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वीर! -6 : सावरकर की इतिहास दृष्टि को जानने के लिए उनका निबंध -हिन्दू संगठनकर्ता पढ़ना चाहिए

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गांधीवादी चिंतक डॉ. राजू पाण्डेय की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "सावरकर और गांधी" के संपादित अंश हम आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। आज 6 वीं कड़ी। -सं.

डॉ. राजू पांडेय, रायगढ़:

सावरकर की इतिहास दृष्टि को जानने के लिए उनका निबंध -हिन्दू संगठनकर्ता स्वतंत्रता का इतिहास किस तरह लिखें और पढ़ें- अत्यंत महत्वपूर्ण है। ज्योतिर्मय शर्मा अपने आलेख 'हिस्ट्री एज रिबेलियन एंड रेटेलिएशन : रीरीडिंग सावरकर’स द वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस ऑफ 1857' में लिखते हैं - "राष्ट्रीय दृष्टि से आर्य या अनार्य ब्राह्मण या शूद्र, वैदिक या अवैदिक, शैव या वैष्णव जैन या बौद्ध जैसे अंतर अथवा विभेद सावरकर के लिए अर्थहीन हैं।" सावरकर की दृष्टि में केवल एक ही बात महत्वपूर्ण है और वह यह है कि “हमारे सामूहिक जीवन को केवल एक शब्द द्वारा व्याख्यायित किया जा सकता है और वह अनूठा शब्द है हिन्दू।“ (सावरकर समग्र, वॉल्यूम 5, पृष्ठ 445)। 

ज्योतिर्मय शर्मा के अनुसार सावरकर की दृष्टि में इतिहास दो भिन्न तरीकों से लिखा जाना चाहिए। एक इतिहास तो हिन्दू राष्ट्र का होना चाहिए और दूसरा इतिहास हिन्दू राष्ट्र के मुसलमानों के साथ हुए युद्ध का भी होना चाहिए। सावरकर मानते हैं कि हमारा इतिहास कुछ शानदार और कुछ शर्मनाक असहज करने वाले पलों को समेटे है लेकिन इसे आर्य और अनार्य इतिहास के रूप में न लिखा जाए अपितु यह हिन्दू राष्ट्र के इतिहास के रूप में ही रचा जाना चाहिए। सावरकर के अनुसार इतिहास लेखन का एक हास्यास्पद तरीका भी है जो सत्य की प्रकृति को उजागर नहीं करता। ऐसा हास्यास्पद इतिहास  दुनिया को देखने के गांधी जी के सनक भरे दृष्टिकोण से प्रेरित कांग्रेस जनों द्वारा लिखा गया है।(सावरकर समग्र, वॉल्यूम 5, पृष्ठ 447-448) इस एकपक्षीय इतिहास में औरंगजेब और अलाउद्दीन खिलजी जैसे अनेक शासकों के अत्याचारों का उल्लेख तक नहीं है, मुस्लिम शासकों के धार्मिक उत्पीड़न की कोई चर्चा नहीं है अपितु यह इतिहास इस्लाम, मुस्लिम सभ्यता और मुस्लिम शासन की तारीफों से भरा पड़ा है। सावरकर इस बात से आहत हैं कि यह इतिहास उस सत्य की उपेक्षा करता है जिसके अनुसार हिन्दू और मुस्लिम धर्मों तथा हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्रों के बीच सैकड़ों वर्षों तक जानलेवा संघर्ष हुआ और अंततः हिंदुओं ने मुस्लिम राज्य को ध्वस्त कर टुकड़े टुकड़े कर दिया। केवल हिन्दू राष्ट्र ही मुसलमानों के हमले का सामना कर सका और उनके जहरीले आक्रमण को नाकामयाब बना सका।(सावरकर समग्र, वॉल्यूम 5, पृष्ठ 447,448,449)। 

 

ज्योतिर्मय शर्मा लिखते हैं कि सावरकर यह मानते थे कि इस अतीत की शत्रुता की छाया से मुक्त हिन्दू मुस्लिम सह अस्तित्व तभी संभव है जब मुसलमान हिंदुओं की शक्ति और सर्वोच्चता को स्वीकार कर लें। सावरकर के लिए दुनिया दो भागों में बंटी हुई है- मित्र और शत्रु। सावरकर के शत्रु बदलते रहते हैं। किंतु शत्रुओं की उपस्थिति उनके लिए अनिवार्य है। हिन्दू इतिहास किस तरह लिखा और पढ़ा जाए तद्विषयक निबंध में मुसलमान उनके शत्रु हैं। जबकि 1857 के स्वाधीनता संग्राम के सावरकर के पाठ में अंग्रेज उनके शत्रु हैं। एक ऐसी दुनिया में जो मित्र और शत्रु में, वे और हम में विभक्त है, शत्रु से मुकाबला करते समय सारे नैतिक नियम बेमानी हो जाते हैं। सावरकर मैजिनी से प्रभावित हैं और जिस प्रकार मैजिनी स्वर्ग और पृथ्वी को अपरिहार्य रूप से संबंधित मानते हैं उसी प्रकार सावरकर का कहना है कि स्वधर्म के बिना स्वराज्य अर्थहीन है और स्वराज्य के बिना स्वधर्म शक्तिहीन है।(सावरकर समग्र वॉल्यूम 5 पृष्ठ 27)


