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अभाव : दुमका के इस गांव में आज भी लोग बाल्टी भर पानी के लिए जाते हैं तरस, जिंदगी किसी जंग से कम नहीं

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मोहित कुमार, दुमकाः
माथे पर बाल्टी, डेकची और मटका ये कोई अनोखी दौड़ की प्रतियोगिता नहीं, बल्कि जंग है जिन्दा रहने की अपनी प्यास बुझाने की। ये कहानी किसी एक परिवार की नहीं है और ना ही कोई नई कहानी है। ये कहानी बहुत पुरानी है वो भी झारखंड की उपराजधानी की। दुमका जिले के शिकारीपाड़ा प्रखंड के खढ़ीगढ़ गांव के रहने वाले लोगों ने आज तक नल से पानी नहीं पी सकें हैं, ना हीं यहां कोई हैंडपंप है। लोग हर दिन पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए यूं हीं पांच किलोमीटर पहाड़ो से उतर कर नीचे आते हैं फिर अपने बरतन में गंदा पानी लेकर अपने गांव जाते हैं। बच्चा बुढ़ा या व्यस्क हर किसी की जीवन की एक हीं कहानी है। सुबह की शुरूआत पानी की तालाश से होती है। 


लाखों दावा हो रहे हैं फेल 
यूं तो झारखंड सरकार आदिम जनजाती के कल्याण का लाखों दावा करते हैं, लेकिन एक हकिकत ये भी है, जो ना तो सरकार को और ना हीं प्रशासन को दिखाई देता है। विलुप्त होती जा रही पहाडिया जनजाती आज भी सड़क, पानी और बिजली के लिए तरस रहे हैं। इस गंदे पानी को पीकर कोई बिमार होता है, तो गांव का खटिया हीं एमबुलेंस बन जाता है। जिन्दगी की जंग अगर कोई सिस्टम के कारण हार जाता है तो वे उसकी किस्मत है सरकार का कोई दोष नहीं।

 
जिंदा रहना किसी जंग से कम नहीं 
आप माने या ना माने आज भी झारखंड के इन गांवों में जिन्दा रहना किसी दंग से कम नहीं, वे भी ऐसी जंग जहां सामने वाले को खाली हाथ लड़ना पड़ता है। मैं यकीन के साथ कह सकता हूं आप इस खबर को भी दूसरी खबर की तरह देख भूल जायेगा, लेकिन मुझे बस इतना बता दिजिएगा कि ये भूलने की बिमारी आपको कब तक याद रहेगी।