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धरती आबा-2: आदिवासी बनाम जनजाति : दो अलग-अलग विचार का संघर्ष

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राजू मुर्मू, रांची:

उलगुलानकर्ता धरती आबा बिरसा मुंडा की जयंती और झारखण्ड राज्य के 21वीं स्थापना दिवस की सबको ढेर सारी शुभकामनाएं । इस शुभ दिवस के उपलक्ष्य पर एक अपने विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। आदिवासी शब्द का विशेषण "समूह" या "community" होता है । जनजाति शब्द आदिवासियों के लिए उपयुक्त शब्द नही है क्योंकि जनजाति शब्द का संधि विच्छेद जन+जाति = जनजाति (जन यानी मनुष्य ) तो क्या जनजाति का मूल विशेषता "मनुष्य की जाति" है क्या ? तो फिर  क्या सभी मानव जाति को "जनजाति" कहा जाए ? जी हाँ अगर शाब्दिक अर्थ से इसे समझें तो सभी जनजाति ही है । जब भारत का संविधान बनाने के लिए ड्राफ्टिंग कमिटी बनी तो उस कॉस्टिट्यूशन कमिटी में खड़े होकर जयपालसिंह मुंडा ने कहा था की- " हमें आदिवासी शब्द छोड़कर अन्य कोई दूसरा शब्द स्वीकार नहीं है।" लेकिन जब संविधान बना तो जनजाति को शेड्यूल किया गया जिसे शेड्यूल ट्राइब यानी अनुसूचित जनजाति कहा गया । कॉंग्रेस ने एक गलत काम यह किया कि जब उन समूहों को शेड्यूल किया गया जिसमें प्रिमिटिव नेचर पाया गया तो फिर क्यो नही कॉंग्रेस ने यह घोषणा की या कोई कमीशन बना कर यह घोषणा किया कि यही प्रिमिटिव ट्राइब ही इस देश का मूल मालिक है ? यहां भी कांग्रेस का एक रेसियल एटीट्यूड था ताकि शेड्यूल ट्राइब में शामिल समूहों को थोड़ी बहुत सुविधा प्रदान कर सारे संसाधनों पर कब्जा किया जा सके। 

 

आदिवासी समुदाय को परिभाषित करने के लिए जनजाति शब्द बिल्कुल उपयुक्त नहीं है क्योंकि आदिवासी समुदाय समूहवाचक है जातिवाचक नही । जातियाँ तो पशुओं में होती है मनुष्य में नहीं। विश्व के किसी भी देशों में जातिवाद या वर्णवाद नही है लेकिन कालांतर में भारत जैसे देश में भारत के लोगो को विभिन्न अलग अलग जाति और उपजाति में बांटकर उनका सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक शोषण किया गया और आज भी किया जा रहा है । जाति के आधार पर कोई मनुष्य कैसे श्रेष्ट हो सकता है ? भारत में एक तंत्र ऐसा है जिन्होंने जबरन भारत के लोगों को जातियों में बांटकर उसका खूब शोषण किया बल्कि उन मानव समूहों को तुच्छ नीच और अछूत तक बना दिया गया । शुद्र श्रेणी उन्ही मानव समूह की श्रेणी है जिनको ना तो समाज में सम्मान के काबिल माना गया ना उन्हें धन अर्जित करने की आजादी थी और ना ही श्रेष्ठ कहे जाने वाले मानव समूह के सामने सिर उठाकर अपनी बात रखने की आजादी थी । मतलब पूरा का पूरा ही गुलाम बना दिया गया। 

 

भला हो बुद्धि और ज्ञान के सागर गौतम बुद्ध ,संत कबीर ,संत नानक ,संत रैदास , बाबा ज्योतिबा फुले , माता सावित्री बाई फुले , माता फातिमा ,पेरियार , बाबा साहब अम्बेडकर जैसे बुद्धिजीवियों और चिंतकों का की भारत मे आज से 18वी और 19वी सदी में उन्होंने धार्मिक पाखण्ड जातिवाद और वर्णवाद के खिलाफ असमानता और क्रूर अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद किया। आज भी इस 21वी सदी में फिर से इस देश के लोगो को गुलाम बनाने का षड्यन्त्र जमकर किया जा रहा है। अब आदिवासी समुदाय में भी जनजागृति आ रही है । कईआदिवासी विचारक और बुद्धिजीवी खुलकर अपनी बात दुनियाँ के सामने रखने की हिम्मत कर रहे हैं। 18वी सदी से लेकर 19वी सदी तक आदिवासी नायकों ने आमने सामने की लड़ाई लड़ी । अपने जीवन का बलिदान भी दिया। लेकिन यह बड़ी शर्मनाक बात है की उनके मरणोपरांत उन्हें ना तो शहीद की उपाधि मिली और ना ही भारतरत्न से सम्मानित किया गया। तिलका मांझी से लेकर हूल क्रांति के प्रणेता सिधु-कान्हू और उनके भाई बहन के साथ सैकड़ों बहादुर ने अपनी प्राणों की आहुति दी , बिरसा मुंडा ने उलगुलान के माध्यम से आदिवासी समुदाय के बीच एक क्रांति लेकर आया लेकिन धार्मिक जातिवादी मानसिकता के लोग जो संविधान के उच्च पदों पर असीत थे और आज भी है उन्हें आदिवासी शब्द बोलने में शर्म आती है आदिवासी बोलने से पहले उनके जुबान पर दस बारह टेप चिपक जाते हैं।

 

भाजपा की सरकार द्वारा "बिरसा जयंती" को "जनजाति गौरव दिवस" के रूप में मनाने का फैसला एक षड्यन्त्र है। 15 नवंवर को ही झारखण्ड राज्य का स्थापना दिवस भी है। 15 नवम्बर 2020 को झारखण्ड भारत का 28वां संघीय राज्य में शामिल किया गया था। झारखण्ड के आदिवासियों के संघर्ष के परिणाम स्वरूप झारखण्ड राज्य की स्थापना हुई थी लेकिन दुखद बात यह हुई की झारखण्ड के स्थापना के 21 वर्ष बाद भी झारखण्ड झारखंडियों का ना हो सका। आदिवासी बनाम जनजाति का संघर्ष दो अलग-अलग सभ्यता का संघर्ष है। अब यह देखा जाएगा कि क्या भविष्य में आदिवासी शब्द भारत के संविधान में जोड़ा जाएगा या फिर आरएसएस और उसका राजनीतिक संगठन बीजेपी भारत के मूलवासी आदिवासियों को जनजाति वनवासी गिरिजन जैसे शब्दों से ही सम्बोधित करते रहेंगे। 

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( झारखंड के रहने वाले लेखक कॉस्मोह्यूमेनिस्ट हैं। )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।