द फॉलोअप टीम, रांची:
हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए
हम लड़ेंगे साथी, ग़ुलाम इच्छाओं के लिए
हम चुनेंगे साथी, ज़िन्दगी के टुकड़े
हथौड़ा अब भी चलता है, उदास निहाई पर
हल अब भी चलता हैं चीख़ती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता है, सवाल नाचता है
सवाल के कन्धों पर चढ़कर
हम लड़ेंगे साथी
क़त्ल हुए जज़्बों की क़सम खाकर
बुझी हुई नज़रों की क़सम खाकर
हाथों पर पड़े गाँठों की क़सम खाकर
हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे तब तक
जब तक वीरू बकरिहा
बकरियों का पेशाब पीता है
खिले हुए सरसों के फूल को
जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूँघते
कि सूजी आँखों वाली
गाँव की अध्यापिका का पति जब तक
युद्ध से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं
कि दफ़्तरों के बाबू
जब तक लिखते हैं लहू से अक्षर
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है
जब बन्दूक न हुई, तब तलवार होगी
जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी
लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की ज़रूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी
हम लड़ेंगे
कि लड़े बग़ैर कुछ नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अब तक लड़े क्यों नहीं
हम लड़ेंगे
अपनी सज़ा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जाने वाले की
याद ज़िन्दा रखने के लिए
हम लड़ेंगे।
इतिहासकार चमन लाल के बकौल लेनिन को भगत सिंह अपना आदर्श मानते थे और पाश भगत सिंह को। दोनों की जान भी फासिस्टों नेली। एक तरफ भगत सिंह को ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता ने मारा तो पाश को खालिस्तानी फासिज़्म ने। कविता के लिए कवि के प्राण ले लिए गए। आलोचक नामवर सिंह पाश की तुलना स्पेन के कवि लोर्का से करते थे, जिन्हें उनकी कविता की वजह से जनरल फ्रैंकों ने मरवा दिया था। दुनिया में ऐसे बहुत कम कवि हुए हैं, जिसे उसकी कविता की वजह से मार दिया गया हो। मौजूदा समय पंजाब के कवि अवतार सिंह पाश (9 सितंबर1950-23मार्च1988)का स्मरण बेहद जरूरी हो जाता है। आज उनकी जयंती भी है। जानिये क्रांतिकारी कवि और उसकी कविता को-संपादक
सतीश छिम्पा, सूरतगढ़:
1.
पाश जब मिल्खा सिंह की जीवनी लिख रहे थे तो उनसे काम में देरी हो रही थी तो एक दिन 'देश प्रदेश' के सम्पादक तरसेम ने उन्हें कहा कि, "पाश तूं जीवनी लिखते समय अपनी रूह में मिल्खा सिंह को बैठा लिया कर।" पाश हमे बुदबुदाते हुए कहता, "बताओ भला मैं मिल्खा सिंह को अपनी रूह में कैसे बैठा लूँ, मेरी रूह में तो बहुत अरसे से 'वो' बैठी है, तुम सबको तो पता ही है। मैं किसी और को नहीं बैठा सकता।"
2.
रात के समय किसे जगाते, हम (अवतार पाश और शमशेर सन्धु) पाश के घर की दिवार फांद के अंदर पहुँच गए क्योंकि बंटवारे के समय चौबारा बड़े भाई के हिस्से चला गया था। भीतर एक मांची थी बहुत ही ढीली, हम उस पर लेट गए, मगर नींद कहाँ... कुछ देर बाद.. ये क्या, मेरा कंधा आंसुओं से भीग गया.. हमेशा चहकते, हंसते मुस्कुराते रहने वाला पाश रो रहा है। वो कुछ समय बाद उठा और पौड़ियों पर बैठ बुदबुदाने लगा....
"हमारा परिवार यूँ ही बंट बुंट गया... बापू को मुझसे बहुत उम्मीद थी, मगर मैं अच्छा बेटा न बन सका.... बड़े भाई को मुझसे उम्मीद थी मगर मैं कमाऊ भाई न बन सका, मैं यूँ ही रहा। हर रोज़ मैं खुद का कत्ल करता हूँ.....।"
3.
