द फॉलोअप डेस्क, रांची:
घने जंगलों से घिरा ये दुर्गम इलाका। ऊंचे-ऊंचे पेड़ और सघन झाड़ियां। बीच में मटमैला पथरीला रास्ता और उस रास्ते में शायद अपनी किस्मत तलाशते ये लोग, झारखंड के पलामू जिला अंतर्गत रामगढ़ प्रखंड के रहने वाले हैं। नजारा देखिए। लगता है कि यहां पूरा गांव इकट्ठा है। क्या महिला, क्या पुरुष, क्या बुजुर्ग और क्या बच्चे। सब मौजूद हैं। जो बड़े हैं उनके हाथों में फावड़ा, गैंता, खुंती,टोकरी और रस्सियां हैं और छोटे बच्चे खाली हाथ।
ऊपर, ऊंचे पेड़ों की शाखाओं से छनकर आती तीखी धूप है और नीचे कंटीले पत्थरों का तपता ढेर। पसीने में तरबतर, लोग उस मटमैले पथरीले सख्त जमीन पर अपनी पूरी ताकत समेटकर जोर से फावड़ा, गैंता और खुंती का चोट करते हैं। चोट से शोर निकलता है और थोडा सा पत्थर औऱ मिट्टी भी। पर ये लोग कर क्या रहे हैं? ये रास्ता बना रहे हैं। लेकिन क्यों? क्योंकि, सरकार, सिस्टम और संभावना शब्द से हार चुके इन लोगों ने अपनी किस्मत अपने हाथ लिखने का फैसला किया लेकिन, क्या ये आसान है? मैं जवाब नहीं दूंगा। अभी कहानी बाकी है। जब तक रिपोर्ट चलेगी, आप देखते हुए सोचिएगा भी क्योंकि शायद, आप में से भी बहुतों की हालत ऐसी ही हो।
झारखंड के बांसडीह गांव में सड़क नहीं है
सरकारी दस्तावेजों में विकास पर क्या लिखा है? उस पर मत जाइये। राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में वादा क्या था, जाने दीजिए। नेताजी जी ने मंच से क्या कहा था, भूल जाइये। विकास कहां है, जवाब ढूंढ़ने की जरूरत नहीं। पलामू के रामगढ़ प्रखंड के इन ग्रामीणों का पहाड़ तोड़ते हुए यही नजारा सच है। देश की आजादी को 7 दशक बीत गये। झारखंड गठन को 24वां साल चल रहा है। एक ओर न्यू इंडिया का नारा है तो दूसरी तरफ विकास की नई लकीर खींच देने का बजता हुआ नगाड़ा है और शोर में ये हकीकत दब गई कि झारखंड के पलामू जिले के रामगढ़ प्रखंड के बांसडीह गांव में एक अदद सड़क नहीं है।
ऐसी एक सड़क जो ग्रामीणों को गांव से प्रखंड और जिला मुख्यालय तक पहुंचा सके। सड़क जो मृतपाय मरीज को हौसला दे सके कि वो समय पर अस्पताल पहुंच जाएगा। सड़क जो बच्चों को ये भरोसा दे सके कि दूरी की मजबूरी उनकी शिक्षा का हक नहीं छीन लेगी। सड़क जो गांव के किसान को यह उम्मीद दे सके कि वो सही समय पर सही सलामत अपनी फसल को बाजार तक पहुंचा सकेगा। सड़क जो युवाओं को कम से कम आश्वासन ही दे सके कि बेरोजगारी उनकी नियति नहीं बन जायेगी। सड़क जो बांसडीह के ग्रामीणों को ये विश्वास दे सके कि सरकारें, उनकी भी है।
चंद्रधन सिंह ने माउंटेन मैन बनकर खोदा पहाड़
आजादी के 7 दशक औऱ झारखंड गठन के 24 साल में बांसडीह के ग्रामीणों ने सैकड़ों दफा सरकार से केवल एक सड़क ही मांगी लेकिन जब प्रशासन और सत्ताधीश उदासीन बने रहे तो बिहार के गया जिले में गहलौर निवासी दशरथ मांझी की तरह खुद की माउंटेन मैन बनने का फैसला किया। आज से 3 साल पहले ग्रामीण चंद्रधन सिंह ने फावड़ा उठाया और लगे पहाड़ काटने। रास्ता दुरुह था और मुश्किलें कईं। चंद्रधन सिंह 3 साल पहले मानों जेठ में आसमान में चमकते सूरज से आंख मिलाने चले थे। मकसद था, बांसडीह से रामगढ़ के बीच 15 किमी लंबा रास्ता बनाना चाहे कच्चा ही सही। चंद्रधन सिंह बताते हैं कि उन्हें इसकी प्रेरणा गांव के एक युवक से मिली जो भारतीय सीमा सुरक्षा बल का जवान है।
