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अफगानिस्तान पर गंभीरता से विचार करें, लेकिन हिंदुस्तानी तालिबान पर भी सोचें

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प्रेमकुमार मणि, पटना: 

1970 के दशक में मैं युवा था। अतिशयोक्ति न हो, तो कह सकता हूँ, वह थोड़ा-थोड़ा इंक़लाब या बदलाव का दशक था। 1968 में फ्रांसीसी युवकों ने अपने सवालों को लेकर आंदोलन किया था, जिसके समर्थन में लेखक-विचारक ज्यां पाल सार्त्रे सड़कों पर आए थे। अमेरिकी साम्राजयवाद के खिलाफ वियतनाम की लड़ाई जारी थी। हमलोग नारा लगाते थे, "मेरे नाम, तेरे नाम! वियतनाम! वियतनाम! " कुछ ही समय बाद 1973 में गुजरात के छात्रों ने नवनिर्माण आंदोलन शुरू किया, जिसने बूढ़े और लगभग हाशिये पर लगे हुए पूर्व समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण को उत्साह से भर दिया। उन्होंने फ़्रांस और भारत की घटनाओं में एक संगति देखी। गुजराती नौजवानों के नाम उन्होंने एक खुला पत्र लिखा जिसे 'यूथ फॉर डेमोक्रेसी' शीर्षक से जारी किया गया। साल भर बाद बिहार में छात्रों का आंदोलन शुरू हो गया। जयप्रकाश सर्वोदयी लबादे को फेंक कर सड़कों पर आ गए। यह अलग बात है कि संघियों ने उन्हें घेर लिया और उनके अरमानों का गला घोंट दिया। लेकिन उन दिनों की घटनाओं से जो रूबरू थे, उन्हें स्मरण होगा कि मई 1974 में ही बेगूसराय या मुंगेर में जेपी ने जनेऊ तोड़ो-जाति तोड़ो का नारा दिया था। आंदोलन में आए युवाओं के निर्जातीकरण पर उनका जोर था। यह कम्युनिस्टों के निर्वर्गीकरण का हिंदुस्तानी रूप था। संघ के दबाव में जेपी ने इस अभियान पर बाद में चुप्पी साध ली। समाजवादियों में दो कदम आगे चलने के लिए तीन कदम पीछे चलने की पुरानी बीमारी है।

मेरे कहने का तात्पर्य यह था कि पचास साल बाद आज हमलोग कैसी दुनिया के बीच खड़े हैं। आज हम वियतनाम नहीं, तालिबान के नारे लगा रहे हैं। पूरी दुनिया में प्रतिगामी विचारों की आंधी चल रही है। इस आंधी में एक ही सरोकार दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रहा है, वह है पूंजीवादी सरोकार। दुनिया के नौजवान आज इस पर बात नहीं करते, बल्कि पूंजीवादी व्याकरण में ही अपने को दर्ज करने के लिए दौड़ते दीखते हैं। हमारे देश हिंदुस्तान में अम्बानी-अडानी की मनमानी पर कोई बात नहीं होती। हम लोग ज़मींदारी उन्मूलन की बात करते थे, उत्पादन के साधनों के समाजीकरण का नारा बुलंद करते थे। प्रधानमंत्री के लिबास और खर्चे का हिसाब जोड़ते थे, प्रीवी पर्स के खात्मे और बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर खुश होते थे। आज कोई नहीं है, जो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के खर्चे का हिसाब करे। अम्बान-अडानी के शाही- ठाट पर ऊँगली उठाने वाला कोई नहीं है। हम आखिर कैसी दुनिया में आ गए हैं।

 

ऐसी दुनिया में अफगानिस्तान में तालिबान आ जाए या हिंदुस्तान में आरएसएस आ जाए तो क्या आश्चर्य! जो लोग आज अफगानिस्तान में तालिबान के आने से चिंतित हो रहे हैं। वे क्या हिंदुस्तान में संघ के आने से भी उतने ही चिंतित हैं? क्या उन्हें तालिबान और संघ के मनमिजाज में कोई एकरूपता नजर नहीं आती ? हम यह क्यों नहीं विचार करते कि इन सवालों पर हमें जितना सोचना चाहिए था, नहीं सोच रहे हैं। तालिबान का मतलब है जिज्ञासु विद्यार्थी। लेकिन उनका ज्ञान खड़िए के घेरे में है। कुरआन के ज्ञान को ही वे सब कुछ मानते हैं ; जैसे हमारे यहाँ कुछलोग वेदों में ही गणित से लेकर पूरी टेक्नोलॉजी तलाश लेते हैं। एक सातवीं सदी में पूरी दुनिया को ले जाना चाहता है, दूसरा तीन हजार साल पहले के दौर में। एक मुसलमानों के सैन्यीकरण का फलसफा देता है, दूसरा हिन्दुओं के। दोनों की सोच यही है कि राजनीति धर्मकेंद्रित हो, जिसे  अंग्रेजी में थिओक्रेसी कहते हैं। यह डेमोक्रेसी नहीं है, उसके उलट है। हम डेमोक्रेसी से थिओक्रेसी के दौर में आ चुके हैं। कुल मिला कर हम मेरे नाम तेरे नाम तालिबान-तालिबान के दौर में हैं। अफगानिस्तान पर हमें पूरी गंभीरता से विचार करना है, लेकिन हिंदुस्तानी तालिबान पर भी सोचना है।

 

(प्रेमकुमार मणि हिंदी के चर्चित कथाकार व चिंतक हैं। दिनमान से पत्रकारिता की शुरुआत। अबतक पांच कहानी संकलन, एक उपन्यास और पांच निबंध संकलन प्रकाशित। उनके निबंधों ने हिंदी में अनेक नए विमर्शों को जन्म दिया है तथा पहले जारी कई विमर्शों को नए आयाम दिए हैं। बिहार विधान परिषद् के सदस्य भी रहे।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।