सावरकर अपने बदलते शत्रुओं के मध्य ही हिन्दू मुस्लिम एकता का अवसर देखते हैं, 1857 में ईसाई धर्म के खिलाफ धर्मयुद्ध में हिन्दू और मुसलमान अपने पुराने मतभेद भुलाकर एक हो जाते हैं। फिर समय बीतता है और आज़ादी के पहले गांधी और उनकी सर्वसमावेशी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा से प्रभावित कांग्रेस सावरकर की प्रधान शत्रु है। इसलिए वे मुस्लिम लीग और द्विराष्ट्र के सिद्धांत के समर्थक जिन्ना के साथ व्यवहारिक गठबंधन करते हैं। सावरकर की राजनीति में व्यवहारिकता और अवसरवाद एक दूसरे के पर्यायवाची हैं और वे गांधी की मूल्य आधारित राजनीति को मूर्खता मानते हैं।


ज्योतिर्मय शर्मा लिखते हैं- सावरकर की 1857 के स्वाधीनता संग्राम की पुनर्व्याख्या में प्रतिशोध, बदले और अपराध के लिए हिंसक दंड को न्यायोचित ठहराने का शिल्प बहुत सतर्कतापूर्वक गढ़ा गया है। जून 1857 में मेजर जनरल व्हीलर और विद्रोहियों के नेता नाना साहब के बीच पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को  गंगा नदी के जरिये सुरक्षित निकालने का समझौता हुआ था। जब इनकी नौकाएं गंगा नदी से गुजर रही थीं तब इनके साथ जो घटित हुआ उसे सावरकर प्लासी की लड़ाई की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित उत्सव के रूप में देखते हैं। सावरकर लिखते हैं- "इतने में नौकाएं जलने लगीं। अंग्रेज मर्द, औरतें और बच्चे गंगा में छलांग लगाने लगे। कुछ लोगों ने तैरना शुरू कर दिया। कुछ लोग डूब गए। कुछ लोग जलने लगे। अंततः वे सभी गोलियों का शिकार हो गए। मांस के टुकड़े, कटे सर, बालों के गुच्छे, कटे हाथ, टूटे पैर और रक्त की बाढ़- गंगा लाल हो गई। और इस तरह से प्लासी की वर्षगांठ मनाई गई।(सावरकर समग्र, वॉल्यूम 5, पृष्ठ 196)।

 

 झांसी के और अधिक भयंकर नरसंहार (जिसमें 75 पुरुष, 12 महिलाएं और 23 बच्चे मारे गए) के वर्णन में सावरकर धार्मिक शब्दावली का उपयोग करते हैं और इसे बलि की संज्ञा देते हैं। सावरकर लिखते हैं- "महिलाओं की गोद में छोटे बच्चे थे और ये अपनी माताओं से चिपके हुए थे। इन महिलाओं, दुधमुंहे और इनसे बड़े बच्चों का दोष यह था कि ये गोरे थे और इसलिए इनका सर काली तलवार से काट दिया गया।"(सावरकर समग्र, वॉल्यूम 5 पृष्ठ 202)।

तीसरा वृत्तांत बीबीगढ़ का है। यहां जेल के सुरक्षा कर्मी अंग्रेजों का सामूहिक नर संहार करने से मना कर देते हैं। बीबीगढ़ विद्रोहियों के कब्जे में है और बेगम साहब यहां के प्रधान हैं। वे कानपुर की कसाइयों की बस्ती में संदेश भिजवाते हैं। सावरकर लिखते हैं- "थोड़ी ही देर में शाम के समय कसाई नंगी तलवारों और तेज धार वाले चाकुओं के साथ बीबीगढ़ में प्रविष्ट हुए और वहां से देर रात में बाहर निकले। उनके घुसने और निकलने के बीच के वक्फे में श्वेतों के रक्त का एक समुद्र फैल गया। जैसे ही वे प्रविष्ट हुए उन्होंने 150 महिलाओं और बच्चों को काट डाला। वहां रक्त का एक समुद्र बन गया जिसमें शरीर के अंग तैर रहे थे। घुसते समय कसाई सूखे मैदान से प्रविष्ट हुए थे किंतु निकलते समय उन्हें रक्त को पार कर निकलना पड़ा।"(सावरकर समग्र, वॉल्यूम 5, पृष्ठ 256)। 

ज्योतिर्मय शर्मा  इस घटना पर सावरकर की टिप्पणी को रेखांकित करते हैं- सावरकर लिखते हैं कि इस तरह दोनों प्रजातियों का कुल हिसाब बराबर हो गया। सावरकर इन नरसंहारों के विषय में यह भी बताना नहीं भूलते कि 1857 के क्रांतिकारी अंग्रेजों का रक्त बहाने में बड़े आनंद का अनुभव करते थे। सावरकर की दृष्टि में बदला, प्रतिशोध, विद्रोह आदि न्यायोचित हैं क्योंकि ये अन्याय को समाप्त करने और न्याय की स्थापना करने तथा बराबरी लाने में सहायक हैं।

