जगदीश्वर चतुर्वेदी, कोलकाता:
अमर्त्य सेन इस युग के भारत के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी हैं। नोबुल पुरस्कार मिलने के बाद से उनके लिखे को ज्यादा ध्यान से पढ़ा जाता है। उनकी बातों को ज्यादा ध्यान से सुना जाता है। अमर्त्य सेन ने पांच अगस्त को कोलकाता में अपनी किताब को बाजार में जारी करते हुए एक व्याख्यान 'न्याय' पर दिया। इस मौके पर दिए अपने व्याख्यान में सेन ने कहा न्याय का विचार आकर्षित करता है। न्याय की तलाश उम्मीद जगाती है। न्याय की तलाश वैसे ही है जैसे आप अंधेरे में काली बिल्ली खोज रहे हों। जबकि कमरे में बिल्ली नहीं थी। सेन के अनुसार न्याय प्रतिस्पर्धी होता है,रूपान्तरणकारी नहीं। अपने व्याख्यान में जॉन रावेल की 'न्यायपूर्ण संस्थान' की धारणा पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए कहा कि न्याय का संबंध संस्थानों की तुलना में इस बात से है कि लोग आखिरकार कैसे रहते हैं, उनका जीने का तरीका क्या है, संस्थान और कानून से ही मात्र लोग प्रभावित नहीं होते बल्कि उनके जीवन व्यवहार,एक्शन और गतिविधियों से भी लोग प्रभावित होते हैं।
सेन ने यह भी कहा कि संस्थानों का जीवन पर क्या प्रभाव होता है यह भी देखना चाहिए। जो 'रूपान्तरणकारी न्याय' की धारणा में विश्वास करते हैं वे अन्याय के खिलाफ तब तक कोई काम नहीं करते जब तक समूचा समाज दुरूस्त नहीं हो जाता। उनके अनुकूल नहीं हो जाता। इस धारणा के खिलाफ सेन ने अनेक उदाहरण देकर बताया कि कैसे गुलाम प्रथा, औरतों की पराधीनता आदि का खात्मा हुआ और कैसे संस्थानों के दुरूस्त न होने के बावजूद सामाजिक परिवर्तन की हवा चलती रही है। सेन कहना था समाज जब तक पूरी तरह सही न हो जाए तब तक लोग न्याय का इंतजार नहीं कर सकते।
अमर्त्य सेन ने एक अन्य महत्वपूर्ण बात कही है , सामाजिक और राजनीतिक तौर पर जिंदगी तब असहनीय हो जाती है यदि आप कुछ कदम नहीं उठाते। यदि आप सोचते हैं कि आदर्श स्थिति आएगी तब ही कदम उठाएंगे तो आदर्श स्थिति आने वाली नहीं है। 'दुरूस्त न्यायपूर्ण समाज' की उम्मीद में हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने से अच्छा है अन्याय की स्थितियों का प्रतिवाद करना। न्याय का सवाल सिर्फ दर्शन का सवाल नहीं है बल्कि राजनीतिक प्रैक्टिस का सवाल है। नीति बनाने वाले संस्थानों को अन्याय पर विचार करना चाहिए। सेन ने भारत में अन्याय के क्षेत्रों को रेखांकित करते हुए कहा कि बच्चों में कुपोषण,गरीबी, गरीबों के लिए चिकित्सा व्यवस्था का अभाव,शिक्षा का अभाव आदि अन्याय के रूप हैं। सेन ने कहा न्याय के लिए ज्यादा से ज्यादा सार्वजनिक संवाद में व्यापकतम जनता की शिरकत जरूरी है।
अमर्त्यसेन की नई किताब 'दि आइडिया आफ जस्टिस' मूलत:मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में न्याय को व्याख्यायित करती है। आमतौर पर हमारे अनेक बुद्धिजीवी और वामपंथी दोस्त मानवाधिकार का सवाल आते ही भड़कते हैं, मानवाधिकार संगठनों के बारे में षडयंत्रकारी नजरिए से व्याख्याएं करते हैं। सेन ने इस किताब में एक महत्वपूर्ण पक्ष पर जोर दिया है कि न्याय और अन्याय के सवाल को अदालत में ही नहीं बल्कि सार्वजनिक जीवन में खुलेआम बहस मुबाहिसों के जरिए उठाया जाना चाहिए। न्याय के विवाद के लिए खुला वातावरण जरूरी है। न्याय की धारणा का इसके गर्भ से ही विकास होगा। इस प्रक्रिया में न्याय और मानवाधिकार दोनों की ही रक्षा होगी। सार्वजनिक विवाद,संवाद का अर्थ है सूचनाओं का अबाधित प्रचार -प्रसार। यही वह बिंदु है जहां पर मुक्त संभाषण या बोलने की स्वतंत्रता का भी विकास होगा। सेन ने अपनी किताब में किताबी न्याय और संस्थानगत न्याय की धारणा का निषेध किया है।
इस प्रसंग में उल्लेखनीय है समाजवादी समाजों से लेकर अनेक पूंजीवादी समाजों में न्याय के बारे में बेहतरीन कानूनी,नीतिगत और संस्थानगत व्यवस्थाएं मौजूद हैं किंतु सार्वजनिक तौर पर अन्याय का प्रतिवाद करने की संभावनाएं नहीं हैं तो न्यायपूर्ण संस्थान अन्याय के अस्त्र बन जाते हैं। समाजवादी समाजों का ढ़ांचा इसी कारण बिखर गया। समाजवादी समाजों में यदि खुला माहौल होता और अन्याय का प्रतिवाद होता तो समाजवादी व्यवस्था धराशायी नहीं होती। न्याय के लिए बोलना जरूरी है, अन्याय का प्रतिवाद जरूरी है। अन्याय के खिलाफ बोलने से न्याय का मार्ग प्रशस्त होता है।अन्याय का प्रतिवाद अभिव्यक्ति की आजादी और सार्वजनिक तौर पर खुला माहौल बनाने में मदद करता है और इससे न्याय का मार्ग प्रशस्त होता है।
(मूलत: मथुरा के रहने वाले जगदीश्वर चतुर्वेदी हिंदी के वरिष्ठ लेखक हैं। कोलकाता विश्वविद्धालय में हिंदी विभाग के अघ्यक्ष रहे। सैकड़ो के करीब पुस्तकें प्रकाशित। संप्रति स्वतंत्र लेखन।)
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