मनोहर महाजन, मुंबई:
जिनके गीतों के 'बोल' लोगों की ज़ुबान पर चढ़कर 'मुहावरों' में बदल जाते थे, हमारी भाषा काआकार बढ़ाते थे और हमारे एहसासात को व्यक्त करने का हमें एक नया तरीक़ा दे जाते थे। वो थे-गीतकार राजेन्द्र कृष्ण (6 जून 1919-23 सितंबर 1987) जिनका पूरा नाम राजेंद्र कृष्ण दुग्गल था। याद कीजिए! न जाने कितनी बार चुपचुप खड़े किसी अपने को, ‘चुप चुप खड़े हो, ज़रूर कोई बात है’ कहते हुए हमने छेड़ा होगा। कोई लड़की ज़्यादा होशियारी करती हुई पाई गई, तो हमने उसके लिए ‘एक चतुर नार बड़ी होशियार’ जुमला इस्तेमाल किया होगा। अपने किसी ख़ास को 'इम्प्रेस' करने के लिए ‘पल-पल दिल के पास तुम रहती हो’ वाली टिप्पणी भी चिपकाई होगी। गीतकार राजेंद्र कृष्ण का जन्म 6 जून 1919 को अविभाजित भारत के जलालपुर जाटां में हुआ था.आज यह जगह पाकिस्तान में है. पर राजेंद्र कृष्ण के गीत भारत में भी हैं और पाकिस्तान में भी. बल्कि उनके गीत तो दुनिया के हर उस कोने में अपने बोलों की शक्ल में मौजूद हैं,जहां हिंदी बोली-समझी जाती है..कविता के कीड़े ने उन्हें बचपन में ही काट लिया था, जो भी मन में आता डायरियों के पन्नों पर दर्ज करते रहते जो आगे चलकर कविता,शायरी, ग़ज़ल जैसा कुछ बन जाता.बाद में साहित्य में रुचि जागी उसका अध्ययन किया। पर साहित्य का अध्ययन उन्हें नौकरी न दे सका। 1942 में शिमला की म्युनिसिपल कार्पोरेशन में क्लर्क हो गए।
थोड़े सैटल हुए तो धीरे-धीरे भीतर का कवि आकार लेने लगा था। अख़बारों को शेर-ओ-शायरी प्रकाशन के लिए भेजने लगे। पर अब भी वो विश्वास नहीं था कि छाती ठोंककर कह सकें;’‘हां ज़नाब, मैं शायर हूं ".खैर, वो समय भी आन पहुँचा जब वो मुशायरों और कवि-सम्मेलनों में भी शिरक़त करने लगे। इनमें उन्हें 'वाहवाही' तो मिली लेकिन वैसी नहीं, जैसी राजेंद्र कृष्ण चाहते थे। बात सन 1945-46 की है। उन दिनों शिमला में बहुत बड़ा मुशायरा हुआ करता था, जिसमे हिंदुस्तान के लगभग सभी बड़े शायर शामिल होते थे। ऐसे ही एक मुशायरे में राजेंद्र कृष्ण ने अपनी पहली ग़ज़ल पढ़ी और उस पर कुछ ऐसी दाद मिली कि उन्हें अपने आपमें शायर होने का यक़ीन हो गया। ये यक़ीन दोबाला हो गया जब मंच पर पधारे आधुनिक युग के ग़ालिब: जिगर मुरादाबादी मंच पर पहुंचे और उन्होंने किसी से इस नौजवान शायर की तारीफ़ सुनकर फिर से वो ग़ज़ल सुनाने को कहा। ज्यों ही राजेंद्र कृष्ण ने 'मतला' पेश किया "कुछ इस तरह वो मेरे पास आए बैठे हैं। जैसे आग से दामन बचाए बैठे हैं। " इस मतले को सुनकर जिगर साहब काफ़ी देर तक सिर हिलाते रहे। उसी पल राजेंद्र कृष्ण ने तय कर लिया कि अब उन्हें नौकरी से इस्तीफ़ा दे