 सावरकर के अनुसार नरसंहार भयंकर अवश्य होता है किंतु इसके होने का कारण यह है कि मानव जाति प्राकृतिक न्याय, शांति, समानता और विश्व बंधुत्व के उदात्त आदर्शों को प्राप्त करने में असफल रही है। आज के युग में सत्य पर असत्य का राज्य चलता है। जब ऐसा युग आ जायेगा जिसमें सत्य के राज्य की स्थापना हो जाएगी तब प्रतिशोध शब्द का केवल उच्चारण करने वाले को भी दुष्ट और गिरा हुआ व्यक्ति माना जाएगा। किन्तु ऐसे युग का आगमन होता नहीं दिखता इसलिए हिंसा और प्रतिशोध प्राकृतिक न्याय की स्थापना के महत्वपूर्ण साधन हैं।

सावरकर ने बहुत बाद में अपने एक आलेख द मीनिंग ऑफ वायलेंस(09 फरवरी 1928, द गांधियन कंफ्यूजन में संकलित) में लिखते हैं- "यही कारण था कि प्रथम विधि निर्माता श्रद्धेय मनु ने लिखा- यदि कोई अविवेकी क्रोधी व्यक्ति आक्रमण करता है तो उसे चाहे वह पुरुष हो या महिला बिना विचार किए मार डालना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को सार्वजनिक या गुप्त रूप से मारने वाला हत्या का दोषी नहीं है। मानो उसके माध्यम से क्रोध का देवता इस अविवेकी क्रोधी व्यक्ति के क्रोध का प्रतिकार कर रहा होता है। (मनुस्मृति, अध्याय 8 पृष्ठ 351-352)। और यही राजनीति के लिए भी सत्य है। इटली के लोगों की आकांक्षाओं और हितों के विपरीत अपनी सैन्य शक्ति के जरिए ऑस्ट्रिया द्वारा इटली पर आधिपत्य स्थापित करना हिंसा थी। किन्तु गैरीबाल्डी, क्रेस्पी और मैजिनी द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु की गई जवाबी कार्रवाई न्यायोचित थी। इसी प्रकार भारत में 1857 में हुआ विशाल क्रांतिकारी स्वतंत्रता संग्राम हिंसा की श्रेणी में नहीं आता।"

 

सावरकर जब हिंसा की घटनाओं का वर्णन करते हैं तो कभी इन घटनाओं पर क्षोभ, दुःख या आक्रोश व्यक्त नहीं करते न ही इनकी निंदा करते हैं अपितु उनका प्रयास इन घटनाओं को न्यायोचित ठहराने का ही अधिक रहा है। नरसंहारों का बहुत विस्तृत विवरण देने में सावरकर कभी भी संकोच नहीं करते। कई बार ऐसा लगता है कि ऐसे विस्तृत विवरण उन्हें आनंद प्रदान करते हैं और कई बार मन के किसी कोने में यह शंका भी उठती है कि कहीं उन्हें कोई मनोवैज्ञानिक समस्या तो नहीं थी। सावरकर जिस हिंसा को न्यायोचित ठहराने हेतु प्रयत्नशील हैं वह युद्ध भूमि में आमने सामने के युद्ध में वीर योद्धाओं का पराक्रम नहीं है। यह नफरत और बदले की आग में जल रही विवेक शून्य लोगों की भीड़ द्वारा निरीह लोगों पर की गई बर्बरता है जो सावरकर को आकर्षित और प्रेरित करती है।

पुनः यहां सावरकर और भगत सिंह तथा उनके साथी क्रांतिकारियों के बीच तुलना का प्रश्न उपस्थित होता है। क्या भगत सिंह अपनी हिंसात्मक गतिविधियों को ब्रिटिश शासन के अत्याचारी अधिकारियों तक सीमित रखने के प्रबल पक्षधर नहीं थे? क्या उनकी हिंसा सीमित और प्रतीकात्मक नहीं थी जिसका उद्देश्य केवल अत्याचारी और निरंकुश ब्रिटिश अधिकारियों में भय पैदा करना था? क्या भगत सिंह जैसा वीर निरीह स्त्री-बच्चों की हत्या का पल भर के लिए भी समर्थन कर सकता था? क्या सावरकर उस पागल भीड़ के समर्थन में नहीं खड़े हैं जो प्रतिशोध और प्रतिहिंसा की अग्नि में जल कर निर्दोष स्त्री-बच्चों की निर्मम हत्या को वीरता समझ रही है? क्या भगत सिंह के लिए हिंसा मजबूरी में अपनाई गई एक आखिरी रणनीति थी और क्या सावरकर हेतु हिंसा परपीड़क आनंद की सृष्टि करती थी? इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढे जाने चाहिए।

जारी

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(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। स्कूली जीवन से ही लेखन की ओर झुकाव रहा। समाज, राजनीति और साहित्य-संस्कृति इनके प्रिय विषय हैं। पत्र-पत्रिकाओं और डिजिटल मंच पर नियमित लेखन। रायगढ़ छत्तीसगढ़ में  निवास।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।