ही जड़ से उखाड़ फेंक देना चाहते थे। उन्होंने देश में बदलाव के लिए एक सांस्कृतिक कार्य योेजना की पेशकश की थी। उन्होंने यहां तक कहा कि इंडो-आर्य समाज का ढांचा मेहनतकश शूद्रों के आधार पर ही खड़ा हुआ है। यह दुर्भाग्य है कि धार्मिक और आध्यात्मिक उपदेशों का प्रवचन करने वाले तत्वों ने ही शोषण कर उन्हें समाज की निचली पायदान पर खड़ा कर दिया है। उनमें गुलामी की भावना भी भर दी है। धार्मिक आयोजनों और पूजा पाठ के स्थलों में भी मेहनतकश लोगों को दोयम दर्ज़े के नागरिक या अनचाहे लोगों की तरह सबसे बाद में दाखिला दिया जाता है। कई बार उन्हें बाहर भी बिठाया जाता है। कुलीन वर्ग को अपनी कालजयी चिरपरिचित शैली में विवेकानन्द ने प्रताड़ना भी दी थी। 

 

विवेकानन्द तथाकथित उच्च वर्गों, अंगरेजियत के ताबेदारों को जो अपने हुक्कामों की जीवन-प्रणाली की नकल और देश की दलित और मुफलिस जनता पर हर प्रकार के अत्याचार करते थे, क्रोध में ललकारा ‘‘भारत के उच्च वर्गों, क्या तुम अपने को जिन्दा समझते हो? तुम तो केवल दस हजार वर्ष पुरानी ममियां हो। भारत में यदि किसी में जरा भी जान बची रह गई है तो वह उन लोगों में है जिन्हें तुम्हारे पूर्वज चलती फिरती लाश समझकर नफरत करते थे। चलती फिरती लाश तो वास्तव में तुम हो, भारत के उच्च वर्गों! तुम्हीं पेचीदी पहेली और मृगतृष्णा हो। तुम अतीत के नुमाइन्दे हो। तुम अतीत के अलग अलग रूपों के बेतरतीबवार जमघट हो। तुम शून्य हो, तुम भविष्य की सारहीन नगण्य वस्तु हो।" "सपनों के सौदागरों, तुम अब भी क्यों लड़खड़ाते घूम रहे हो? तुम जल्द ही राख बनकर हवा में विलीन क्यों नहीं हो जाते? अपने को शून्य में विलीन कर समाप्त हो जाओ, और अपनी जगह नये भारत का उदय होने दो। नये भारत को उठने दो। हल की मूंठ पकड़े हुए किसान की कुटिया में से, मछुओं, मोचियों और भंगियों की झोपड़ियों में से। उठने दो उसे परचून वाले की दूकान से और पकौड़ी बेचने वाले की भट्टी से उठने दो। उसे कारखानों से, हाटों से और बाजारों से। उसे कुंजों, वनों, पहाड़ियों और पर्वतों से उठने दो। "

 

 

