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भारत में कब तक पीटे जाते रहेंगे जाति-वर्ण के अलग-अलग ढोल

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प्रेमकुमार मणि, पटना: 

जाति-वर्ण जैसे विषय पर मैं विद्वत जनों का ध्यान खींचना चाहूँगा। शिक्षित समाज में  कुछ शब्दों के आपत्तिजनक प्रयोग देखने को मिलते रहे हैं। इन दिनों जब से जाति जनगणना पर सार्वजनिक बहसों का जोर बढ़ा है, तब से इन शब्दों के दुरुपयोग अधिक देख रहा हूँ। समाज का सरकारी स्तर पर वर्गीकरण अब तक इस प्रकार है। अनुसूचित जाति ( SC ),  अनुसूचित जनजाति (ST ), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC ), आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग ( EWS ) और सामान्य वर्ग ( General Class)। बोलचाल और अखबारी जुबान में अनुसूचित जातियों को पहले अछूत कहा जाता था, अब दलित कहा जाता है। अनुसूचित जनजाति आदिवासी कहे जाते हैं। EWS के लिए कोई दूसरा शब्द मेरे जानते अबतक प्रचलित नहीं है। OBC को लोग पिछड़ा वर्ग कहते रहे हैं। लेकिन यह सामान्य वर्ग सवर्ण कैसे कहा जाता है ? यह सामाजिक वर्गीकरण केवल हिन्दू समाज का नहीं है। इसमें दूसरे धर्मावलम्बी भी हैं, जैसे सामान्य वर्ग में मुस्लिम शेख, सैयद भी हैं। लेकिन केवल हिन्दुओं के समाज की भी बात करें तो इन्हे सवर्ण कहने का कोई तुक नहीं है। 

 

सच्चाई यह है कि न सामान्य वर्ग में सभी द्विज जातियां या समुदाय है और न ही अन्य पिछड़ा वर्ग में सभी शूद्र और वैश्य जातियां। विभिन्न प्रदेशों में जातियों के पृथक व्याकरण हैं। गुजरात में कुर्मी पटेल जो किसी भी तरह हिन्दू द्विज समुदाय में नहीं हैं, सामान्य वर्ग में हैं। जाट भी 1990 में मंडल आयोग की घोषणा के वक्त सामान्य वर्ग में थे। इधर शायद कुछ संशोधन हुआ है। बिहार और उत्तरप्रदेश की कुछ ब्राह्मण जातियां अन्य पिछड़ा वर्ग में हैं और गुजरात और कर्णाटक जैसे कुछ प्रांतों में राजपूत जैसी निछक्का द्विज जाति अन्य पिछड़ा वर्ग में हैं। शास्त्रानुसार कायस्थों को कभी द्विज नहीं माना गया, लेकिन वे सामान्य वर्ग में हैं। ऐसे घाल-मेल में हमें समझ बूझ कर अपनी बात रखनी चाहिए।  सामान्य वर्ग को सवर्ण कहने का कोई तुक मुझे नहीं दिखता . यूँ वैयाकरणिक रूप से सवर्ण का अर्थ होगा वह जो वर्ण के साथ हैं . शूद्र भी एक वर्ण हैं . इसलिए वह भी सवर्ण हैं . हाँ अछूत कहे जाने वाले पंचम वर्ण के लोग चातुर्वर्ण का हिस्सा नहीं हैं । उन्हें अन्त्यज कहा गया। वह ऐसे विद्रोही जनों का समाज हैं जिन्होंने वर्णधर्म की अवहेलना की है।

 


वर्ण का अर्थ हैं रंग। जब हमारा जोर रंग और नस्ल पर होता हैं, तब हम वर्ण कहते हैं ; लेकिन जब जोर जन्म पर होता हैं, तब हम जाति कहते हैं। जाति का सम्बन्ध जन्मजात पेशे से जुड़ जाता हैं। इसलिए कि मनु के विधान में पेशा चुनने का अधिकार व्यक्ति को नहीं, समाज को है। कोई व्यक्ति यदि पेशे का चुनाव स्वयं करता है, तब वह वर्णधर्म को तोड़ता है। मुग़ल और अंग्रेजी राज में द्विजों ने सबसे अधिक वर्णधर्म को तोडा। उन्होंने मुगलों और अंग्रेजों के दरबार में नौकरियां की, जो विधानत: उनके लिए करणीय नहीं थे। सेवा, चाहे वह सरकारी सेवा ही क्यों नहीं हो, ब्राह्मणों के लिए मनु के विधान के अनुसार त्याज्य होने चाहिए थे। वे शिक्षक जरूर बन सकते थे. किन्तु अवैतनिक। लेकिन क्या यह संभव है ? यदि नहीं तो फिर मनु की गठरी ढोने का क्या अर्थ ? लेकिन अफ़सोस तो इस बात का है कि जिसे मनु की दलील का सम्मान करना चाहिए था, वे मनुस्मृति को जलाते हैं और जिनके लिए मनु के विधान आज दंड हो सकते थे ,वे आँख मूँद कर उसकी वंदना कर रहे हैं। मनु के अनुसार तमाम तरह के सेवा कार्य से द्विजों को बाहर होना चाहिए।  उन्हें तो भिक्षा-दक्षिणा  पर निर्भर रहना है। संग्रह उनके लिए पाप है। उन्हें किसी तरह की कोई संपत्ति नहीं रखनी है। हम तो पुराने रिवाजों को तोडना चाहते हैं। जो शास्त्र और सनातन का ढोल पीटते हैं उनके लिए मेरे ये सवाल हैं. वे कब बदलेंगे ? मैं तो वर्णधर्म और वेद -कुरान -पुराण को ख़ारिज करने वालों में हूँ । मेरी चले तो इन्हे सार्वजनिक जीवन से बाहर कर दूँ। लेकिन जो सनातनी और तालिबानी बनकर इनकी डिंग मारते हैं ,वे इस पर अपनी राय दें तो मुझे प्रसन्नता होगी।

(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।