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देवी दुर्गा शक्ति स्वरूपा : तीरंदाज दीपिका कुमारी- जुनून और जिद के आगे महिषासुर के खात्मे की गाथा

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Zeb Akhtar

स्क्रीन पर दिखाई दे रही इस लड़की को पहचानना बहुत मुश्किल नहीं है। ये दुनिया की नंबर वन तीरंदाज दीपिका कुमारी हैं जिन्हें अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री जैसे सम्मान से नवाजा जा चुका है। जरा रुकिये, अभी दीपिका का परिचय पूरा नहीं हुआ है। उनके पूरे परिचय से पहले ये जानना ज्यादा जरूरी है कि दीपिका ने इस मुकाम तक पहुंचने से पहले किन मुश्किलों का सामना किया। कितनी मेहनत लगी होगी। सच पूछिये तो दीपिका का अब तक का सफर जितनी तीरंदाजी के प्रति उनके समर्पण की कहानी है। उतनी ही उनके और उनके परिवार के संघर्ष की भी कहानी है। द फॉलोअप  की इस खास सीरीज में हम आपको आज इसी दीपिका की कहानी सुनाने जा रहे हैं। दीपिका की कहानी उस महिषासुर को परास्त करने की भी कहानी है जो जीवन के हर कदम पर हमारे हौसले, हमारे सपने और हमारी उड़ानों को कुचलना चाहता है। तोड़ना चाहता है। दीपिका ने कामयाबी के इस मुकाम तक पहुंचने के पहले ऐसे अनगिनत महिषासुरों का सामना किया है।

ऑटो में हुआ था दीपिका का जन्म 

सही मायनों मे दीपिका का संघर्ष उसी दिन शुरू हो गया था, जब उनका जन्म हो रहा था। दीपिका के पिता शिवनारायण महतो बताते हैं कि जब दीपिका का जन्म हो रहा था वे अपनी पत्नी गीता महतो को लेकर हॉस्पिटल नहीं पहुंच पाये थे। दीपिका का जन्म ऑटो में ही हो गया था। दीपिका के पिता पहले ऑटो चलाते थे। बकौल दीपिका, वे आज भी ऑटो चलाना पसंद करते हैं क्योंकि वही उनकी पहचान है। दीपिका की मां एक नर्स हैं। दोनों की कमाई से भी उन दिनों परिवार चलाना मुश्किल होता था। ये 13 जून 1994 के बाद यानी दीपिका के जन्म के बाद का समय था। दीपिका ने होश संभाला तो समझ गईं कि जिंदगी आसान नहीं है। 12 साल की उम्र में तीरंदाजी की तरफ आकर्षित हुईं। दीपिका एक इंटरव्यू में उन दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि वे रातू से अपनी नानी के घर खरसांवा गयी थी। नानी के यहां उसकी ममेरी बहन ने बताया कि खरसांवा में अर्जुन आर्चरी अकादमी चलती हैं। ये 2007 का समय था। दीपिका 13 साल की थी। दीपिका को उनकी बहन ने बताया कि वहां सबकुछ फ्री है। आर्चरी के लिए किट मिलता है। रहने और खाने की व्यस्था तो है ही। दीपिका ने सोचा कि चलो अच्छा है परिवार पर से एक आदमी का बोझ कम हो जायेगा। 

