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दिन रेख़्ता-़2: आख़िर हम भी उर्दू में पास कर गए ग़ालिब-विनीत कुमार

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(उर्दू और हिंदी दोनों ठेठ भारतीय भाषाएं हैं। दोनों का उदय भी लगभग एक साथ ही हुआ। बाद में दोनों की राहें अलग-अलग हो गईं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्‍टिस रहे आनंद नारायण मुल्‍ला ने क्‍या खूब शेर कहा है, 'उर्दू और हिंदी में फ़र्क़ सिर्फ़ है इतना,हम देखते हैं ख्‍़वाब वो देखते हैं सपना।' हिंदी के प्राध्‍यापक और लेखक विनीत कुमार इस संस्‍मरणात्‍मक लेख में बता रहे हैं कि उन्‍होंने उर्दू कैसे सीखी। साथ ही जु़बान की अहमियत से भी रूबरू करा रहे हैं। पढ़िये उर्दू दिवस पर दिन रेख़्ता की दूसरी कड़ी -संपादक)

विनीत कुमार, दिल्ली :

उर्दू की परीक्षा में पास( 62%) कर गया। ज़िंदगी में एक और ख़ूबसूरत चीज़ जुड़ गयी। एक हसरत रही जो पूरी हो गयी। अब उर्दू बाज़ार मेरे लिए दिल्ली का एक इलाक़ा भर नहीं बल्कि वो जगह है जहां बार-बार जाने का मन करता है। मुझे  अपनी दिल्ली थोड़ी और क़रीब लगने लगी है. अब बस थोड़ी-थोड़ी पंजाबी आ जाय, इतनी कि साइनबोर्ड पर लिखे अक्षर पढ़ सकूं और ज़िदगी में कभी इतनी फुर्सत मिल सके कि लैटिन भाषा सीख सकूं और उसी में लिखी क्लासिक पढ़ सकूं। उर्दू कोर्स ( सर्टिफिकेट कोर्स इन उर्दू ) पूरा कर पाना मेरे लिए आसान नहीं रहा। जोश में दाख़िला तो ले लिया लेकिन जब क्लास लगने के समय पर ग़ौर किया तो हाथ-पैर फूलने लगे। साढ़े आठ बजे से क्लास लगेगी। इसका मतलब मुझे घर से सात बजे निकलना होगा। सात बजे निकलने के लिए मुझे कम से कम साढ़े पाच बजे उठना होगा. नाश्ते से लेकर शाम तक सारा इंतज़ाम करके निकलना होगा। शुरु में दो-तीन दिन तो इतनी परेशानी हुई कि लगा कि इस तरह रोज चौदह कि.मी. जाकर क्लास में शामिल हो पाना मेरे लिए संभव ही नहीं है। 

 


क्लास का माहौल और आसपास का वातावरण इतना सुंदर होता

लेकिन क्लास का माहौल और आसपास का वातावरण इतना सुंदर होता कि भीतर से लगाव होने लगा। कई कैब कैंसिल और ऑटोवाले से न सुनने के बाद जब मैं आर्ट्स फैकल्टी के उस परिसर में शामिल होता तो एक बिल्कुल नयी दुनिया होती। मेरी क्लास कमरा संख्या 13 में होती। वही कमरा जहां मैंने अपनी पीएच.डी का वायवा दिया था और उसके कुछ महीने बाद मुझे डिग्री मिली। इसी तरह दो-चार कमरे जिनमें कि ऑफिस हैं, उन्हें छोड़कर बाक़ी सभी कमरे में अलग-अलग भाषा औऱ कोर्स की पढ़ाई हो रही होती. फ्रेंच, जर्मन, संस्कृत. अंग्रेजी, रूसी...आदि. सुबह का ये माहौल इतना ख़ूबसूरत होता कि मेरे लिए थिरेपी का काम करता। सार्वजनिक संस्थान में ढाई हजार-तीन हजार देकर कितना कुछ सीखा और पढ़ा जा सकता है, ये मैं नए सिरे से महसूस करता। पहले दिन जब पहुंचा तो कॉरीडोर में ही कुछ बिटुआ मिल गए। देखते ही हुलसकर आगे आए और पूछा- सर ! आप यहां सुबह-सुबह ? मैंने क्लासरूम की तरफ इशारा करके बताया कि मेरी यहां क्लास है। पहले तो उन्हें लगा कि मैं यहां कोई लेक्चर देने आया हूं लेकिन अंदर जाकर बेंच पर बैठते देखा तो एकदम से एक्साइटेड हो गए- आप भी सर ? फिर बताने लगे कि आपको मैंने यहां देखा, वहां.....सर, मज़ा आता है आपको बोलते हुए देखकर. मैं ख़ुश होने के बजाय एकदम से घबरा गया।

