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IAS अधिकारी हो तो ऐसा : बुजुर्ग आदिवासी महिला को अपनी गाड़ी से पहुंचाया स्टेशन; पढ़िए पूरी कहानी

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द फॉलोअप डेस्क, रांची:

इस तस्वीर को जरा गौर से देखिए। ये हैं आईएएस अधिकारी रमेश घोलप। साथ खड़ी महिला का नाम है सोनमति कुंवर। सोनमति कुंवर गढ़वा के रंका की रहने वाली है और शनिवार को वित्त विभाग के संयुक्त सचिव रमेश घोलप से मिलने आई थीं। एक तस्वीर में सोनमति, रमेश घोलप को पेड़े का डब्बा भेंट कर रही हैं जो वह प्यार से लाई हैं। दूसरी तस्वीर में सोनमति, आईएएस रमेश घोलप के साथ उनकी सरकारी गाड़ी में बैठी हैं। तीसरी तस्वीर में वही पेड़े हैं जो सोनमति रमेश घोलप के लिए लाई हैं। इन तस्वीरों की कहानी क्या है। आपको बताते हैं।

हमारा साहब है, मिलेगा ही हमको। जब एक गरीब महिला एक सरकारी अधिकारी के लिए यह बात कहती है तो जनसेवक होने का सही मतलब चरितार्थ होता है। यदि दुनियादारी के आपके अनुभव से आपको भी ऐसा लगता है कि प्रशासनिक अधिकारी होना मतलब दंभी,अभिमानी, अकड़, धौंस और हनक ही होता है तो फिर आप भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रमेश घोलप के बारे में नहीं जानते। और यदि आप आईएएस रमेश घोलप को जानते हैं तो जाहिर है कि आपको लगा होगा कि देश के सारे प्रशासनिक अधिकारी रमेश घोलप जैसे क्यों नहीं हैं। आखिर, क्यों देश के सभी सरकारी अधिकारी रमेश घोलप जैसे सहज, सरल, शांत और जमीन से जुड़े क्यों नहीं हो सकते। रमेश घोलप। झारखंड कैडर के ऐसे प्रशासनिक अधिकारी जिन्होंने जनसेवक होने का सही अर्थ समझाया है। ऐसे समय में जबकि सरकारी अधिकारियों की हनक की खबरें सुर्खियां बनती हैं, रमेश घोलप अपनी सहज, सरल कार्यशैली के लिए चर्चा में रहते हैं। जमीन से जुड़ा इंसान, जड़ों की अहमियत कितना समझता है, इसकी बानगी फिर रमेश घोलप ने दर्शाई है तब, जब गढ़वा से एक महिला उनसे मिलने सचिवालय पहुंची। मामला शनिवार का है जब, वित्त विभाग में संयुक्त सचिव रमेश घोलप से मिलने गढ़वा की एक महिला पहुंची। 
आईएएस रमेश घोलप ने गढ़वा से आई आदिवासी महिला सोनमति कुंवर से मुलाकात की यह मासूम कहानी फेसबुक पर साझा की है। हम आपको पढ़कर सुनाते हैं।

हमारा साहब है, मिलेगा ही हमको.....!

"बेटा, आज सुबह से भोजन पानी त्याग दिए थे! कहे थे कि तुमको मिलेंगे तभी खाएंगे-पियेंगे। बहुत महीनों से मन था तुमको मिलने का।आज लगे रहा था कि भेट होगा की नहीं। लेकिन अब मिल लिए।"
       रांची के मंत्रालय (प्रोजेक्ट बिल्डिंग) में खोजते-खोजते मेरे ऑफिस में रांची से 220 किमी दूर गढ़वा जिले के सुदूरवर्ती रंका अनुमंडल से मिलने आयी आदिवासी दादी सोनमति कुंवर जी चाय पीते हुए बोल रही थी। उनकी आंखे भर आयी थी। मेरे ऑफिस की जो स्टाफ चाय-नाश्ता लेकर आयी उसको बोल रही थी, "बोले थे ना आपको बाहर की, हमारे नाम का काग़ज़ दे दीजिए साहब को और बोलिए की गढ़वा से आए है, वो तुरंत बुला लेगा हमको!" उसके यह कहने से मेरे चेहरे पर आयी मुस्कान देखकर बोली, "तो सही तो कहे! हमारा साहब है, मिलेगा ही हमको!" 
      वो हक से बोलती रही और मैं सुनता रहा। पिछले साल मैं गढ़वा में जिलाधिकारी था तब कुछ काम से मेरे पास आती थी। काम सही था तो आदेश किया भी था। उनके साथ मांझी जी भी थे।वह पहली बार मंत्रालय आयी थी।आते वक़्त मेरे लिए गढ़वा जिले के धुरकी प्रखंड का फेमस पेड़ा और अपनी तरफ से ढ़ेर सारी दुआएं भी लायी थी। 
     ऑफिस से निकलते वक़्त उनको भी अपनी गाड़ी में लेकर स्टेशन के नजदीक छोड़ा। वो मना कर रही थी, फिर भी जिद करके खाना खाकर जाने को बोलकर कुछ पैसे दिए।बोली मेरा नंबर रखिए अपने मोबाईल में। 
   कितने सीधे लोग है। हक से और सीधा दिल से बोल रही थी।उनको छोड़कर घर की तरफ जाते वक़्त मेरी भी आँख भर आयी थी। सर्विस में ट्रांसफर से जगह बदल जाती है लेकिन कुछ जगहें,लोग हमेशा दिल में बस जाते है।

