(उर्दू और हिंदी दोनों ठेठ भारतीय भाषाएं हैं। दोनों का उदय भी लगभग एक साथ ही हुआ। बाद में दोनों की राहें अलग-अलग हो गईं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस रहे आनंद नारायण मुल्ला ने क्या खूब शेर कहा है, 'उर्दू और हिंदी में फ़र्क़ सिर्फ़ है इतना,हम देखते हैं ख़्वाब वो देखते हैं सपना।' हिंदी के प्राध्यापक और लेखक विनीत कुमार के आप दो संस्मरणात्मक लेख पढ़ चुके हैं कि उन्होंने उर्दू कैसे सीखी। दिन रेख़्ता की तीसरी कड़ी में पुलिस के एक आला अधिकारी की राय से रूबरू हुए। अब पढ़िये उर्दू दिवस पर दिन रेख़्ता की चौथी कड़ी इक़बाल के बहाने-संपादक)
शहरोज़ क़मर, रांची:
सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा जैसे क़ौमी तराना लिखने वाले शायर, दार्शनिक और चिंतक इक़बाल ( 9 नवंबर 1877- 21 अप्रैल 1938) की जयंती मनाई जा रही है। उनपर कभी कट्टरता ने कुफ्र का फ़तवा दिया, तो कभी उन्हें देशद्रोही तक कहने से गुरेज़ न किया। जो कहता रहा:
पत्थर की मूरतों को समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है।
या
नानक ने जिस चमन में वहदत का गीत गाया मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है।
जो ये कहने से न सकुचाया:
है राम के वजूद पे हिन्दुस्तां को नाज़
अहल-ए-नज़र समझते हैं उनको इमाम-ए-हिन्द।
मस्जिद-मंदिर को ही सिर्फ़ धर्म मान लेने वालों को उनकी लताड़:
मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमाँ के हरारत वालों ने
मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका।
वहीं मुस्लिम समाज में व्याप्त जातीय हुंकार पर उनका सवाल:
तुम सैयद हो मुग़ल हो पठान भी हो
ये भी बताओ कि मुसलमान भी हो।
इस्लाम के नाम पर की जाती रही खुराफ़ात से इक़बाल आजिज़ रहे। 18 वी सदी के सूफ़ी और विचारक शाह वलीउल्लाह को कोट करते हुए एक लेक्चर में इक़बाल ने कहा, अब वक्त आ गया है कि इस्लाम की धार्मिक विधि को बुद्धि और तर्क के लिबास में पेश किया जाए। उनका मानना था कि धर्म इंसानी आचरण में दिखे, महज़ कर्मकांड में नहीं। कहते थे, हम जदीद इल्म (आधुनिक ज्ञान) के लिए खुला ज़ेहन रखें और उसकी रौशनी में इस्लामी तालीम का मूल्यांकन करें। भले ही हमें अपने पुरखों से असहमत होना पड़े। इक़बाल को समझने की आज सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। सिर्फ़ उनके शेर याद करने से मसले नहीं सुलझेंगे, उनके वक्तन-फवक़तन दिए गए लेक्चर भी पढ़ें। और सुनिए, मुस्लिम दर्शन से उनका आशय यूनानी, ईरानी, हिन्दू और बौद्ध तत्वों के समिश्रण से बने दर्शन से था।
कुछ कहने का जी इसलिए चाहा कि सुबह-सुबह एक पत्रकार बंधु ने इक़बाल का वो गीत स्मरण कराया, जिसके बोल हैं:
चीनो-अरब हमारा, हिंदोस्तां हमारा
मुस्लिम हैं हम वतन हैं, सारा जहां हमारा।
इस गीत के आधार पर उन्हें पाकिस्तान के उदय का आविष्कारक भी बताया जाता है। दो राष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन भी वीर सावरकर कर चुके थे। दरअसल आजकल किसी भी चीज़ को देखने की दृष्टि एकांगी होती गई है। जबकि किसी भी बड़े व्यक्तित्व को समग्रता में देखे जाने की जरूरत पड़ती है। स्याह और सफेद के साथ ग्रे पहलू भी होते हैं। पैंग़बर हज़रत मोहम्मद का क़ौल रहा, अच्छी चीज़ जहां से मिले ग्रहण कर लो। दूसरे शब्दों में बुरी चीज़ को अलहिदा कर दो। यही सबब रहा कि तमाम विरोध के बावजूद इक़बाल की रचना- सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा- को भारतवासी के रोम से बाहर नहीं निकाला जा सकता।
यह भी पढ़ें
दिन रेख़्ता-़1: जब इश्क़ हुआ उर्दू से और पहचान की गठरी उतारकर ज़बान की कक्षा में हो गए दाख़िल
दिन रेख़्ता-़2: आख़िर हम भी उर्दू में पास कर गए ग़ालिब-विनीत कुमार
दिन रेख़्ता-़3: वह इत्रदान-सी एक ज़बान- दिलों में नाज़ुकी और हवा में ख़ुशबू
( देशबंधु, अमर उजाला और दैनिक भास्कर जैसे अखबारों और राजकमल व राजपाल जैसे प्रकाशनों में सेवा देने के बाद लेखक इन दिनों दी फॉलोअप के संपादक हैं। कई किताबें प्रकाशित। )
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।