रांची:
राज्यपाल रमेश बैस ने गुरुवार को एसोसिएशन फॉर अडवोकेसी एंड लीगल इंसेटिव्स ट्रस्ट द्वारा होटल बीएनआर चाणक्या में आयोजित बाल विवाह परिचर्चा में हिस्सा लिया। राज्यपाल ने कार्यक्रम में बाल विवाह उन्मूलन हेतु अली संस्था से जुड़कर काम करने वाली 3 बालिकाओं श्वेता कुमारी, सपना कुमारी औऱ गीता कुमारी को 2-2 लाख रुपये की प्रोत्साहन राशि देने की घोषणा की।
सामाजिक कुरीति है बाल विवाह की प्रथा
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए राज्यपाल रमेश बैस ने कहा कि बाल विवाह एक सामाजिक कुरीति है। ये किसी भी परिवार में एक बालिका के लिए व्यक्तिगत दंश की तरह है। उन्होंने कहा कि बाल विवाह समाज की उन्नति में बाधक है। राज्यपाल ने कहा कि हर शिक्षित और सभ्य समाज में बाल विवाह को चुनौती के रूप में देखा जाता है। राज्यपाल ने कहा कि बाल विवाह का मुख्य कारण आयु घटक, असुरक्षा, शिक्षा और समाजिकरण का अभाव, महिला सशक्तिकरण में बाधा तथा स्वास्थ्य संबंधी परेशानी है।
बालिकाओं का बचपन खत्म करता है बाल-विवाह
राज्यपाल रमेश बैस ने कहा कि बाल विवाह चिंताजनक कुरीति और अभिशाप है। ये बालिकाओं का बचपन खत्म कर देता है। लड़कियों की जिंदगी को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। राज्यपाल ने कहा कि बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य औऱ संरक्षण जैसे विषयों पर बाल विवाह बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। राज्यपाल ने कहा कि बाल विवाह का प्रभाव ना केवल लड़कियों पर बल्कि पूरे समाज पर पड़ता है। उन्होंने कहा कि बाल विवाह की वजह से स्कूलों में ड्रॉप-आउट जैसी समस्या उत्पन्न होती है। बच्चियां नाबालिग उम्र में ही प्रसूता बन जाती है। कम उम्र में संतान को जन्म देने से मां और संतान दोनों की जिंदगी को खतरा होता है।
बाल विवाह की वजह से स्कूलों में ड्रॉप-आउट
राज्यपाल रमेश बैस ने कहा कि मैं ये कहते हुए पीड़ा महसूस कर रहा हूं कि जब लड़कियों की उम्र पढ़ने औऱ खेलने की होती है तभी समाज की गलत सोच की वजह से उनको विवाह के बंधन में बांध दिया जाता है। विंडबना है कि ये निंदनीय प्रथा देश के सभी राज्यों में धड़ल्ले से जारी है। उन्होंने कहा कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा को निशुल्क और अनिवार्य बनाता है। अध्ययन में पता चलता है कि यदि किसी बच्ची को 15 वर्ष की आयु में स्कूल छो़ना पड़ता है तो शादी की संभावना बढ़ जाती है।
लैंगिक समानता में बाधक है बाल-विवाह की प्रथा
राज्यपाल ने कहा कि घरेलू जिम्मेदारियों के कारण प्रायः बाल वधुओं को अपनी शिक्षा छोड़नी पड़ती है। ऐसा माना जाता है कि यदि घर की महिला शिक्षित होती है तो वह अपने पूरे परिवार को शिक्षित करती है। चूंकि बाल वधू अपनी शिक्षा पूरी करने में सक्षम नहीं होती हैं, वह प्रायः परिवार के अन्य सदस्यों पर आश्रित रहती है, जो लैंगिक समानता और महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक बड़ी बाधा है। हर परिवार चाहता है कि उन्हें बहू पढ़ी-लिखी मिले, लेकिन बेटियों को पढ़ाने को तैयार नहीं है। अगर हम बेटी को पढ़ा नहीं सकते तो शिक्षित बहू की उम्मीद करना अनुचित है।
बालिकाओं को अवसर मिला तो राष्ट्रीय गौरव बनेंगी
राज्यपाल ने कहा कि आप सब जानते हैं कि महिलाओं को उचित अवसर प्राप्त होने पर उन्होंने अपनी प्रतिभा एवं कार्यों से पूरे राष्ट्र को गौरवान्वित किया है। हम सभी को उनकी उपलब्धियों पर गर्व है। अगर समाज शिक्षित हो जाएगा तो बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई अपने-आप ही समाप्त हो जायेगी। बाल विवाह जैसी कुप्रथा को दूर करने के लिये समाज के प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक होने की आवश्यकता है। देश में बाल विवाह के खिलाफ कानून एक शक्तिशाली तंत्र है, शादी के लिए वैध उम्र की सीमा तय है। बाल विवाह को रोकने के लिए सरकार और नागरिक संगठनों को मिलकर काम करने की जरूरत है।
बच्चियों के स्वास्थ्य और पोषण पर ध्यान देना जरूरी
