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राही जयंती: मुझे काबा नहीं सिर्फ गंगौली का अपना घर याद आता है......

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हिंदी-उर्दू के पचड़े में पड़े बिना डॉ. राही मासूम रज़ा  (1 सितंबर 1925-15मार्च 1992)  खुद को हिंदुस्‍तानी का लेखक मानते है। वह थे भी ठेठ हिंदुस्‍तानी कि जब वह बीआर चोपड़ा की महाभारत का स्क्रीनप्ले लिखते हैं तो देखने वाला उनकी भाषा पर अश-अश करने लगता है। उनका एक मशहूर उपन्यास है 'आधा गांव।' जिसमें एक किरदार जब जंग के मोर्चे से अपने गांव वापस जाता है और एक मज़हबी बहस में मजबूर होकर उसे शरीक होना पड़ता है तो वो बड़ी तल्खी लेकिन सच्चाई और ईमानदारी से कहता है- मोर्चे पर जब मौत सामने होती है तो मुझे अल्लाह तो याद आता है पर सबसे ज़्यादा मुझे अपना गंगौली गांव और घर याद आता है, मुझे काबा याद नहीं आता. वो तो अल्लाह का घर है, वो उसे याद आता होगा.. मुझे तो सिर्फ गंगौली का अपना घर याद आता है। उनसे जुड़ा एक और बहुत  ही चर्चित किस्‍सा है कि एक बार राही मासूम रज़ा और लाल कृष्ण अडवाणी जी दूरदर्शन पर कोई वार्ता कर रहे थे। रज़ा ने पूछा कि भारत में कितने दंगे हुए होंगे। अडवाणी ने चालीस हज़ार के आसपास बताया। रज़ा ने कहा चलिए मान लेते हैं बीस हज़ार ही। और कहा कि आप एक ही दंगे में अपना वतन पाकिस्तान छोड़कर भाग आए और जो हज़ार दंगों के बाद भी अपना वतन, अपनी बोली-भाषा नहीं छोड़ना चाहते उन्हें आप समझाएँगे कि देशभक्ति क्या होती है। अडवाणी जी से कुछ कहते न बना। आज उसी अनूठे लेखक की जयंती है। कवि-लेखक संजय कुंदन आधा गांव के बहाने उन्‍हें याद कर रहे हैं।-संपादक

 

संजय कुंदन, दिल्‍ली:

अपनी पसंदीदा किताबों में ‘आधा गांव’ शामिल है। राही मासूम रज़ा का ‘आधा गाँव’ भाषा, शिल्प, कथ्य और कथा-विन्यास की दृष्टि से लाजवाब उपन्यास है। यह संभवतः हिन्दी का पहला ऐसा उपन्यास है, जिसमें भारत-विभाजन के समय की शिया-मुसलमानों की मनःस्थितियों का प्रामाणिक, जीवंत और सटीक चित्रण मिलता है। आज ऐसे समय में जब पूरे देश में ही सांप्रदायिक विभाजन गहरा हो गया है और हमारी हिंदू और मुस्लिम पहचान को मुखरता से स्थापित करने की कोशिश चल रही है, यह उपन्यास बहुत ज्यादा याद आता है। इसे भी मैने कॉलेज के दिनों में पढ़ा था और पढ़कर इसकी भाषा को लेकर चकित हो गया था। पहली बार एक अलग तरह के मिजाज के गद्य से सामना हुआ था। इस उपन्यास की जो असल बात मेरे स्मृति में दर्ज़ है वह यह कि एक आम भारतीय मुसलमान ने विभाजन को कभी मन से स्वीकार नहीं किया। जो पाकिस्तान गया भी, वह मन से उसी मिट्टी से जुड़ा रहा, जहां वह पैदा हुआ और पला-बढ़ा।

उपन्यास का एक उद्धरण देखिएः  
“सद्दन पाकिस्तान से गंगौली में लौटा तो उसे ख्याल आया कि वह गैर-मुल्क में कैसे हो सकता है? गंगोली एक गैर मुल्क कैसे हो सकती थी?। वह पाकिस्तान का हो गया था। पर था वह गंगौली का ही। इसलिए अब वह अपने नए मुल्क पाकिस्तान में पनाह गुज़ीन कहा जाता था। आज से पहले उसने यह नहीं सोचा था कि वह किस से भागकर वहां पनाह लेने पहुंचा था। उसका साल तो गुजर जाता , लेकिन जैसे ही मोहर्रम आता, वह उदास हो जाता।”

 


 

पाकिस्तान को पाकिस्तान के रूप में स्वीकार करना और उसे अपने मुल्क की तरह देखना भारतीय मुसलमान के लिए कभी संभव नहीं हुआ। यह उपन्यास किसी भी तरह के विभाजन के खिलाफ एक बुलंद आवाज़ है। यह एक मनुष्य को, मनुष्य के तौर पर, उसका वास्तविक घर दिलाने की प्रतिबद्धता से भरा है। उपन्यास का ताना-बाना उत्तर प्रदेश के गाजीपुर ज़िले के गंगौली गाँव को केन्द्र में रखकर बुना गया है। 1947 के परिप्रेक्ष्य में लिखे गए इस उपन्यास में साम्प्रदायिकता पर गहरा प्रहार है। इस उपन्यास में लेखकीय चिंता है कि गंगौली में अगर गंगौली वाले कम और शिया, सुन्नी और हिन्दू ज़्यादा दिखाई देने लगे तो फिर क्या होगा? यही चिंता क्या आज एक आम भारतीय की नहीं है? इस उपन्यास को याद करते हुए पूरा देश ही गंगौली नजर आता है।

(बिहार के रहने वाले लेखक वरिष्‍ठ कवि,लेखक और पत्रकार हैं। कविता- कागज के प्रदेश में, चुप्‍पी का शोर, कहानी-बांस की पार्टी, उपन्‍यास- टूटने  के बाद प्रकाशित। भारत भूषण अग्रवाल, हेमंत स्मृति कविता  सम्‍मान और विद्यापति पुरस्‍कार से सम्‍मानित। कई अखबारों में सेवाएं देने के बाद संप्रति दिल्‍ली में रहकर वाम प्रकाशन का संपादन )

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।