रामगढ़ प्रखंड मुख्यालय जाने के लिए 160 किमी का सफर
बांसडीह से रामगढ़ प्रखंड़ मुख्यालय की दूरी महज 15 किमी है। समय लगना चाहिए महज आधा घंटा लेकिन ग्रामीणों के लिए ये मुश्किल है। रास्ता है ही नहीं। एक तो घना जंगल और ऊपर से सीधी चढ़ाई। पूरे रास्ते में बड़े और नुकीले पत्थर हैं। मानसून में पूरा रास्ता बुरी तरह से फिसलन भरा बन जाता है। थोड़ा सा पैर फिसला कि इंसान सीधा सैकड़ों फीट नीचे गहरी खाई में। दशकों तक ग्रामीण इसी रास्ते का इस्तेमाल करते रहे। एक दूसरा रास्ता भी है लेकिन वहां भी मुश्किलें कम नहीं। दरअसल, ग्रामीणों को पहले 60 किमी की दूरी तय करके डाल्टनगंज पहुंचना होता है और फिर वहां से रामगढ़। वापसी में भी इतनी ही दूरी तय करनी पड़ती है। एक अदद पक्की सड़क के अभाव में जो रास्ता महज 15 किमी का है, ग्रामीणों को उसके लिए 160 किमी चलना पड़ता है। अब जिन हुक्मरानों के लिए 1 किमी की दूरी के सफर में भी पूरा ट्रैफिक खाली करा दिया जाता हो, उन्हें इस मुश्किल का क्या ही अंदाजा होगा।
महिलायें, बच्चे और बुजुर्ग भी पहाड़ काटने में सहयोगी
बिहार के गहलौर में एक माउंटन मैन थे और झारखंड के बांसडीह में सैकड़ों। पिछले 3 साल से ये लोग रोज घर के कामकाज निपटा कर रास्ता बनाने पहुंच जाते हैं। फावड़ा, गैंता और खुंती से मिट्टी हटाते हैं। पत्थरों को तोड़ते हैं। उसे समतल करते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। कई महिलायें अपनी पीठ में बच्चा बांधकर आती हैं तो बच्चे स्कूल यूनिफॉर्म में ही श्रमदान को पहुंच जाते हैं। यहीं, सबके लिए खाना पकता है। खाना खाते हैं, थोड़ा सुस्ताते हैं और फिर जब तक तोड़ेंगे नहीं, तब तक छोड़ेंगे नहीं का नारा लगाकर पहाड़ तोड़ने में जुट जाते हैं। सरकार ने नहीं सुनी तो लोग आत्मनिर्भर हो गये। वैसे बड़े साहब ने आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया है लेकिन, महाराज, इतनी भी आत्मनिर्भरता नहीं देनी थी कि नागरिकों को खुद ही पहाड़ काटकर रास्ता बनाना पड़ जाए।
जनप्रतिनिधियों को ग्रामीणों की दिक्कत से मतलब नहीं
3 साल के अथक परिश्रम से ग्रामीण पहाड़ काटकर, जंगल साफ करके एक पथरीला ही सही पर आने जाने लायक रास्ता बना पाये हैं। यहां ट्रैक्टर और बड़े वाहन आ जा सकते हैं। मोटरसाइकल या स्कूटी चलाना, रिस्की है लेकिन क्या करें। गाड़ियां, पत्थरों पर चलते हुए खूब हिचकोले खाती है। आलोचक इसे मुश्किल कहेंगे लेकिन हुक्मरान कहेंगे ये तो आपदा में अवसर है। क्यों सोचते हो कि गाड़ी हिचकोले खा रही है। सोचो कि तुम नेचुरल पार्क में हो और हुला हूप या शी-शॉ का मजा ले रहो हो। बाइक, स्कूली वालों को वैसे ही मौत का कुआं वाली फीलिंग आती है। सरकारें इतनी बेशर्म है कि कह न दे कि, ये मुश्किल कहां, यही तो मनोरंजन है।
खैर, झारखंड के माउंटेन मैन चंद्रधन सिंह इस सड़क के लिए 3 बार सीएम चंपाई सोरेन से मिल चुके हैं। दर्जनों बार, विधायक, सांसद और बीडीओ सीओ से गुहार लगा चुके हैं लेकिन, किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। सब, आजादी का अमृत महोत्सव मनाने में बिजी हैं। सुना है कि अब अच्छे दिन 2047 में आयेंगे। डर है कि कहीं, बांसडीह के ग्रामीणों को 15 किमी लंबी सड़क के लिए और 23 साल इंतजार न करना पड़ जाए। वैसे क्या ही कहें। विकास का दावा वाला पोस्टर हवा में लटका है और नीचे जमीन पर नागरिक पहाड़ खोद रहा है।