देना है और पूरी तरह एक लेखक/शायर की ज़िंदगी जीनी है। राजेंद्र कृष्ण दुग्गल ने म्युनिसिपल कार्पोरेशन के क्लर्क की नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और शायर ‘राजेंद्र कृष्ण’ मुंबई चले आए। उनके ज़हन में जिगर मुरादाबादी का दाद में देर तक हिलता हुआ सिर था, जो हर वक़्त उनमें आत्मविश्वास जगाता रहता था। उन्हें कहीं भीतर बहुत गहरे में इस बात का विश्वास था कि जिगर साहब ने मान लिया है, तो दुनिया भी मान ही लेगी।
इस बीच 1947 में देश आज़ाद हुआ और 1947 में ही उन्हें किशोर शर्मा निर्देशित फिल्म 'ज़ंजीर' में गीत लिखने का मौक़ा मिला। इसके बाद उन्हें फ़िल्म ‘जनता’ की पटकथा लिखने को मिली जिसके संगीत-निर्देशक थे:कृष्ण दयाल और गीत-पंडित फ़ानी,ग़ाफ़िल, लालचंद बिस्मिल और राजेंद्र कृष्ण ने लिखे थे। 1948 के शुरू होते ही महात्मा गांधी की हत्या के बाद उनका लिखा गीत "सुनो सुनो ऐ दुनियावालों बापू की ये अमर कहानी" घर घर गूंजने लगा। यूं लगा जैसे भारत के रुंधे हुए गले को राजेंद्र कृष्ण ने आवाज़ दे दी हो.पूरा देश इस गाने की ताल पर रो पड़ा। ये पहला मौक़ा था,जब किसी गीतकार ने भारत की सामूहिक चेतना को आवाज़ दी थी। फिर इसके बाद ऐसे कई मौके आये जब देश राजेंद्र कृष्ण के गीतों में डूबा, उतराया, लहराया। 1948 में बनी फ़िल्म ‘प्यार की जीत’ का सुरैया की आवाज़ में गाया गया गीत ‘तेरे नैनों ने चोरी किया मेरा छोटा सा जिया परदेसिया’ किसी लोकगीत की सी अहमियत रखता है। 1949 में आई फ़िल्म ‘बड़ी बहन’, जिसमे राजेंद्र कृष्ण का मशहूर गीत ‘चुप-चुप खड़े हो जरूर कोई बात है, पहली मुलाकात है ये पहली मुलाकात है’ लता मंगेशकर और प्रेमलता की आवाज में गाया गया। इस गीत ने उस समय के युवाओं को दीवाना कर दिया। गली, नुक्कड़, चौराहों से लेकर मंदिर और कोठों तक ये गीत गाया। पूरा देश राजेंद्र कृष्ण की कलम के मोहपाश में बंध गया था। इस गीत की सफलता से खुश होकर फ़िल्म निर्माता-निर्देशक डी.डी. कश्यप ने राजेंद्र कृष्ण साहब को 'ऑस्टिन कार' बतौर इनाम दी थी.ये कार उस समय बड़े बड़े लोगों का 'प्रेस्टीज सिम्बल' हुआ करती थी। यही नहीं डी डी कश्यप ने उन्हें गीत लिखने के लिए 1000/- रुपये माहवार पर नॉकरी भी दे दी।
1949 में ही कमाल के गीत लेकर आई फ़िल्म "लाहौर" जिसके गीत 'दुनिया हमारे प्यार की यूँ ही जवां रहे' और 'बहारें हमको ढूंढेंगी न जाने हम कहां होंगे' ने उन्हें क़ामयाबी के शिखर पर ला खड़ा किया। इन गीतों ने राजेंद्रकृष्ण को उस दौर के मक़बूल गीतकार डी एन मधोक और क़मर जलालबादी के समकक्ष ला खड़ा किया। 