 "दुआएँ रद्द नहीं होती, 
बस बेहतरीन वक़्त पर कबूल होती है...!"

जोहार दादी! ईश्वर आपको खुश रखे।

सोनमति कुंवर से मुलाकात की यह मासूम कहानी आईएएस रमेश घोलप ने लिखा भर नहीं है बल्कि अपने दिल में उठे उद्गार को शब्दों की शक्ल देकर कागज में उतार दिया है। अधिकारी होना और क्या होता। अधिकारी, जिसपर जनता हक जता सके। अधिकार से अपनी बात रख सके। हक से प्यार दे और हक से नाराजगी भी जताये। अधिकारी माने, जनता की मुश्किलें हल करने वाला, उनकी बात समझने वाला, उनकी दिक्कतों का समाधान करने वाला। अधिकारी ऐसा, जिसके पास जाकर लोग बिना हिचके, बिना झिझके अपनी बात कह सकें। अधिकारी, जिसके सरकारी आवास का दरवाजा हमेशा जरूरतमंदों के लिए खुला हो। अधिकारी, जो वातानुकूलित कमरे में कैद होकर ऊंची पुश्त वाली कुर्सी में बैठा न रहता हो बल्कि बाहर निकलकर धूप में 2 रोटी के जुगाड़ में लगे आम लोगों का खून और पसीना महसूस कर सके और रमेश घोलप ऐसे ही हैं। 


रमेश घोलप ने बुजुर्ग आदिवासी महिला सोनमति कुंवर से मुलाकात की कहानी के अंत में लिखा कि दुआएं रद्द नहीं होती। बस बेहतरीन वक्त पर कबूल होती है। उन्होंने सच ही तो लिखा है। कोडरमा और गढ़वा के जिलाधिकारी रह चुके रमेश घोलप को कुछ महीने पहले वित्त विभाग का संयुक्त सचिव नियुक्त किया गया था। सरकारी आदेश था। वे कर्तव्य निभाने रांची आ गये लेकिन जहां-जहां वे जिलाधिकारी रहे, वहां की जनता कहती थी। जिलाधिकारी बहुत आएंगे जाएंगे लेकिन रमेश घोलप जैसा कोई नहीं।

जहां वे नहीं गये, वहां की पब्लिक कहती है। काश, हमारा जिलाधिकारी भी रमेश घोलप जैसा होता। पूरे झारखंड का तो पता नहीं लेकिन लगता है फिलहाल चतरा की जनता की भी दुआएं कबूल हुई है। रमेश घोलप को फिर जिला मिला है। इस बार चतरा के उपायुक्त नियुक्त किये गये हैं। चतरा को ऐसा जिलाधिकारी मिला तो  वातानुकूलित कमरे में बैठकर हुक्म नहीं बजाता बल्कि जनता के बीच पहुंचता है। उनसे मिलता है। बातें करता है। उनकी थाली से ही प्यार से 2 निवाला तोड़कर खाता है।

तब समझ पाता है कि जनता का दर्द क्या है और उसका उन्मूलन कैसे होगा।

रमेश घोलप की कार्यशैली किसी पीआर का हिस्सा नहीं है और न ही ट्रेनिंग का नतीजा बल्कि महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव के रहने वाले इस व्यक्ति में ये संस्कार बचपन से ही भरे गये हैं। रमेश घोलप बेहद गरीब परिवार से आते हैं। बचपन अभाव में बीता। मां डलिया में चूड़ी लेकर गांव-गांव जाकर बेचती थीं और उसी से घर चलता था। रमेश घोलप भी कभी-कभी हाथ बंटाते।

बहुत मुश्किलें झेलकर रमेश घोलप ने भारत की सबसे बड़ी प्रतियोगिता परीक्षा पास की और अधिकारी बने। चूंकि, उन्होंने गरीबी को पढ़कर नहीं बल्कि जीकर जाना है इसलिए जमीन से जुड़ाव नहीं छूटा। यह उनकी कार्यशैली में दिखता है। गढ़वा की पब्लिक आपको बधाई।