रमेश बैस ने कहा कि जन-सहयोग के बिना बाल विवाह जैसी कुप्रथा व समाज को हानि पहुंचाने वाली अनुचित रीति का अंत संभव नहीं है। बालिकाओं के सशक्तीकरण के लिए बेहद जरूरी है कि उनका विवाह कानूनी उम्र के बाद हो, उनके स्वास्थ्य एवं पोषण की दिशा में ध्यान दिया जाय, वे शिक्षा हासिल करें और उनके अंदर निहित हुनरों का विकास हो। वर्ष 1929 का बाल विवाह निरोधक अधिनियम भारत में बाल विवाह की कुप्रथा को प्रतिबंधित करता है। विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 के तहत महिलाओं और पुरुषों के लिए विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 वर्ष और 21 वर्ष निर्धारित की गई। बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006 को बाल विवाह निरोधक अधिनियम (1929) की कमियों को दूर करने के लिए लागू किया गया था।
भारतीय संविधान देता है बच्चियों को समान अधिकार
भारतीय संविधान सभी नागरिकों को समानता, भेदभाव रहित और गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार देता है। बाल विवाह इन अधिकारों का पूरी तरह हनन करता है। एक आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2020 से जून 2020 के बीच लॉक डाउन के पहले चार महीनों में भारत में बाल विवाह के कुल 5,214 मामले दर्ज हुए।
इस सामाजिक कुरीति का कारण दहेज-प्रथा व लड़कियों के प्रति कुछ लोगों में गलत सामाजिक सोच भी है। इस तथ्य के बावजूद कि भारत में दहेज को पांच दशक पूर्व ही प्रतिबंधित कर दिया गया है, दूल्हे या उसके परिवार द्वारा दहेज की मांग करना एक आम प्रथा बनी हुई है। बेटा-बेटी एक समान’, हमारा मंत्र होना चाहिये।
सबको समझना होगा कि ‘बेटी जन्म नहीं लेगी, तो बहु कहाँ से आयेगी।‘ इसलिए हर किसी को सामूहिक जिम्मेदारी के साथ संवेदनशील एवं जागरूक होना होगा। बाल विवाह का बाल वधुओं के स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ता है, क्योंकि वे न तो शारीरिक रूप और न ही मानसिक रूप से किसी की पत्नी अथवा किसी की माता बनने के लिए तैयार नहीं होती हैं।
कम उम्र में विवाह होने से मातृ मृत्युदर का खतरा
शोध के मुताबिक, 15 वर्ष से कम आयु की लड़कियों में मातृ मृत्यु का जोखिम सबसे अधिक रहता है। इसके अलावा बाल वधुओं पर हृदयघात, मधुमेह, कैंसर और स्ट्रोक आदि का खतरा 23 प्रतिशत अधिक होता है। साथ ही वे मानसिक विकारों के प्रति भी काफी संवेदनशील होती हैं। बाल विवाह जैसी कुप्रथा का उन्मूलन सतत विकास लक्ष्य-5 का हिस्सा है। यह लैंगिक समानता प्राप्त करने तथा सभी महिलाओं एवं लड़कियों को सशक्त बनाने से संबंधित है।
लड़कियों को प्रायः सीमित आर्थिक भूमिका में देखा जाता है। महिलाओं का काम घर तक ही सीमित रहता है और उसे भी कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता है। कम आयु में विवाह करने वाले बच्चे प्रायः विवाह के दायित्वों को समझने में असमर्थ होते हैं जिसके कारण प्रायः परिवार के सदस्यों के बीच समन्वय का अभाव देखा जाता है।
कम आयु में विवाह करने से लड़कियाँ अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित हो जाती हैं। ‘बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन’ में उल्लिखित बुनियादी अधिकारों में शिक्षा का अधिकार और यौन शोषण से सुरक्षा का अधिकार आदि शामिल हैं।
बाल विवाह जैसे गंभीर विषय पर कार्यक्रम अच्छा
राज्यपाल ने कहा कि मुझे खुशी है कि आज का यह कार्यक्रम ‘बाल विवाह’ जैसे गंभीर व महत्वपूर्ण विषय पर है। यह देखकर प्रसन्नता हो रही है कि हमारे राज्य में बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीति के उन्मूलन के लिए युवतियाँ इस अभियान का नेतृत्व कर रही हैं, इस प्रकार के मुहिम की मैं सराहना करता हूँ। बाल विवाह को रोकने के लिए एकजुट होकर काम करने की जरूरत है। बालिकाओं को अपने अधिकारों के बारे में जागरूक करने की आवश्यकता है।
रूढ़िवादी सोच को जड़ से ख़त्म कर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि विभिन्न अधिकारों के प्रति लड़कियों को भी जागरूक करना होगा।