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विवेक का स्‍वामी-10: विवेकानंद ने कहा था, दलित ही इस देश की रीढ़ की हड्डी

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कनक तिवारी, रायपुर:

विवेकानन्दकालीन भारत जड़ समाज ही तो था। इसलिए उनकी रणनीति केवल साक्षर देशवासियों को सम्बोधित करने की नहीं थी। ‘रसोईघर‘ के जुमले जानबूझकर चुने गए जुमले या प्रतीक के जरिए विवेकानन्द गृहिणियों से सीधा जुड़ जाना चाहते थे जिससे छुआछूत के खिलाफ सामाजिक जद्दोजहद में उनका साथ लिया जा सके।  धार्मिक आडम्बरों के मकड़जाल और पंडों पुरोहितों और (आज की तरह) पाखंडी साधुओं के आक्टोपस की गिरफ्त में फंसे लोगों के लिए आमफहम भाषा की जमाबन्दी पर ही इत्मीनान किया जा सकता था।  विवेकानन्द के मुताबिक कोई संतुलित दिमाग पागलपन या फितूर के सामाजिक व्यवहार का प्रदर्शन नहीं कर सकता। मनोविकार की विशेषज्ञ बताते हैं कि डरा हुआ मनोरोगी ही ‘मत छुओ‘ जैसी बीमारी का शिकार होता है। इसके बरक्स मनुष्य द्वारा मनुष्य का स्पर्श करना प्रेम करने के चुनिन्दा प्रतिमानों में शामिल है। स्पर्श करना तो मूक भाषा में प्रेम की फुलझड़ी जलाना ही है। वह मनुष्य का कुदरती, नैतिक और नीयतन आचरण भी है। इसके बरक्स व्यवहार करना मनुष्य का मनुष्य के प्रति अविश्वास है। ऐसी बीमार का इलाज मनोवैज्ञानिक सर्जरी के जरिए भी होता है। 

 

 

इसलिए विवेकानन्द आदेश देते हैं, ‘ऐसी प्रथा को लात मारकर बाहर निकालो।‘ अपनी थ्योरी के समर्थन में कहते हैं ‘सभी सात्विक और आध्यात्मिक कवायदों का संक्षेप में यही सच है कि मैं पवित्र हूं और बाकी सब अपवित्र! कितना पशुत्वपूर्ण, दानवी और नारकीय विचार है यह।‘ विवेकानन्द वैसे तो पारम्परिक हिन्दू थे। वर्ण व्यवस्था के पक्ष में उन्होंने तर्कपूर्ण तथा मौलिक नस्ल की वकालत भी की थी। वे वर्णव्यवस्था और जाति प्रथा में भेद करते हैं। जाति प्रथा के वहशीपन के खिलाफ जीवन भर जेहाद करते रहे। वर्णाश्रम का उनका समर्थन हिन्दुस्तान के इतिहास और परम्पराओं के प्रति उनके लगाव के कारण था। इस प्रणाली से उत्पन्न रूढ़ियों से हालांकि उन्हें बेसाख्ता नफरत थी।   

 

 

उन्होंने बेबाक कहा यह वेदांत का ऐसा देश है, जहां दलितों के साथ बैठने और उनको छूने में भी प्रदूषित हो जाने का डर होता है। विवेकानन्द ने बेखौफ होकर धार्मिक रूढ़िवादियों को चुनौती देते आह्वान किया कि वे दलितों के घर जायें और हाथ पकड़कर उन्हें उत्थान के रास्ते पर चलाएं। कुलीन तथा आभिजात्य लोगों को लेकर विवेकानन्द आशाजनक नहीं थे। उन्होंने कहा-‘भारत के लिए एकमात्र आशा गरीब जनता से ही है। ऊंचे वर्गों के लोग तो शारीरिक और नैतिक दृष्टि से मृत हैं।‘ विवेकानन्द ने विदेशों में जाकर भी हिन्दू धर्म की इस कुप्रथा का उपहास किया। उन्होंने कहा धर्म के नाम पर हिन्दू ‘मतछुओवाद‘ के प्रवर्तक हो गए हैं। विदेशी धर्म प्रचारकों, पादरियों, मौलवियों आदि के लिए हिन्दुओं द्वारा ‘म्लेच्छ‘ शब्द का ईजाद करने पर भी उन्होंने संकीर्ण हिन्दू विचार का प्रतिवाद किया। विवेकानन्द ने सवाल उठाए कि छुआछूत के बुनियादी कारणों में संस्कारयुक्त ब्राह्मणों के कुल दलित समाज के लिए कर क्या रहे हैं। दुनिया छुआछूत की प्रथा को कभी स्वीकार नहीं करेगी। यदि हिन्दू धर्म में छुआछूत है तो वह हिन्दू धर्म ही नहीं है। दलित ही इस देश की रीढ़ की हड्डी हैं। 

 

 

प्रबुद्ध भारत में सितम्बर, 1898 को उन्होंने लिखा था ‘‘हम सभी के साथ हैं। हम सनातनी हिन्दू हैं‘‘, लेकिन हम अपने आपको ‘मत छुओवाद‘ में बिल्कुल शामिल नहीं करना चाहते। वह हिन्दू धर्म नहीं है। वह हमारे किसी ग्रन्थ में नहीं है। वह एक सनातनी अन्धविश्वास है, जिसने हमारी राष्ट्रीय क्षमता को सदा हानि पहुंचाई है (वि.सा., 4/264) ।‘‘ बेहद दुखी और क्रोधित होकर विवेकानन्द ने कहा ‘‘क्या दुनिया में इससे भी अधिक कोई मूर्ख प्रथा है जो अपने देश में मैं मलाबार में देख रहा हूं। आप क्या निष्कर्ष निकालेंगे सिवाय इसके कि ये मलाबारी पागल हो गए हैं। उनके घर पागलखाना है और उन्हें ऐसा ही समझकर हर एक को उनके साथ ऐसा ही सलूक करना चाहिए जब तक कि वे अपनीबीमारियों से दूर होकर बेहतर नहीं हो जाते। उन पर लानत है कि वे ऐसी मनुष्यविरोधी हिकारतभरी परंपराओं के साथ जीवित हैं।‘‘ 

 

उन्होंने यह भी कहा था ‘‘भारत का भविष्य तो उसी दिन खत्म होने की कगार पर आ गया था जब उसने म्लेच्छ शब्द का आविष्कार किया और बाकी दुनिया से खुद को संपर्कहीन कर लिया।‘‘ (5/40)। उन्होंने ओजपूर्ण शैली में सवाल पूछा ‘‘क्या आप समझते हैं कि मैं पैदा हुआ, जीवित रहूंगा और मरूंगा भी एक जातिसमर्थक, अंधविश्वासी, कू्रर, पाखंडी और नास्तिक कायर की तरह जो तुम भारत के शिक्षित लोगों में बहुतायत में पाते हो?‘‘ (वि0सा0, 4/73)। अपनी बेचैनी बल्कि क्रोध का उन्होंने इजहार किया ‘‘क्या आप समझते हैं कि हमारे धर्म का कोई सम्मानजनक नाम हो भी सकता है? वह तो केवल है मतछुओवाद। मुझे मत छुओ। मुझे मत छुओ। हे ईश्वर वह देश जहां के बड़े नेता पिछले दो हजार साल से केवल यही बहस कर रहे हैं कि खाना दाएं हाथ से खाया जाए या बाएं हाथ से। पानी को दायीं तरफ से लिया जाए या बाईं तरफ से। अगर ऐसा देश बर्बाद नहीं होता तो और कौन होगा।

( जारी )

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।