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बयान : विश्व का सबसे विशालतम लोकतंत्र भारत का, ऐतिहासिक रूप से भी है अत्यंत समृद्ध- स्पीकर

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द फॉलोअप डेस्क
भारत का लोकतंत्र विश्व का विशालतम लोकतंत्र के साथ-साथ ऐतिहासिक रूप से भी अत्यंत समृद्ध है। आजादी के बाद वेस्ट मिनिस्टर पद्धति के आधार पर लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित की गई लेकिन चाहे वह वैशाली का गणराज्य हो अथवा सभा एवं समिति व्यवस्था हो हमारे देश के लोकतंत्र की जड़ें अत्यंत गहरी एवं व्यापक हैं। यह बातें जयपुर में आयोजित 83वें अखिल भारतीय पीठासीन सम्मेलन में झारखंड के स्पीकर रबींद्र नाथ महतो ने कही। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र का मूल आधार जनता में सम्प्रभुता का होना है। इस लिहाज से संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं में शासन के संचालन के निमित्त सबसे ज्यादा शक्तियों का निहित होना स्वाभाविक है। Seperation of Power अथवा शक्ति के पृथकीकरण के सिद्धांत को संसदीय लोकतंत्र में कड़ाई से लागू किया जाना संभव इसलिए नहीं है क्योंकि सत्ता के दो मूल स्तम्भ कार्यपालिका और विधायिका आपस में जुड़े हुए हैं। कार्यपालिका अपने आस्तित्व के लिए विधायिका पर निर्भर है। अपने कार्यों के लिए विधायिका को उत्तरदायी है। लेकिन ब्रिटिश संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था से इतर भारत में लिखित संविधान, विधायिका की सम्प्रभुता को संविधान के माध्यम से सीमित करता है। इसी परिप्रेक्ष्य में संविधान के व्याख्या की शक्ति निहित होने के कारण न्यायपालिका, विधायिका एवं कार्यपालिका दोनों के कार्यों की समीक्षा कर सकती है।

तीनों स्तंभ आपसी सामंजस्य से करें काम
हमारा समृद्ध और गौरवशाली लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है और आम जनों को इसका अधिकतम लाभ तभी मिल सकता है। जब लोकतंत्र के ये तीनों स्तंभ न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका आपसी सामंजस्य से अपने कर्त्तव्यों और अधिकारों का निर्वहन करें। न्यायिक पुर्नावलोकन की शक्ति से हमारी न्यायपालिका ने शासन व्यवस्था में गुणात्मक सुधार लाए हैं। जहां एक ओर न्यायमूर्ति पीएन भगवती एवं न्यायमूर्ति वीआर कृष्णाअय्यर जैसे न्यायधीशों ने जनहित याचिका के माध्यम से शासन को और अधिक उत्तरदायी और जवाबदेह बनाने का प्रयास किया है। वहीं, विशाखा बनाम राजस्थान राज्य विनित नारायण बनाम भारत संघ जैसे मामलों में अपनी उत्कृष्ट व्यवस्था देकर शासनतंत्र में गुणात्मक सुधार किए हैं। मौलिक अधिकारों की रचनात्मक व्याख्याओं के द्वारा शासन ज्यादा से ज्यादा लोकहितकारी बनाने का भी प्रयास न्यायपालिका ने किया है। वास्तव में संवैधानिक संस्थाएं एक दूसरे की पूरक हैं। अपने-अपने कार्य क्षेत्रों में विभक्त होने के साथ उनका मूल दायित्व आम जनों का कल्याण है जिनमें वास्तव में सम्प्रभुता निवास करती है। संसदीय लोकतंत्र में संवैधानिक व्यवस्था उस मूल समझ का निर्धारण करती है। जिसके माध्यम से उस जनकल्याण के रास्ते पर इन संस्थाओं को चलना है। इन संस्थाओं का आपसी सामंजस्य ही उस मूल उद्देश्य की ओर हम सबको ले जा सकता है। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की इस यात्रा में इन समस्याओं का आना अस्वाभाविक नहीं है परन्तु आपसी समझ और संविधान की मूल भावना में दृढ़ विश्वास से ही इसका समाधान संभव है। मुझे आशा है कि ऐसे सम्मेलनों के माध्यम से विधायिका और न्यायपालिका के बीच सामंजस्य की अवधारणा को हम और अधिक सुदृढ़ कर पाएंगे।