1951 में आई फ़िल्म ‘बहार’ में शमशाद बेगम का गाया गीत ‘सैंया दिल में आना रे, आके फिर न जाना रे, छम छमाछम छम’ इतना मकबूल हुआ कि उस समय की महिलाएं और प्रेमिकाएं अपने पति और प्रेमी से इसी गाने को गाकर मनुहार करतीं थीं। आज भी इस गीत का जादू सर चढ़ कर बोलता है। 1953 में फिल्म ‘अनारकली’ आई, जिसके गीत हसरत जयपुरी शैलेन्द्र और राजेंद्र कृष्ण ने लिखे थे। राजेन्द्र कृष्ण के लिखे 2 मार्मिक गाने: 'ये ज़िन्दगी उसी की जो किसी का हो गया' और ,"ज़िन्दगी प्यार की दो चार घड़ी होती है" बड़े मशहूर हुए थे और आज भी गुनगुनाये जाते हैं। इसी साल फिल्म ‘लड़की’ रिलीज हुई, जिसमें एक से बढ़कर एक गीत थे। ‘मेरे वतन से अच्छा कोई वतन नहीं है/ सारे जहां में ऐसा कोई रतन नहीं है’, ये गीत बहुत मशहूर हुआ। हर देशभक्त उस वक़्त इस गीत को गाता हुआ मिल जाता था। नारी-सशक्तिकरण का एक गीत इसी फिल्म में था, ‘मैं हूं भारत की नार, लड़ने मरने को तैयार, मुझे समझो न कमजोर, लोगों समझो न कमजोर’. इस गीत को जितने बल के साथ राजेंद्र साहब ने लिखा था, उसी तेवर के साथ लता जी ने गाया भी था। पूरे देश में महिलाएं इस गीत से अज़ब सा तेज और ओज प्राप्त करतीं थीं।
लतामंगेशकर, सी. रामचन्द्र और राजेंद्र कृष्ण की तिकड़ी जब भी एक जगह जमा हुई है तो एक से बढ़कर एक दिलकश और दिलफ़रेब रचनाओं जन्म हुआ है। इस तिकड़ी की फ़िल्म 'अनारकली' के गीत ‘मोहब्बत ऐसी धड़कन है जो समझाई नहीं जाती’ को भला कौन भुला सकता है? 1954 में आई ‘नागिन’ फिल्म का गीत ‘मेरा मन डोले, मेरा तन डोले’, ‘मेरा दिल ये पुकारे’ और ‘जादूगर सैंया छोड़ो मोरी बहिंयां हो गई आधी रात, अब घर जाने दो’ आज भी दिल में बसा है और हमारे पसंदीदा गीतों में शुमार है। फ़िल्म ‘देख कबीरा रोया’ (1957) का गीत ‘कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झंकार लिए’ और इसी साल आई फिल्म ‘गेटवे ऑफ़ इंडिया’ फिल्म का गीत ‘सपने में सजन से दो बातें की एक याद रही, एक भूल गए’ और ‘भाभी’ फिल्म का गीत ‘चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना’ हिंदी गीतों की मक़बूलियत की मिसाल हैं। राजेंद्र कृष्ण पूरे पचास के दशक में छाए रहे। 1961 में आई फ़िल्म ‘संजोग’ का गीत ‘वो भूली दास्तां लो फिर याद आयी’ और 1962 की फिल्म ‘मनमौजी’ का किशोर कुमार की अल्हड़-खिलंदड़ अंदाज़ में गाया गया गीत ‘जरूरत है, जरूरत है, जरूरत है, एक श्रीमती की, कलावती की, सेवा करे जो पति की’ आज भी उतनी ही मस्ती और चाव से गाया जाता है।