logo

Edit-Desk: शरीयत के नाम पर तालिबान को बर्बरता की छूट कैसे!

12465news.jpg

शहरोज़ क़मर, रांची:

एक कहानी शुरू में। आंधी के डर से एक व्यक्ति पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। उधर से गुज़रने वाले दूसरे व्यक्ति ने उससे कहा, यहां से हट जाओ। क्योंकि आंधी-तूफ़ान में पेड़ पर ही बिजली गिरने का ख़दशा (आशंका) रहता है। उसका जवाब था, मेरा अल्लाह मालिक है। उसके बाद दो और लोगों ने उसे वहां से हट जाने की ताकीद की। लेकिन उसका रटा-रटाया जवाब रहा, उसे कुछ नहीं होगा। उसका रब मालिक है। आख़िर तेज़ तूफ़ान के बीच बिजली उस पेड़ पर गिरी और उस शख़्स की मौत हो गई। ये सब कुछ ख़ुदा के एक बंदे के सामने हुआ। उसने मौलाना रूमी से कहा, जिस आदमी का यक़ीन अपने रब पर इतना था, लेकिन उसकी जान चली गई। मौलाना रूमी ने जवाब दिया। उसे बचाने के लिए अल्लाह ने तीन आदमी भेजे थे, पर वो ज़िद पर अड़ा रह गया। और अपनी बर्बादी कर ली (हिकायत रूमी पेज 144)।


यही हाल उनका है, जो आज तालिबान का समर्थन कर रहे हैं। वे आंधी को देख नहीं रहे हैं, और पेड़ नुमा तर्क यह है कि तालिबान ने अपने मुल्क को विदेशी ग़ुलामी से आज़ादी के लिए जंग की। चलिए मान लेते हैं। लेकिन तालिबान तो उस साम्राज्यवादी अमेरिका से भी गए गुज़रे साबित हो रहे हैं। नाटो की सेना जिस भी हालत में आई, लेकिन हुकूमत अफ़ग़ानियों की ही रही। और चुनी हुई सरकार ने ही सत्ता संभाली। 20 सालों में चुने हुए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हुए। जनता को जीने की आज़ादी थी। लड़कियों को पढ़ने से किसी ने रोका नहीं था। यह बताने का आशय अमेरिका का समर्थन बिल्कुल नहीं। उसकी बर्बरता की मज़म्मत (निंदा) हर कोई करता है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि ताड़ से गिरे खजूर पर अटके। तालिबानी को बर्बरता की छूट नहीं मिल सकती और वो भी शरीयत के नाम पर। तालिबानी ख़ुद को इस्लामिस्ट मानते हैं तो यह क्यों नहीं मानते कि पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद ने लड़कियों को तालीम देने की ताकीद की थी। उनकी हदीस है कि एक लड़की को पढ़ाना एक ख़ानदान को पढ़ाने के बराबर है।

 

 तालिबानी बार-बार शरीयत (इस्लामी विधि-विधान) का हवाला दे रहे और उनके अंधभक्त भी फूल कर कुप्पा हुए जा रहे हैं, तो जान लें शरीयत के बक़ौल हथियार के बल पर ज़ोर-ज़बरदस्ती से हुकूमत चलाना नाजायज़ है। क़ुरआन में हुकूमत के संबंध में हुक्म है, अमरहुम शूरा बैनहुम। यानी हुकूमत की बुनियाद अवाम की रज़ामंदी है। इसे ही मौजूदा मुहावरे में जम्हूरियत (लोक तंत्र) कहते हैं। ख़लीफ़ा हज़रत उमर ने भी कहा था, ला ख़िलाफ़त अल बशरतुन मोमेनीन (बुख़ारी)। इसके भी मायने यही हैं लगभग कि हुकूमत में जनता की सहमति पहली शर्त होनी चाहिए। इस्लामी रूह से बंदूक की ताक़त से हुकूमत बिल्कुल नाजायज़ है। बादशाहत की मंज़ूरी इस्लाम नहीं देता। लेकिन सियासी लाभ के लिए मज़हब का बेजा इस्तेमाल करने की इजाज़त हालात के मद्देनज़र दे देने से वो जायज़ क़रार नहीं दिया जा सकता। जैसे सऊदी हुकूमत भी इस्लामी नज़रिए से जायज़ नहीं। वहां भी जब बादशाहत ताक़त के ज़ोर पर आई। सल्तनत उस्मानिया का खात्मा हुआ तो हिंदुस्तान से भी मौलाना मोहम्मद अली जौहर और मौलाना सैयद सुलेमान नदवी जैसे आलिमों ने सऊदी के लोगों से जम्हूरी हुकूमत क़ायम करने की सलाह दबाव की शक्ल में दी थी, लेकिन सत्ता के नशे में चूर सऊद परिवार ने इसे नहीं माना। इसका मतलब क़तई नहीं हो जाता कि वे सही हैं। जैसे तालिबान, न ही उसने अबतक चुनाव कराने की घोषणा की है और न ही मुल्क के सभी समाज का वो प्रतिनिधित्व ही करता है। क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में  पख्तून, पश्तून, ताजिक, हज़ारा, उज़्बेक, बलूच, तुर्कमेन, नूरीस्तानी, पामिरी, अरब, गुर्जर, ब्राहुई, क़िज़िलबाश, ऐमाक और पशाई आदि क़रीब 14-15 क़बायली समूह रहते हैं। इनमें  सुन्नी, सूफ़ी और शिया भी हैं। मगर तालिबान इनमें केवल एक की नुमाइंदगी (प्रतिनिधित्व) करता है और वो है पख्तून (पश्तून) सुन्नी।