उर्दू कोर्स में दाख़िला लेते समय रही उधेड़बुन जब काफ़ूर हुई

उर्दू कोर्स में दाख़िला लेते समय मैं इस उम्मीद में था कि एक साल के लिए मैं ऐसी दुनिया में जी सकूंगा जहां कोई पुराना परिचित न होगा। कोई मुझे नहीं जानता होगा. कोई हेंहें टाइप की बात नहीं. मुझे बस एक भाषा सीखनी है और इसके ज़रिए कुछ नया जानना-समझना है. ख़ैर। क्लास में एक मैम आयीं जो उम्र में मुझसे दस साल बड़ी तो ज़रूर होंगी। आते ही थोड़ा ज्ञान देने लगीं कि आपलोगों को बस पास तो मिल ही जाएगा लेकिन बस पास और टाइमपास के लिए ये कोर्स नहीं है। दिल लगाकर कुछ सीखने की कोशिश कीजिएगा। उसके बाद अलिफ़ से शुरू करते हुए उर्दू वर्णमाला बताने लगीं. एक हर्फ़ी शब्द.....मुझे मैम और उनकी क्लास अच्छी लगी. समय पूरा हुआ, जाने से पहले कुछ होमवर्क दिया और अगले दिन पूरा करके लाने की बात की। क्लास ख़त्म होते ही चें-चें, पें-पें शुरु. अरे, तूने बस पास के फॉर्म भर दिए ? कहां यार. तूने एडमिशन क्यों लिया ? चचा ग़ालिब ने कहा था..हींहीं-खींखीं. अच्छा बता तो मैम ने तो कोई बुक ही सजेस्ट नहीं करा कि क्या खरीदनी है ? आपका क्या नाम है ? आप कहां से आते हो ? पहली क्लास के बाद तो ऐसे कि जैसे कल से "कुछ-कुछ होता है" की शूटिंग होनी हो और आज के आज ही राहुल-अंजली की तलाश कर लेनी हो। मेरे पास दो-तीन लोग आए। नाम पूछा और चाय पीने के लिए ऑफर किया। मैं चला गया. आर्ट्स फैकल्टी की मेन गेट पर महफ़िल जमी। वो सब लंबी बातचीत करने के मूड में नज़र आए और मैं बार-बार घड़ी देख रहा था और अंत में सॉरी बोलकर कैब बुक कर दिया। अगले दिन फिर ऐसा ही किया। चौथे दिन मैंने विकास को बताया कि मुझे इस क्लास के बाद काम पर जाना होता है जहां समय से पहुंचना ज़रूरी होता है।

 

ज़िंदगी में दिल्लगी करने के लिए फिर भी वक़्त मिल जाएगा!

अगले दिन मैम आयीं! फिर थोड़ा सा ज्ञान दिया- ज़िंदगी में दिल्लगी करने के लिए फिर भी वक़्त मिल जाएगा! लेकिन लाइफ के बारे में सोचने के लिए वक़्त कम पड़ जाते हैं. उनका इशारा कपलनुमा अंदाज़ में बैठे उनलोगों पर होता जो ऐंवे एक-दूसरे को देखकर मुस्कराते रहते! ख़ैर, कुर्सी पर बैठने के बाद होमवर्क दिखाने की बात की और सब एक-एक करके उठकर नोटबुक सामने रखकर मैम के बगल में खड़े हो गए. मेरी बारी आयी तो मैं भी खड़ा हो गया। उन्होंने चेक करने के बाद कहा- ये प्रैक्टिस छूटनी नहीं चाहिए। मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करने लगा।सप्ताह भर के भीतर उर्दू क्लास की आदत सी हो गयी। रोज तैयार होकर जाना। क्लास के बाद विकास, रुचि, नूर-ए-निशां के साथ चाय पीना और आख़िर सिप ख़त्म होते ही तेजी से कैब की तरफ भागना। ये सारे लोग समझ गए थे कि मेरा भी बहुत मन होता है साथ और वक़्त बिताने का लेकिन मैं ऐसा कर नहीं सकता। रास्ते में टेक्सटबुक की जो नज़्म या ग़जल पढ़ाई जाती, यूट्यूब पर हम उन्हें सुनते। रद्दी काग़ज को स्टेपल करके प्रैक्टिस बुक बनाते और समय मिलने पर शोशा निकालने-जोड़ने का अभ्यास करते। इस मामले में मैं थोड़ा कमजोर रहा हूं।

