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विवेक का स्‍वामी-14: धर्म और देशभक्ति की आड़ में अत्याचार का स्‍वामी विवेकानंद करते रहे विरोध

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कनक तिवारी, रायपुर:

विवेकानन्द ने ’ब्राह्मण’, ‘क्षत्रिय‘, ‘वैश्य‘ और ‘शूद्र‘ आदि अभिव्यक्तियों का प्रयोग भाषा की सटीकता की तरह नहीं, बल्कि प्रचलित मुहावरों के रूप में किया। उनके समकालीन पुरोहित वर्ग के लोग ऐसी भाषा की संसूचना की तीक्ष्णता से ही प्रभावित होते थे। उन्होंने वर्ण व्यवस्था को ईश्वरजनित प्रावधान मानने से इन्कार कर दिया था। उनके अनुसार वह अन्यथा ब्राह्मणवर्णीय आग्रह था। उन्होंने कहा कि आर्थिक और बौद्धिक क्रियाकलापों के कारण वर्ण व्यवस्था का विकास हुआ है। उन्होंने कर्म को प्रधान माना और जन्म को केवल संयोग। इसलिए उनका तर्क था कि जिन्हें अपने जन्मगत कारणों से शूद्र कहा जाता है, वे वही कर्म करते हुए एक दिन सामाजिक संरचना के तामझाम को उलट पलट कर रख देंगे और उनमें शासन करने योग्य क्षत्रियत्व तथा संपत्ति धारण करने योग्य वैष्यत्व का विकास भी हो सकेगा। वह समय आएगा जब दुनिया के तमाम शूद्र अर्थात् सर्वहारा वर्ग के लोग अपनी प्रकृति, बनावट और सामाजिक आदतों के चलते हर समाज में प्रभुत्व हासिल करेंगे। प्राचीन भारत में भी कई राजवंश गैरक्षत्रिय कुलों के हुए हैं। उससे भी इतिहास की यह बोधगम्य तर्कमयता ही सिद्ध होती है। 

 


  

विवेकानन्द हर तरह के शोषण के खिलाफ थे। उन्होंने देखा था कि धर्म और देशभक्ति की आड़ में गरीबों के साथ अत्याचार किया जा रहा है। इसीलिए उन्होंने बार बार प्रहार किया और गरीबों का स्तर उठाए जाने की पुरजोर वकालत की। उन्होंने गरीबों में ही भारत के अस्तित्व के लिए आाशाएं देखी थीं। वे समानता के आधार पर नया भारत बनाना चाहते थे। उनका तर्क था कि सर्वहारा संस्कृति के जरिए ही नये भारत के सपनों को साकार किया जा सकता है। वे भविष्य के भारत को पंथवाद से परे रखना चाहते थे। उनका साफ कहना था कि यह सब वर्ग और जातिविहीन नई संस्कृति को विकसित करने से ही संभव है। इससे ही भारत में सदियों से चली आ रही साम्प्रदायिक और पंथवादी जद्दोजहद को दूर किया जा सकता है। उन्हें भारत के नवयुवकों में बहुत भरोसा था।   

 

उन्होंने कहा था ‘अगर पहाड़ मुहम्मद के पास नहीं आता, तो मुहम्मद को पहाड़ के पास जाना पड़ेगा। यदि ग़रीब शिक्षा के निकट नहीं आ सकते, तो शिक्षा को ही उनके पास हल पर, कारखाने में और हर जगह पहुंचना होगा। यह कैसे? आपने मेरे गुरुभाइयों को देखा है। मुझे सारे भारत से ऐसे निःस्वार्थ, अच्छे एवं शिक्षित सैकड़ों नवयुवक मिल सकते हैं।  दरवाज़े दरवाज़े पर धर्म को ही नहीं, शिक्षा को भी पहुंचाने के लिए इन लोगों को गांव गांव घूमने दीजिए, इसलिए विधवाओं को भी हमारी महिलाओं की शिक्षिकाओं के रूप में संगठित करने के लिए मैंने एक छोटे से दल का आयोजन किया है।‘ (वि.सा. 2/366) 

 

 

विवेकानन्द अपनी वैज्ञानिक वृत्ति के कारण अपने वक्त से बहुत आगे चल रहे थे। उन्होंने एक पुरातनपंथी समाज को नए सोच और नई दृष्टियों से संयुक्त किया। तत्कालीन धार्मिक समाज सहित अन्य कई समाज सुधारक भी विवेकानन्द की गति, तर्कशीलता और सम्भावनाओं को लेकर भौंचक दिखाई देते हैं। विवेकानन्द के जीवन का सबसे बड़ा आह्वान और इसलिए योगदान अकिंचन वर्ग के पक्ष में सामाजिक जिरह को वाचाल बना देने का है। मूर्तिपूजा, आडंबर, धार्मिक सम्मेलन, प्रवचन जैसी सभी प्रथाओं को दरकिनार करते विवेकानन्द ने दलित, पीड़ित, शोषित और अस्पृष्य वर्ग के प्रति हिन्दुस्तान की चेतना को झिंझोड़कर चेतावनी भी बिखेरी। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कई पिट्ठू तत्वों को उन्होंने खुलेआम कूपमंडूक घोषित किया जिनकी समझ में केवल ब्रिटिश हुकूमत ही भारत को उसकी चरमराती सामाजिक हालत से ऊपर उठा सकती थी।

 

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(स्‍वामी विवेकानंद के अहम जानकार गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।