कुछ इतने अंधभक्त हैं, कि वो तालिबान के काबुल के क़ब्ज़े को मक्का फ़तह (विजय) से जोड़ने लगे। जबकि वे यह नहीं जानते होंगे कि रसूलल्लाह की अगुवाई में 10 साल के मुहायदे (समझौते) के ख़त्म होने के बाद जब उनके चाहने वाले मक्का में दाख़िल (प्रवेश) हुए तो रसूलल्लाह ने एलान किया, कोई कामगार, मज़दूर, किसान, औरत, बुजुर्ग और बच्चे पर हमला नहीं करेगा। और जो भी अपने घर पर हैं, वे भी महफूज़ हैं। न ही उन्हें कोई सज़ा दी जाएगी, जिन्होंने मुख़ालिफ़त (विरोध) में जंग की। और यहां तालिबान के आने के बाद इतनी दहशत पसर गयी कि जहाज़ के चक्के पर भी बैठकर मुल्क छोड़ने को सभी आमादा हो गए। सभी दफ़्तर बंद हो गए। स्कूल-कॉलेज बंद। औरतों को काम करने से रोका गया। सहाफी (पत्रकार) और फ़नकार (कलाकार) की जान ली जाने लगी। अब तक क़रीब दो लाख लोग अफगानिस्तान छोड़ चुके हैं। गर तालीम (शिक्षा) वाले तालिबान होते तो इतना तो ज़रूर इल्म होता कि किसी की हक़-तल्फ़ी ( अधिकार-हनन) सबसे बड़ा गुनाह है। कहने को रोज़ उसके प्रवक्ता चिकनी चुपड़ी बातें करते हैं। खुद को मॉडरेट और लिबरल दिखाने की कोशिश करते हैं। ऐसे भ्रमजाल में वही फँसते हैं, या फँसाते हैं जिन्हें धर्मान्धता रास आती है। जिन्हें नारे लगाती भीड़ की अराजकता लुभाती है। संगठन का सैन्य करण उनकी योजना में शामिल होता है। तालिबान के पिछले दौर में मानवाधिकार की जिस तरह हिंसक बखिया उघेड़ी गयी थीं, अफ़ग़ानियों ने वो काली रात नहीं भूली है। एक नस्ल इल्म (शिक्षा) से वंचित कर दी गई। आज अफगानिस्तान की आबादी में 75 फ़ीसदी युवा हैं, आप उन्हें फिर उसी अंध कूप में धकेलना चाहते हैं, जहाँ मज़हब के रैपर में उज्जड्ड क़बीलाई हिंसक खेल है। जहाँ एक औरत महज़ खिलौना है, उसका अपना वजूद नहीं। और सब शरीयत के बहाने, बिना शरीयत जाने। तालिबानी ज़हनियत (मानसिकता) के लोग भी जान लें कि शरीयत हुक्मरां (शासक) और जनता के लिए अलग-अलग है। और किसी के भी निजी मामले में शासक की ओर से दख़ल देने की मनाही शरीयत में है। सरकार के मामले में शरीयत में दो तीन बातें अहम हैं, पहला हुक्मरां का चुनाव सर्व सम्मति से हो। दूसरा उसका फ़र्ज़ है कि वो अवाम के अधिकार की रक्षा करे। उसके जान-माल की रक्षा करे। और किसी अवाम के निजी मामले में दखल न दे। यह सब क़ुरआन के मुताबिक़ है। यह हक़ शासक को शरीयत हरगिज़ नहीं देती कि वो कहे कि आप इतनी दाढ़ी रखें, इतना पर्दा करें, यहां जाएं और वहां न जाएं। ये निजी मामले व्यक्ति अपने अनुसार करता है। यदि वो मुस्लिम है और शरीयत में दर्ज चीजों पर अमल नहीं करता तो उसका हिसाब कोई हाकिम (शासक) नहीं ले सकता, अल्लाह को ही यह अधिकार है सिर्फ़। लेकिन आज हाल यह है कि कोई भ्रष्ट हो, बेईमान हो, नाप तौल में डंडी मारता हो तो उसके ख़िलाफ़ कोई नहीं बोलता, लेकिन जब वही किसी लड़की के सर पर दुपट्टा नहीं है तो शरीयत की दुहाई देने लगता है। यह शरीयत के कथित ठेकेदार तालिबानियों को अफ़ीम का धंधा करते वक़्त शरीयत याद नहीं आती।