 

कुछ ख़ास आता-जाता ही नहीं था,क्लास में पूरे समय बिल्कुल चुप ही रहता

सब अच्छा चल रहा था। मैं क्लास में पूरे समय बिल्कुल चुप ही रहता। मुझे कुछ ख़ास आता-जाता ही नहीं था लेकिन जब पाठ पढ़ाने के दौरान उसकी व्याख्या पूछी जाती और मेरी बारी आती तो मैं ठीक-ठीक बता देता. धीरे-धीरे ये साफ़ होने लगा कि किसकी पकड़ उर्दू पढ़ने को लेकर है, किसकी उच्चारण को लेकर, कौन ठीक लिखता है, कौन ठीक से व्याख्या करता है। कुछ परिचय और दोस्ती भी गाढ़ी होने लगी। हम क्लास के बाद भी कभी-कभी आपस में बात कर लिया करते. मेरे भीतर ये जो डर था कि फच्चा( जूनियर) लोगों के बीच कैसे संतुलन बना सकूंगा, वो डर भी निकल गया जिसकी वज़ह ये रही कि आगे क्लास में यूनिवर्सिटी के कुछ रिटायर्ड अधिकारी, तीस हजारी के वकील, कॉर्पोरेट में काम कर रहे मुझे बहुत बड़े लोग भी इस क्लास में आ गए. एक-दो तो इतने संजीदे कि बस सुनो तो सुनते रह जाओ। इन सबके बीच मैम की क्लास किसी और सेक्शन में लग गयी। एक दूसरे टीचर जो ग्रामर पढ़ाते वो भी बदल गए। क्लास की लय टूट गयी और कभी कोई टीचर आते तो अगले दिन कोई और ये सिलसिला सप्ताह भर चला और फिर मैंने हारकर क्लास जाना ही बंद कर दिया। मेरे लिए इस तरह से क्लास कर पाना बहुत मुश्किल काम था क्योंकि मैं इसमें अपना पैसा, समय और इमोशन लगा रहा था।

वक़्त की क़ीमत समझनी चाहिए लापरवाही से ज़िंदगी में कुछ हासिल नहीं होता

एक दिन मेरे दोस्तों ने मुझे मैसेज किया- विनीत ! एक बहुत अच्छे टीचर आए हैं। बहुत अच्छा पढ़ाते हैं, आप आना शुरू करो, मज़ा आएगा। अगले दिन मैंने कोशिश की लेकिन हिम्मत नहीं हुई और मैं जा न सका। दूसरे दिन मैं पहुंचा तो क्लास में बीस मिनट लेट हो गया। मुझे उपर से नीचे देखने के बाद थोड़ी देर तक मुझे खड़ा रखा और फिर तंज़ भरे अंदाज़ में कहा- आ जाएं। मैं जब बैठ गया तो बेतहाशा सुनाने लगे- इंसान को वक़्त की क़ीमत समझनी चाहिए। लापरवाही से ज़िंदगी में कुछ हासिल नहीं होता, ब्लॉ-ब्लॉ। मैं सुनता रहा और फिर बेंच से उठकर कहा- सॉरी सर, आगे से देर नहीं होगी। वो नए सिरे से बिफर पड़े- सॉरी मुझे नहीं, ख़ुद को बोलिए। मुझे सॉरी बोलकर क्या हासिल हो जाएगा। उसके बाद उन्होंने पढ़ाना शुरू किया-

दुनिया में पादशह है सो है वो भी आदमी 
और मुफ़्लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी 
ज़रदार-ए-बे-नवा है सो है वो भी आदमी 
नेमत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी 
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी।