जब पिता ने अकादमी जाने की नहीं दी इजाजत

हालांकि, पिता ने दीपिका को अर्जुन अकादमी जाने की इजाजत नहीं दी क्योंकि इससे परिवार के सम्मान को चोट पहुंचती थी। घर से 200 किमी दूर बेटी को भेजना उनके पिता को पसंद नहीं था लेकिन, दीपिका की जिद के आगे उनको झुकना पड़ा और उन्होंने दीपिका को अकादमी जाने की इजाजत दे दी। दीपिका बताती हैं कि उनकी जेब में तब उस समय सिर्फ 10 रुपये थे। वो उन दिनों बांस से बने तीर-धनुष से तीरंदाजी की प्रैक्टिस किया करती थी। 
खैर, दीपिका रांची से खरसावां पहुंच गयी। उन्हें लगा था यहां सबकुछ अच्छा ही अच्छा होगा। लेकिन, सच्चाई ये थी कि ये संघर्षों की शुरुआत भर थी। पहली ही नजर में अकादमी ने दीपिका को खारिज कर दिया गया क्योंकि दीपिका काफी दुबली-पतली थीं। बहुत मिन्नत के बाद खुद को साबित करने के लिए दीपिका को 3 महीने का वक्त मिला। जुनूनी दीपिका के लिए इतना वक्त काफी था। उन्होंने 3 महीने में न सिर्फ खुद को साबित किया बल्कि अकादमी में तीरंदाजी के हुनर से अपनी खास जगह भी बनाई। दीपिका कहती हैं कि एकेडमी में बाथरूम भी नहीं था। लड़कियों को नहाने के लिए नदी पर जाना पड़ता था। रात को अकादमी के कैंपस में हाथी आ जाते थे। रात के वक्त अकादमी की लड़कियां बाथरूम जाने के लिए भी नहीं निकल सकती थीं। इस वातावरण में भी लक्ष्य उनकी आंखों में बसा था।

तीरंदाजी में रमती गयीं, मुश्किलें छोटी होती गयीं

जैसे-जैसे वो तीरंदाजी में रमती गयीं, मुश्किलें छोटी होती गयीं। दीपिका बताती हैं कि ऐसा लगता था जैसे मैंने तीरंदाजी को नहीं बल्कि तीरंदाजी ने मुझे चुना है। इसलिए बड़ी से बड़ी मुश्किल भी उस वक्त छोटी लगी। खऱसावां में ही रहते हुए दीपिका ने कई स्थानीय और जिला स्तर की स्पर्धाओं में हिस्सा लिया। वो जीती भी। इनाम के तौर पर कभी 100, कभी 200 तो कभी 500 रुपये मिले। ये छोटी रकम भी उनके लिए बहुत मायने रखती थीं। उन्हीं दिनों 2008 में जूनियर वर्ल्ड चैंपियनशिप के ट्रायल के दौरान दीपिका कुमारी को किसी ने धर्मेंद्र तिवारी से मिलवाया, जो कि उस वक्त टाटा आर्चरी एकेडमी में कोच थे। धर्मेंद्र तिवारी वो शख्स थे जिन्होंने सबसे पहले दीपिका के टैलेंट को पहचाना। धर्मेंद्र तिवारी दीपिका को लेकर टाटा आर्चरी अकादमी आये। यहीं से दीपिका के प्रोफेशनल करियर की शुरुआत हुई। 

जीत का सिलसिला कुछ यूं रहा 
इसके बाद दीपिका का सफर एक सपने जैसा है। दीपिका ने 2006 में मैरीदा मेक्सिको में वर्ल्ड चैंपियनशिप में कम्पाउंट एकल प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीता। ये शानदार जीत हासिल करने वाली वो दूसरी भारतीय खिलाड़ी बनीं। 2009 में महज 15 वर्ष उम्र में दीपिका ने अमेरिका की यूथ आर्चरी चैम्पियनशिप जीत कर खुद को साबित किया। फिर 2010 में एशियन गेम्स में कांस्य हासिल किया। इसके बाद इसी वर्ष कॉमनवेल्थ खेलों में महिला एकल और टीम के साथ दो स्वर्ण हासिल किये। 2010 के राष्ट्रमण्डल खेल में उन्होने न सिर्फ व्यक्तिगत स्पर्धा के स्वर्ण जीते बल्कि महिला रिकर्व टीम को भी स्वर्ण दिलाया। भारतीय तीरंदाजी के इतिहास में वर्ष 2010 की जब-जब चर्चा होगी, इसे देश की रिकर्व तीरंदाज दीपिका के स्वर्णिम प्रदर्शनों के लिए याद किया जाएगा। इस्तांबुल में 2011 में और टोक्यो में 2012 में एकल खेलों में रजत सिल्वर जीता। इस तरह एक-एक करके वे जीत पर जीत हासिल करती गयीं। इसके लिए उन्हें अर्जुन पुरस्कार दिया गया। 2016 में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने दीपिका को पद्मश्री से सम्मानित किया। बहरहाल, दीपिका आज लाखों लोगों की प्रेरणा और शक्ति का स्रोत हैं। उनको सलाम।


 

 

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