Zeb Akhtar
गांव में साहूकारों ने उनकी जमीन हड़प ली। घर के मवेशी तक नहीं बचे। 2 वक्त की रोटी का कोई ठिकाना नहीं था। एक परिवार विस्थापित होकर गांव से 70-80 किलोमीटर दूर रांची आ जाता है। फिर शुरू होती है संघर्ष की ऐसी कहानी जो सिर्फ इस परिवार की न होकर झारखंड के हजारों लाखों परिवारों की कहानी बन जाती है। उनके अस्तित्व को बचाने की लड़ाई बन जाती है। इस लड़ाई से जन्म होता है एक ऐसी महिला से, जिसे आज दुनिया झारखंड की आयरन लेडी के नाम से जानती है। महिला, जिनको नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया फेलोशिप और काउंटर मीडिया अवार्ड, अमेरिका के 2 सम्मान लुत्ज इनडेजिनियस अवार्ड और लोवेल ग्रीली पीस स्कॉलर सम्मान से नवाजा जाता है। जी हां, हम दयामनी बारला की बात कर रहे हैं, जिन्होंने अपने 4 दशक के संघर्ष के दौरान कई ऐसे महिषासुरों का सामना किया जो न सिर्फ दयामानी बारला के रास्ते में बल्कि हजारों लाखों ग्रामीणों के जिंदा रहने के रास्ते में पहाड़ बनकर खड़े थे। उनके जल, जंगल और जमीन को निगल जाने के लिए खड़े थे।
गोहाल में सोईं और कई बार जूठन तक खाया
सच कहें तो, दयामनी बारला की कहानी किसी समतल जमीन से न शुरू होकर पथरीली पगडंडी और उन खतरनाक रास्तों की दास्तां है जिसमें एक तरफ मौत की धमकियां हैं तो दूसरी तरफ जेल जाने का खौफ। लेकिन दयामनी कभी झुकी नहीं। अपने लक्ष्य से हिली नहीं। वो जेल गयीं। परिवार से अलग रहीं। बीमार पड़ीं लेकिन जल, जंगल और जमीन को बचाने की उनकी लड़ाई लगातार चलती रही। दयामनी बताती हैं कि खूंटी जिला स्थित अपने गांव अरहारा से विस्थापित होने के बाद उनका परिवार रांची आ गया। तब उनको पढ़ाई जारी रखने के लिए अपनी मां के साथ घरों में नौकरानी का काम करना पड़ा, उन्होंने बरतन धोये, गोहाल में सोईं और कई बार जूठन तक खाया। लेकिन विस्थापन के जिस दंश को उनका परिवार झेल रहा था, वही दंश बाद में उनकी ताकत बना।
एक घंटे टाइपिंग के लिए एक रुपया मिलता था
दयामनी बताती हैं कि उन्होंने रांची में एमकॉम की पढाई कंप्लीट कर ली। तब तक वे अंग्रेजी और हिंदी में टाइपिंग भी सीख चुकी थीं। उन दिनों उनको एक घंटे टाइपिंग के लिए एक रुपया मिलता था। उन्हीं दिनों 1995 में कोयल कारो परियाजना की शुरुआत हुई थी। इससे 40-50 गांव विस्थापित होने वाले थे। दयामनी ने आदिवासी मूलवासी अस्तित्व रक्षा मंच बनाकर इसका विरोध शुरू किया। शुरुआती चरण में परियोजना के खिलाफ मुंडा जनजाति को गोलबंद किया और परियोजना से होने वाले पर्यावरण और विस्थापन संकट से लोगों को परिचित कराया। अंतत: सरकार को झुकना पड़ा और 2003 में कोयल कारो परियोजना को बंद कर देना पड़ा।
‘जन हक’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया
इसके बाद दयामनी बारला ने पर्यावरण, पेसा कानून के अधिकार, पत्थलगड़ी आंदोलन, स्टील कंपनी आर्सेलर मित्तल और टिनेंसी एक्ट को कमजोर करने की साजिश के खिलाफ राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर संघर्ष किया। इसी बीच ग्रामीण रिपोर्टिंग फेलोशिप और बैंक से 25,000 का कर्ज लेकर उन्होंने ‘जन हक’ पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। इस पैसे से 2 साल तक वो पत्रिका निकालती रहीं। हालांकि जल्द ही उनको समझ में आ गया कि हाशिये पर खड़े लोगों के लिए पत्रिका निकालना कितना मुश्किल काम है। पत्रिका का प्रकाशन बंद कर देना पड़ा लेकिन तब तक उन्होंने ‘प्रभात खबर’ में पत्रकारिता की शुरुआत की। इससे जल, जंगल और जमीन के लिए उठने वाले विरोध को बराबर आवाज मिलती रही। इसी के साथ दयामनी बारला को ये भी समझ में आ चुका था कि जनता की लड़ाई लड़ने के लिए खुद का एक आर्थिक आधार होना जरूरी है।
खर्च चलाने के लिए चाय की दुकान खोली
दयामनी ने खर्च चलाने के लिए चाय की दुकान खोली। आपको ये जानकर सुखद एहसास होगा कि रांची के सर्कुलर रोड स्थित उनकी चाय की दुकान में पत्रकार पी साईंनाथ और प्रभाष जोशी जैसी शख्सियतें आ चुकी हैं। दयामनी से आप कहीं भी मिलिये, कभी मिलिये उनकी विनम्रता और सादगी आपको अलग से मोहित करती है। इसीलिए जब उनको अमेरिका की मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी में 2023 का लोवेल ग्रीली पीस स्कॉलर सम्मान दिया गया तब उन्होंने वहां के पत्रकारों से कहा था, यह सम्मान अकेले मेरा नहीं है, बल्कि ये उन सभी लोगों का है, जो बेजुबान हैं, जो हमारे बैकग्राउंट से आते हैं, जिनकी आवाज सत्ता के लंबे गलियारों में गुम हो जाती है। यह सम्मान हाशिये पर जी रहे लोगों का है। बहरहाल, दयमामनी बारला के अदम्य साहस को सलाम।
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