इन साधारण जनों ने हजारों वर्षों तक उत्पीड़न बिना शिकायत किए या वाचालता के सहा है। नतीजतन उनमें आश्चर्यजनक सहनशक्ति पैदा हो गई है। वे अनन्त दुःख सहते आए हैं। उसने उन्हें असाधारण ताकत दे दी है। मुट्ठी भर अनाज पर जीवित रहकर वे संसार को झकझोर सकते हैं। उन्हें रोटी का आधा टुकड़ा ही दे दीजिए, और फिर तुम देखोगे कि सारा संसार भी उनकी ताकत को सम्हालने के लिए काफी नहीं होगा।      उनकी आश्चर्यजनक शक्ति शुद्ध तथा नैतिक जीवन से मिलती है। वह संसार में और कहीं देखने नहीं मिलती। यहां तुम्हारे समक्ष तुम्हारे उत्तराधिकारी खड़े हैं जो भविष्य का भारत हैं। अपनी तिजोरियों और अपनी आभूषण जड़ी अंगूठियों को उनके बीच, जितनी जल्दी हो, फेंक दो, और तुम हवा में विलीन हो जाओ जिससे तुम्हें भविष्य में कोई देख न सके। जिस क्षण तुम तिरोहित हो जाओगे, उसी क्षण तुम नवजागृत भारत का उद्घाटन घोष सुनोगे।‘‘ यह भी विवेकानन्द ने आह्वान किया था ’’तुम्हारे सामने सबसे महान कार्य पड़ा है। लाखों आदमी डूब रहे हैं। उनका उद्वार करो। अच्छी तरह ध्यान दो मुसलमान जब भारत में पहले आये थे, तब भारत में कितने अधिक हिन्दू रहते थे। आज उनकी संख्या कितनी घट गई है। इसका कोई प्रतिकार हुए बिना यह दिन दिन घटती जायेगी। आखिरकार वे पूरी तौर पर विलुप्त  हो जाएंगे।    हिन्दू   जाति   लुप्त  हो   जाय   तो  होने   दो, लेकिन  साथ  ही   उनके   सैकड़ों दोष   रहने   पर   भी,   संसार   के सामने   उनके   सैकड़ों  विकृत   चित्र पेश करने के बरक्स अब तक वे जिन जिन महान् विचारों के प्रतिनिधि रहे हैं, वे भी गायब हो जाएंगे। उनके लोप के साथ साथ सारे अध्यात्म ज्ञान का अपूर्व अद्वैत तत्व भी लुप्त हो जाएगा। उठो, जागो, संसार की आध्यात्मिकता की रक्षा के लिए हाथ बढ़ाओ। पहले अपने देश के कल्याण के लिए इस तत्व को काम में लाओ। हमें आध्यात्मिकता की उतनी जरूरत नहीं, जितनी इस संसार में अद्वैतवाद को अच्छे कार्य में तब्दील करने की है। 

 

पहले रोटी और तब धर्म चाहिए। ग़रीब बेचारे भूखों मर रहे हैं, और हम उन्हें जरूरत से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं। मतमतान्तरों से पेट नहीं भरता। हमारी दो बुराइयां बड़ी ही स्पष्ट हैंः पहला दोष हमारी कमजोरी है, दूसरा है नफरत करना बल्कि हृदयहीनता। लाखों मजहबी अलगाव की बातें कह सकते हो। करोड़ों सम्प्रदाय संगठित कर सकते हो। लेकिन जब तक उनका दर्द अपने दिल में महसूस नहीं करते। वैदिक उपदेशों के अनुसार जब तक नहीं समझते कि वे तुम्हारे ही शरीर के अंश हैं। तब तक तुम और वे धनी और दरिद्र,साधु और असाधु सभी उसी एक अनन्त पूर्ण के, जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश नहीं हो जाते, तब तक कुछ नहीं होगा।’’ अकिंचनों के पक्ष में उठ खड़े होने के विवेकानंदीय आह्वान को तुरत-फुरत और उम्मीदजदा समर्थन नहीं मिला। पुरोहितवर्ग के साथ देह का एक नियम होता है। उसके लिए शरीर के अंगों में जुबान ही प्रमुख है। वह लगातार बक बक करता प्रवचन दिए रहता है। यह वर्ग अपने कानों का उपयोग सुनने के लिए नहीं करता। उसे अनाथ बच्चों, परित्यक्ताओं, विधवाओं, बुजुर्गों, दलितों आदि की चीखें सदियों तक सुनाई ही नहीं पड़ीं। धीरे धीरे यही क्रूर व्यवहार धर्मध्वजों के दुनियावी आचरण की बानगी भी बन गया। विवेकानन्द ऐसे बहरेपन की दकियानूस बीमारी से परिचित थे। उन्हें मालूम था उनके आग्रहों की जानबूझकर अनसुनी कर दी जाएगी। हालांकि विरोधाभास भी था कि उनके पक्ष में कई युवजन और कुछ अनुयायी उठ खड़े हुए थे। वे भी मध्यवर्ग का ही वैचारिक प्रतिनिधित्व करते थे।

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।