जितना उस दौर में गाया जाता था। ये गीत समय के पाश में नहीं बंधता और समय के साथ-साथ अमर होता चला जा रहा है। राजेंद्र साहब ने ‘जहांआरा’ (1964), ‘नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे’ (1966) और ‘पड़ोसन’ (1968) के बेहतरीन गीत लिखे। साठ और सत्तर के दशक में राजेंद्र कृष्ण ने फिल्मों की कहानी, संवाद और पटकथा ज्यादा लिखी और अपने काम से सबको चौंकाते रहे। फिल्म ‘गोपी’ (1970) के लिए लिखा गीत ‘सुख के सब साथी दुख का न कोय’ घर-घर में जीवन का दर्शन बताने और अपने से छोटों को सिखाने-समझाने के लिए आज भी प्रयोग किया जाता है।
राजेंद्र कृष्ण को घोड़े की दौड़ का ख़ासा शौक़ था। उन्हें सत्तर के दशक में 46 लाख का इनकम टैक्स फ्री जैकपॉट घोड़े की दौड़ में मिला। ये राजेंद्र कृष्ण साहब की किस्मत थी, जिसने उन्हें उस दौर का सबसे अमीर लेखक बना दिया था.राजेंद्र कृष्ण ने फिल्मों के लिए हज़ारों गीत लिखे. करीब सौ से ज्यादा फिल्मों की कहानी, संवाद और पटकथा लिखी,जिसमें कुछ मशहूर फ़िल्में ‘पड़ोसन’, ‘छाया’, ‘प्यार का सपना’, ‘मनमौजी’, ‘धर्माधिकारी’, ‘मां-बाप’, ‘साधु और शैतान’ जैसी फ़िल्में हैं। राजेंद्र कृष्ण साहब को तमिल भाषा पर भी अच्छा अधिकार था. वह तमिल फिल्मों की पटकथा भी लिखा करते थे. उन्होंने करीब अठारह तमिल फ़िल्में AVM Studios के लिए लिखीं। राजेंद्र कृष्ण साहब ने लगभग सभी बड़े संगीत निर्देशकों के साथ फ़िल्में कीं,पर उनकी जोड़ी ख़ासतौर पर सी. रामचंद्र के साथ रही। यूं तो राजेंद्र कृष्ण साहब के गीतों को करीब-करीब सभी पार्श्व गायकों ने गाया, पर सुरैया, लता, किशोर, मुहम्मद रफ़ी,और मन्ना डे ने राजेंद्र कृष्ण के गीतों अलग सी ऊंचाई तक पहुंचाया.राजेंद्र कृष्ण अपने आखिरी दिनों तक काम में मशगूल रहे.उन्हें लगातार काम मिलता रहा और वह काम करते रहे. काम भी ऐसे, जो दिलों में बस जाएं और हम याद भी न करना चाहें, तो भी बरबस याद आ जाएं. उनकी आख़री फ़िल्म ‘आग का दरिया’ थी, जिसके लिए वह गीत लिख रहे थे. यह फ़िल्म उनकी मृत्यु के दो साल बाद 1990 में रीलीज़ हुई। राजेंद्र कृष्ण साहब का निधन 23 सितम्बर 1987 को मुंबई में हुआ। आज राजेंद्र कृष्ण हमारे बीच नहीं है, लेकिन वो हमारे भीतर कहीं गहरे बसे हुए हैं। हमारी भाषा में घुले हुए हैं और हमारी अभिव्यक्ति में मिले हुए हैं। हम संगीतप्रेमियों दिल में वो कल भी थे, आज भी हैं और आने वाले कल भी रहेंगे।
(मनोहर महाजन शुरुआती दिनों में जबलपुर में थिएटर से जुड़े रहे। फिर 'सांग्स एन्ड ड्रामा डिवीजन' से होते हुए रेडियो सीलोन में एनाउंसर हो गए और वहाँ कई लोकप्रिय कार्यक्रमों का संचालन करते रहे। रेडियो के स्वर्णिम दिनों में आप अपने समकालीन अमीन सयानी की तरह ही लोकप्रिय रहे और उनके साथ भी कई प्रस्तुतियां दीं।)
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