मैं कहता- डर लगता है कि ग़लत न हो जाय। वो कहते- डरा मत

ख़ुलासा करने के दौरान एक बार फिर मज़े लिए- अब देखिए, ये जो बैठे हैं, क्लास में देर से आते हैं। ये भी हैं आदमी. मैं जो आपको पढ़ा रहा हूं जो कि समय पर आता हूं, मैं भी हूं आदमी। ये सुनकर मैंने मन ही मन बुदबुदाया- व्हॉट नॉनसेंस लेकिन चुप मार गया। अगले दिन से मैं सतर्क हो गया और समय पर जाने लगा। मुश्किल दिन थे। दिनभर काम, मीटिंग, पेपरवर्क के बीच सुबह मुश्किल से उठ पाता लेकिन उस मास्टर का डर और पढ़ाने के प्रति ईमानदारी ऐसी कि मैं क्लास बंक करने या न जाने की हिम्मत जुटा न सका। ईमानदारी से पढ़ानेवाले मास्टर का हमारे दिमाग़ पर अलग ही शासन होता है. हम बाक़ी के सारे बहाने छोड़कर उन्हें गंभीरता से सुनते और अपनाते हैं। अब स्थिति ऐसी होती कि कई बार मैं पहले पहुंच जाता और अकेले बैठा होता. वो आते और बाक़ी लोगों के आने का इंतज़ार करते। व्यवहार में वो मेरे प्रति नरम होने लगे थे। क्लास में तुरंत लिखकर दिखाने का विधान ऐसा होता कि मुझे बहुत घबराहट होती। कुछ ऐसे उर्जावान होते कि इधर मश्क़( अभ्यास ) दिया नहीं कि उधर से हो  गया सर। उसके बाद क्लास में जल्दी-जल्दी पूरा करने की भगदड़ सी मच जाती। वो बारी-बारी से छूट गए लोगों के पास आते और पूछते- क्या दिक़्कत आ रही है ? मुझे लिखते हुए देखते तो कहते- आप इतना घबराते क्यों हो ? मैं कहता- डर लगता है कि ग़लत न हो जाय। वो कहते- डरा मत।

दिल्ली दंगे के बाद से वैसे भी बहुत कम क्लास में आने लग गए थे

वो हमारी आख़िरी क्लास थी। दिल्ली दंगे के बाद से वैसे भी बहुत कम क्लास में आने लग गए थे। हमारी परीक्षा कब होगी, कैसे होगी..व्हॉट्स अप ग्रुप में यही सारी बातें होती। क्लास में हम तीन-चार ही लोग थे। वो हमारा रिविजन करा रहे थे और इसी क्रम में साहिर लुधियानवी और टेक्स्टबुक में लगे पाठ की व्याख्या करने लगे-

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ल-ए-आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक़ में हो कि मग़रिब में
अम्न-ए-आलम का ख़ून है आख़िर।

उस दिन वो बहुत उदास नज़र आए। एक वाक्य पर बार-बार जोर दिया- हम सब एक ही तो हैं, फिर भी..ये सब। क्लास पूरी होने के बाद हम जो तीन चार ही थे, पूछा- आपलोग चाय पिएंगे ? मैं उन्हें पसंद करने लगा था तो हां बोल दिया। बाहर लॉ फैकल्टी की कैंटीन में बैठकर हम चाय पीने लगे और वो हमसे, हमारे बारे में पूछने लगे कि क्लास के अलावा क्या करता हूं, आगे क्या योजना है.... हमारा नंबर लिया और आश्वस्त किया कि जब भी किसी तरह की ज़रूरत हो तो बेहिचक पूछिएगा।

सब याद आ रहे हैं कितने अच्छे और यादगार दिन थे

परीक्षा की तारीख़ और डेटशीट आयी। उन्होंने मैसेज किया- आपके पास सारी चीज़ें तो हैं न ? मैंने कहा, कुछ-कुछ नहीं है सर लेकिन वो मैं रुचि और विकास से ले लूंगा। उन्होंने सारे नोट्स और पाठ की व्याख्या मुझे भेज दिए। परीक्षा के दिन सुबह-सुबह विश किया और लिखा-घबराना बिल्कुल नहीं. आप एकदम पास कर जाओगे. मैंने उन्होंने थैंक्यू सर लिखा। सालभर तक रोज सुबह उठकर उर्दू क्लास जाने के दौरान मैंने महसूस किया कि मेरा काम करने का तरीक़ा बेहतर हुआ है और मेरी क्षमता बढ़ गयी है। जिस तरह से नए परिचित और क्लासमेट ने प्यार दिया और ये जानते हुए कि मेरी दुनिया कुछ और है, मैं जॉब करते हुए ये कोर्स कर रहा हूं,फोटो कॉपी, क्लासनोट्स..इन सबकी झंझट से मुझे मुक्त रखते. जो-जो हिस्सा मेरा छूट गया था, नूर-ए-निशां बिठाकर पूरा करवाया और आख़िर में, आप परेशान न हों, हो जाएगा सब। अब जब रिजल्ट हाथ में आया तो सब याद आ रहे हैं.कितने अच्छे और यादगार दिन थे। 

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(लेखक दिल्ली के एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं। मीडिया-विश्लेषक के रूप में मशहूर हैं। इश्क कोई न्यूज नहीं और मंडी में मीडिया उनकी दो चर्चित किताबें हैं।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। सहमति के विवेक के साथ असहमति के साहस का भी हम सम्मान करते हैं।