 

कुछ लोग तर्क दे रहे हैं कि तालिबानी हुकूमत को पिछले दौर में तीन मुस्लिम मुल्कों ने मान्यता दी थी अब तो चीन और रूस जैसे मुल्कों के साथ पाकिस्तान तो है ही और भी मुल्क देने वाले हैं। सम्भव है अमेरिका भी दे दे, लेकिन इससे तालिबान के गुनाह धुल नहीं जाएंगे। और जान लीजिए समर्थन देने वाले सभी मुल्कों के अपने स्वार्थ हैं, उन्हें अपने देश में अलगाववादी शक्तियों को परास्त करना है, उनके ऐसे राज्यों की सीमा अफगानिस्तान से लगती है। उन्हें डर है कि कहीं तालिबान उनके मुल्क में दख़ल न देने लगे। क्षेत्रफल के हिसाब से पाकिस्तान का सबसे बड़ा सूबा बलूचिस्तान है। उसकी अलग देश की मांग पुरानी है। वहीं तालिबान पहले ही पाकिस्तान में पाकिस्तानी तालिबान के तौर पर मौजूद हैं। बलूचिस्तान का इलाका पूरी तरह अफगानिस्तान से लगा हुआ है। इसके अलावा पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा सूबे में भी तालिबान का प्रभाव है। पाकिस्तान नहीं चाहता कि उसके यहां भी कोई हिंसक आंदोलन चले, इसलिए तालिबान हुकूमत से दोस्ती ज़रूरी है। उधर चीन का शिनजियांग है, जहां उइगर मुस्लिम रहते हैं। चीन उनके आंदोलन को दबाने के तमाम प्रयास कर रहा है। तालिबानियों को समर्थन उसका इसी शर्त पर है कि वे शिनजियांग में किसी भी धड़े को सपोर्ट नहीं करेंगे। रूस भी उससे अलग हुए मुस्लिम देशों के अतिवादियों से चिंतित है, वो भी तालिबान से उनकी सुरक्षा चाहता है। इन सबके बावजूद अफगानिस्तान की धरती में छुपे खनिज पर सभी की गिद्ध दृष्टि है। सभी देश के अपने-अपने हितसाधक उपाय-सूत्र हैं। पाठक जानते ही होंगे कि चीन में उइगर मुसलमानों पर चीन का ज़ुल्म लगातार जारी है, लेकिन मुस्लिम मुल्क चुप्पी साधे रहते हैं। जबकि उन्हें कश्मीर और फ़िलस्तीन तुरन्त याद आ जाता है। उनकी चुप्पी का मतलब यह नहीं होता कि ज़ुल्म नहीं हो रहा, जैसे दूसरे देशों के तालिबान को मान्यता देने का मतलब यह नहीं होता कि उसकी बर्बरता को क़ुबूल कर लिया जाए।