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तालिबान के पास अफगानिस्तान की सत्ता एक सुनियोजित योजना का परिणाम

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रंगनाथ सिंह, दिल्‍ली:

कुछ लोग यह दिखाना चाह रहे हैं कि तालिबान केवल एक संगठन है और उसने अपने दम पर तख्तापलट किया है। कुछ लोग यह भी दिखाना चाह रहे हैं कि तालिबान के पास व्यापक जनसमर्थन है और उसकी मुहिम जनजागरण का परिणाम है। कल एक वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार ने डॉन न्यूज पर बहुत अच्छी बात कही। उन्होंने कहा कि काबुल में जिस तरह भीड़ द्वारा तालिबान का स्वागत करने का वीडियो मीडिया में जारी किया गया, ठीक वैसा ही वीडियो तब जारी किया गया था जब अमेरिकी फौज काबुल पहुँची थी। तब भी यही बयानिया (नरेटिव) तैयार किया गया कि अवाम ने अमेरिकी फौज का स्वागत किया है। 

तालिबान को जिस तरह इस बार अफगानिस्तान की सत्ता सौंपी गयी है उससे जाहिर है कि वह एक सुनियोजित योजना का परिणाम है। पिछले तीन-चार दिनों में जिन लोगों के नाम नए निजाम के प्रमुख मनसबदार के तौर पर सामने आये हैं उन सभी का किसी न किसी तरह से अमेरिका से लम्बा नाता रहा है। और तो और इस वक्त तालिबान के मुखिया मुल्ला बिरादर को साल 2010 में पाकिस्तानियों ने गिरफ्तार कर लिया था। आठ साल पाकिस्तानी जेल में रहने के बाद मुल्ला बिरादर को साल 2018 में रिहा किया गया। माना जाता है कि मुल्ला बिरादर को अमेरिका के कहने पर रिहा किया गया। 

अमेरिका ने जिस तरह तालिबान से सीधी बातचीत का रास्ता अख्तियार किया उसमें पर्दे के पीछे के सौदेबाजियों के बारे में अभी तक कोई खुलासा नहीं हुआ है। नेताओं के बयान इत्यादि पर भरोसा करने लगे तो आदमी अन्धेरे कमरे में आँख पर काली पट्टी बाँधकर भटकता रह जाएगा। हालिया घटनाक्रम और अमेरिका के कोवर्ट ऑपरेशन की क्षमता को देखते हुए अभी इस बारे में कोई ठोस राय कायम करना उचित नहीं। भारत में बाबा रामपाल के आश्रम में घुसने में पुलिस को कई दिन लग गये और काबुल में तालिबान टहलते हुए राष्ट्रपति भवन तक पहुंच गये तो इसका मतलब साफ है कि पर्दे के पीछे कुछ बड़ा खेल हुआ है। 

तालिबान का राजनीतिक दफ्तर कतर के दोहा में था। तालिबान जब अफगान राष्ट्रपति भवन में घुसे तो कतर द्वारा वित्त-पोषित अल जजीरा का कैमरा उनके साथ था। कतर पर अल-जजीरा के अलावा कई कट्टरपंथी संगठनों को पैसे देने का आरोप लगता रहा है। अरब जगत के ज्यादातर देश अमेरिका की जेब में हैं। ऐसे में खेल की डोर अमेरिका के हाथ में होने का शक निराधार नहीं है।

 

मुल्ला बिरादर चीन भी आते जाते रहे हैं। चीन पाकिस्तान का नया गॉडफादर है। चीन अपनी 'वन बेल्ट वन रोड' परियोजना पर युद्ध स्तर पर काम कर रहा है। अफगानिस्तान से दोस्ताना रिश्तों के बाद चीन के लिए इस परियोजना को अंजाम देने में पहले से ज्यादा सहूलियत होगी। कई विश्लेषक यह मान रहे हैं कि चीन अफगानिस्तान के हिन्दकुश इलाके के खनिजों पर नजर गड़ाये हुए है। चीन ने पिछले कुछ सालों में जिस तरह नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश इत्यादि में अपनी पकड़ मजबूत की है उसे देखते हुए अफगानिस्तान में चीन के मंसूबे का अंदाज लगाना मुश्किल नहीं। तालिबान चीन को मित्र राष्ट्र मानता है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पर्दे के पीछे खेलने वाला असल खिलाड़ी चीन हो। 

