डॉ. वेदप्रताप वैदिक, दिल्ली:
अफगानिस्तान में तालिबान ने अंतरिम सरकार की घोषणा कर दी है। इसके 33 मंत्रियों की सूची को ध्यान से देखने पर लगता है कि इसमें ज्यादातर मंत्री पख्तिया और कंधार के हैं। इन दो प्रांतों में गिलजई पठानों का वर्चस्व रहा है। अफगानिस्तान के राष्ट्रगान में 14 तरह के लोगों को गिनाया गया है लेकिन इस मंत्रिमंडल में पठानों के कई प्रमुख कबीलों को भी जगह नहीं मिली है। अन्य लोगों बलूच, उजबेक, हजारा, तुर्कमान, ताजिक, अरब, गुर्जर, पामीरी, नूरिस्तानी, बराहवी, किजिलबाश, ऐमक, पशाए, हिंदू और सिखों आदि को कहीं कोई स्थान नहीं मिला है। सिर्फ दो ताजिक और एक उजबेक को इस सरकार में जगह मिली है। 33 में से ये तीन गैर-पठान लोग वे हैं, जो तालिबान के गहरे विश्वासपात्र रहे हैं और जिन्हें इनकी अपनी जातियां न तो अपना प्रतिनिधि मानती हैं और न ही अपना हितैषी। अब कोई पाकिस्तानी फौज से पूछे कि आप जो मिली-जुली सरकार की बातें बार-बार दोहरा रहे थे, उसका क्या हुआ ? क्या वह कोरा ढोंग था? पाकिस्तान की सक्रिय मदद से तालिबान ने पंजशीर घाटी पर कब्जा किया लेकिन क्या अब वह पाकिस्तान की भी नहीं सुनेगें? ऐसा लगता है कि तालिबान, संपूर्ण विश्व-जनमत की भी अनदेखी कर रहे हैं।
तालिबान के प्रधानमंत्री सहित ऐसे कई मंत्री हैं, जिन्हें संयुक्तराष्ट्र संघ ने आतंकवादी घोषित कर रखा है और उनके सिर पर एक करोड़ और 50-50 लाख डाॅलर के इनाम रख रखे हैं। कुछ मंत्री ऐसे हैं, जो ग्वांनटेनामो की जेल भी काट चुके हैं। हक्कानी गिरोह के मुखिया सिराजुद्दीन हक्कानी को गृहमंत्री और उसके अन्य साथी भी मंत्री बनाए गए हैं। यह वही गिरोह है, जिसने हमारे काबुल के राजदूतावास पर 2008 में हमला करके दर्जनों हत्याएं की थीं। दूसरे शब्दों में काबुल में फिलहाल जो सरकार बनी है, उसमें पुराने भारत-विरोधी तत्वों की भरमार है। मुल्ला अब्दुल गनी बिरादर को प्रधानमंत्री बनाने की बजाय मुल्ला हसन अखुंड को प्रधानमंत्री बनाया गया है। मुल्ला बिरादर और शेरु स्थानकजई जैसे उदार और मर्यादित लोग पीछे खिसका दिए गए हैं। जाहिर है कि तालिबान की यह सरकार उनकी 25 साल पुरानी सरकार-जैसी ही है। इसका लंबे समय तक टिके रहना मुश्किल है।
यदि यह चीन और पाकिस्तान के टेके पर टिक भी गई तो कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ ही दिनों में इन दोनों राष्ट्रों का भी मोहभंग हो जाए। क्या पता कि काबुल की तालिबानी सरकार डूरेंड लाइन का विरोध करने लगे और चीन के उइगर मुसलमानों का समर्थन करने लगे। दुर्भाग्य है कि तालिबान से सीधा संवाद टालकर भारत सरकार ने एक सुनहरा मौका खो दिया। वह अमेरिका का पिछलग्गू बना रहा। अब भी हमारे विदेश मंत्री वगैरह अमेरिका और रूस के सुरक्षा अफसरों से मार्गदर्शन ले रहे हैं। उन्हें समझ नहीं पड़ रहा है कि वे क्या करें। अफगान जनता के मन में भारत के लिए जो सम्मान है, वह किसी भी देश के लिए नहीं है। अफगान जनता के समर्थन के बिना तालिबान का अब काबुल में टिके रहना मुश्किल है। देखते है कि सत्तारूढ़ होने के पहले तालिबान प्रवक्ताओं ने जो कर्णप्रिय घोषणाएं की थीं, उन पर उनकी यह अंतरिम सरकार कहां तक अमल करती हैं?
(लेखक अफगान-मामलों के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने अफगान विदेश नीति पर जनेवि से पीएच.डी. किया है और वे पिछले 56 साल से अफगान नेताओं के संपर्क में हैं। दैनिक नवभारत टाइम्स के साथ न्यूज एजेंसी भाषा के संपादक रहे हैं। संप्रति भारतीय विदेश नीति और भारतीय भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष के साथ स्वतंत्र लेखन।)
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