Zeb Akhtar
शोर-शराबे और ऐक्शन की दुनिया में शिवम नायर निर्देशित और जॉन अब्राहम की 'द डिप्लोमैट' एक ऐसी फिल्म है जो तेज़ आवाज़ में नहीं, बल्कि धीमे और असरदार अंदाज़ में अपनी बात कहती है। ये फिल्म ना चिल्लाती है, ना झंडा लेकर दौड़ती है, फिर भी देशभक्ति की सबसे गहरी कहानी कह जाती है।
कहानी असली है – और असली कहानियों में ही असली सस्पेंस होता है। फिल्म उज्मा अहमद की उस सच्ची घटना को दिखाती है जहाँ एक आम लड़की, पाकिस्तान में फँसी, भारत लौटने के लिए एक असाधारण जंग लड़ती है – लेकिन बंदूक से नहीं, बातचीत से।
जॉन अब्राहम यहाँ मसल्स नहीं, माइंड से काम लेते हैं। उनका किरदार है जेपी सिंह – भारत के डिप्टी हाई कमिश्नर – जो न तो ज़ोर से बोलता है और न ही तेज़ चलती कारों में बैठता है। वो एक सूट पहनता है, फाइलों पर साइन करता है, फोन कॉल करता है, और पर्दे के पीछे ऐसी चालें चलता है जो वाकई जान बचा देती हैं।
‘हीरो’ का मतलब अब बदला है
शिवम की इस फिल्म में जॉन अब्राहम इस बार न बाइक पर हैं, न बंदूक लेकर दौड़ते हैं। उन्होंने अपनी बॉडी नहीं दिखाई, बस किरदार को जीया। इंटरव्यू में उन्होंने बताया – “मेरे डायरेक्टर शिवम नायर ने कहा, ‘अगर तुमने सूट की बाजू ऊपर कर दी, तो लोग तुम्हारी बॉडी देखने लगेंगे, कहानी छूट जाएगी।’” और जॉन ने यही किया – खुद को पीछे रख दिया ताकि कहानी आगे बढ़े।
फिल्म में ऐक्शन नहीं, चालें हैं
शिवम नायर की इस फिल्म में गोलियां नहीं चलतीं, लेकिन हर सीन की टेंशन आपको सीट से हिलने नहीं देती। पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा की वादियों में जब उज्मा को ज़बरदस्ती शादी में फँसाया जाता है, तो उसकी लड़ाई वहाँ से शुरू होती है – और दिल्ली के साउथ ब्लॉक तक पहुँचती है।
सुषमा स्वराज का किरदार निभा रही हैं रेवती, और उनके साथ मिलकर जॉन का किरदार इस पूरी मिशन को एक 'चुपचाप ऑपरेशन' की तरह अंजाम देता है – जैसे शतरंज की बाज़ी, जहाँ हर चाल सोच-समझकर चलनी होती है।
‘डिप्लोमैसी’ सिर्फ मीटिंग नहीं, माइंड गेम है
जॉन कहते हैं – “डिप्लोमैट्स के दो चेहरे होते हैं – एक मुस्कराता है, दूसरा शतरंज खेलता है। वो हमेशा दस चाल आगे की सोचते हैं।” और यही बात इस फिल्म को अलग बनाती है – यहाँ लड़ाई ज़ुबान से होती है, चालें कैमरे से छिपकर खेली जाती हैं, और एक दस्तखत कई ज़िंदगियाँ बदल देता है।
जब असली जेपी सिंह बोले – ‘तुमने मुझे मुझसे बेहतर निभाया’
जॉन के लिए सबसे बड़ा रिवॉर्ड तब मिला जब खुद जेपी सिंह ने उन्हें फोन करके कहा – “तुमने मुझे मुझसे बेहतर निभाया।” शायद एक ऐक्टर के लिए इससे बड़ा कॉम्प्लिमेंट कोई नहीं।
‘द डिप्लोमैट’ याद दिलाती है – हर लड़ाई जंग के मैदान में नहीं लड़ी जाती
कभी-कभी सबसे बड़ी जंगें कान्फ्रेंस रूम में लड़ी जाती हैं, जब सामने वाला चुप है, लेकिन उसकी चाल सब कुछ बदल सकती है। फिल्म बताती है कि असली ताक़त शोर में नहीं, सोच में होती है। और जब खेल कूटनीति का हो, तो जीतते वही हैं जिनका दिमाग सबसे तेज़ चलता है।