अफगानिस्तान के खेल में एक बड़ा खिलाड़ी रूस भी रहा है लेकिन इस बार रूस का नाम उभर कर सामने नहीं आ रहा है। हालाँकि साल 2017 में अफगानिस्तान के तत्कालिन राष्ट्रपति अशरफ गनी ने रूस पर तालिबान को हथियार आपूर्ति का आरोप लगाया था। तीन साल पुरानी एक चर्चा में अफगानिस्तान पर गहरी पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार रहीमुल्ला यूसुफजई ने ध्यान दिलाया कि रूसी हथियार मिलने से रूस का हाथ मानना अक्लमंदी नहीं। सोवियत रूस के जमाने में अफगानिस्तान पर हमले के दौरान बहुत से हथियार यहीं रह गये थे। यह भी जरूरी नहीं कि रूसी हथियार सीधे रूस से मिले हों। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रूस के वर्तमान कर्णधार पुतिन खुफिया एजेंसी के प्रमुख रहे हैं। अमेरिका-विरोधी गुटबन्दी में रूस ने चीन और ईरान का साथ दिया। यहाँ तक कि भारत ने अमेरिका से दोस्ताना बढ़ाया तो रूस ने तुरन्त पाकिस्तान की तरफ हाथ हिलाकर भारत पर दबाव बनाया। ऐसे में अभी यह साफ नहीं है कि पर्दे के पीछे रूस ने क्या पत्ते चले हैं।

इलाके का तीसरा बड़ा मनसबदार ईरान है। ईरान की अमेरिका से तनातनी जगजाहिर है। ईरान कतई नहीं चाहता होगा कि उसके पड़ोस में अमेरिका प्रभावी रहे। चीन और रूस से उसकी नजदीकी से उसे यह भरोसा मिला होगा कि तालिबान पर नियंत्रण रखा जा सकता है। तालिबान के मौजूदा तख्तापलट में कई जानकारों ने इस बात को रेखांकित किया कि तालिबान ने ईरानी सीमा के करीबी प्रान्तों को पहले कब्जे में लिया। वहाँ जैसे मुकाबले की उम्मीद थी वह नहीं हुआ। अतः ईरान ने मौजूदा मामले में क्या भूमिका निभायी है यह वक्त आने पर ही पता चलेगा। 

खेल का अगला अहम खिलाड़ी हमारा पड़ोसी पाकिस्तान है। संयोग है कि पाकिस्तान में तालिबान की शरणगाह खैबर पख्तूनख्वा से राजनीति शुरू करने वाले इमरान खान ही वजीरे आला है। तालिबानियों से उनके प्रेम के कारण उन्हें तालिबान खान भी कहा जाता था। ये सच है कि उनकी जमीन, राशन-पानी, बिजली, सड़क, अस्पताल और मदरसों के दम पर ही तालिबान 20 साल तक जिन्दा रहे लेकिन यह भी सच है कि यह बस वक्त-वक्त की बात है। आजाद खुदमुख्तार मुल्क के हुक्मरान बनते ही तालिबान यह याद दिला सकते हैं कि उन्होंने तीन बड़ी ताकतों (ब्रिटेन, रूस और अमेरिका) से जंग लड़कर मुल्क हासिल किया है तो पाकिस्तान जैसे कठपुतली मुल्क की घुड़की वो बर्दाश्त नहीं करेंगे।

आखिर में बचा हमारा भारत। तालिबान ने भारत के प्रति काफी नरम रुख दिखाया है। भारत ने भी अफगानिस्तान में चल रहे सत्ता संघर्ष में सुरक्षित दूरी बरती है। पिछली अफगान सरकारों से भारत के अच्छे सम्बन्ध थे। ऐसा लग रहा है कि फिलहाल तालिबान भी भारत से वैसे ही रिश्ते रखना चाहते हैं। इस इलाके के गहरे जानकार प्रोफेसर स्वर्ण सिंह से थोड़ी देर पहले एक वीडियो इंटरव्यू किया। प्रोफेसर साहब ने ध्यान दिलाया कि तालिबान ने कश्मीर को भारत का अन्दरूनी मसला बताया है। मीडिया खबरों के आधार पर यही राय बनती है कि भारत ने शायद यह रणनीति अपनायी है कि अफगानिस्तान के अन्दरूनी मसलों में दखल न दिया जाए। लेकिन जिस देश के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल हों तो यह मानना नादानी होगी कि भारत ने पर्दे के पीछे कोई पत्ता नहीं चला होगा। 

कुल मिलाकर अफगानिस्तान में पिछले एक महीने में जो हुआ है उसके पत्ते वक्त के साथ-साथ धीरे-धीरे खुलेंगे। याद रखना है कि एक्शन स्पीक्स लाउडर दैन वर्ड्स। तो कौन क्या कह रहा है, इसके बजाय हमें इसपर निगाह रखनी है कि कौन क्या कर रहा है।

 

 

(रंगनाथ सिंह हिंदी के युवा लेखक-पत्रकार हैं। ब्‍लॉग के दौर में उनका ब्‍लॉग बना रहे बनारस बहुत चर्चित रहा है। बीबीसी, जनसत्‍ता आदि के लिए लिखने के बाद संप्रति एक डिजिटल मंच का संपादन। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।