पाश जब झूठे कत्ल केस में जेल में कैद थे, ये बात पुलिस भी जानती थी कि पाश बेकसूर है, मगर नक्सल लहर की दहशत इतनी थी कि पुलिस और सत्ता पाश को खतरनाक मान रही थी और एक घुप्प अँधेरी कोठड़ी में उसे बंद कर दिया गया था। जहां खटमल और अँधेरा ही उसके साथी थे और उन्ही मुश्किल दिनों में कविताएँ पाश के भीतर ठांठे मारने लगी थी। मगर कागज़ और कलम उस 'खतरनाक' आदमी को कौन देता। अपने मुलाकाती सज्जनो को उसने कहा कि "जैसे भी हो कागज़ कलम पहुँचाओ" और फिर अगली मुलाकात में एक अजीब सी तरकीब से कागज़ कलम अंदर पहुंचे। दरअसल एक खाकी और एक सफ़ेद लिफ़ाफ़े में दो सन्तरे और दो केले भेजे गए। इन्ही कागज़ों पर पाश को कविताएँ लिखनी थी और केलों में खोंसी गयी थी 2 रिफिलें।
ये जज़्बा था पाश के इंकलाबी कवि का ('इक पाश आ वी' किताब से अनुवाद सतीश छिम्पा)।
4.
तलवंडी सलेम, जिला जलंधर में जन्मे थे अवतार सिंह संधू। मगर पाश का जन्म हुआ था 1967 के नक्सल किसान उभार से, खेतों के इस बेटे ने ना सिर्फ खेतों बल्कि कविताओं में भी अपना लहू और पसीना बहाया था। पाश जो पंजाब का लोर्का थे, लोर्का की तरह ही शहीद हुए थे, मगर पाश मरा कब करते हैं, फिदेल के शब्दों में कहूँ तो " विचारों का वध सम्भव नहीं", पाश आज भी युवाओं, छात्रों के दिलों में जीवित है।
पाश की जनवरी 1982 में लिखी एक कविता
" वो मेरा वर्षों को झेलने का गौरव देखा तुमने
इस जर्जर शरीर में लिखी
लहू की शानदार इबारत पढ़ी तुमने
कविता हो ना हो, इतिहास को यूँ साँस लेते हुए
मृत शरीर की ज़िंदा लोथ के साथ
मात्र शरीर के धागे से जुड़ा होना, देखा तुमने "
5.
पाश की 11 अगस्त 1972 की लिखी डायरी का अंश: " मैं सोचता हूँ, रूस में अगर कोई लेनिन ना होता तो वहां गोर्की का पैदा होना बिलकुल ही असम्भव था। घटनाओं को संतुलित रखकर समय को आगे बढ़ाना किसी बहुत महान सियासतदान का काम है। और अगर समय ऐसे ना बढ़ता तो गोर्की की मनुष्य मात्र की अच्छाई प्राकृतिक सी होकर रह जाती। भारत में नए लेखक गोर्की से मिलते जुलते नाम रखने की कोशिश कर रहे हैं, पर यहां लेनिन कहाँ हैं। लेखक आखिर समय का पैर भी नहीं उठा सकते हैं। मनुष्यों को मुहब्बत करना बहुत मुश्किल है और इससे सुंदर कुछ भी रचा नहीं जा सकता।"
6.
डायरी 27 दिसम्बर 1971: " आज का दिन गुल दाउदी के फूलों जैसा था, सुगंध रहित। मैं इस में गुलमोहर के नक्श तलाशता हूँ।"
(तलवंडी सलेम नूं जांदी सड़क' किताब से साभार)
मदनमोहन बिजलवान, उत्तरकाशी:
पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह संधु 'पाश' की की शिक्षा मैट्रिक तक ही हुई, किंतु उनकी रचनाएँ दिल्ली विश्वविद्यालय की पंजाबी स्नातकोत्तर कक्षाओं एवं यूपीएससी के परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए गए। पाश की रचनाओं में 'लोहकथा', 'उड़दे बाजां मगर' एवं 'साडे समियां बिच' आदि प्रमुख हैं. इसके अलावा उन्होंने सियाड, हाक एवं ऐंटी-47 पत्रिकाओं का संपादन भी किया। पाश आखिरी दम तक क्रांतिकारी आंदोलनों से जुड़े रहे।जनांदोलनों के चलते वे केई बार जेल गए। खलिस्तानी आतंकवादियों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी थी। जनवरी 1988 में लिखी चर्चित एवं अन्तिम कविता के कुछ अंश:
सबसे खतरनाक होता है
श्रम की लूट सबसे खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी लोभ की मुठ्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
बैठे ठाले पकड़ जाना बुरा तो है
सहमी सी चुप में जकड़ जाना बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता
कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगुनूओं की लौ में पढ़ने लग जाना बुरा तो है
भींचकर जेबड़ बस वक्त काट लेना बुरा तो है
सबसे खतरनाक नहीं होता
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का
सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना।
सबसे खतरनाक वह घड़ी होती है
तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो
तुम्हारी नजर के लिए खड़ी होती है
सबसे खतरनाक वह आंख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी ठंडी बर्फ होती है।
सबसे खतरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाय।
और उसकी मुर्दा धूप की कोई किरण
तुम्हारे जिस्म के पूरब में डूब जाय।