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साबरमती का संत-38: गांधी के वक्त इंटरनेट, कम्प्यूटर, दूरसंचार वगैरह की दुनिया इतनी समुन्नत नहीं थी

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(‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ - आइंस्टीन ने कहा था। आखिर क्षीण काया के उस व्यक्‍ति में ऐसा क्या था, कि जिसके अहिंसक आंदोलन से समूची दुनिया पर राज करने वाले अंग्रेज घबराकर भारत छोड़ गए। शायद ही विश्व का कोई देश होगा, जहां उस शख्सियत की चर्चा न होती हो। बात मोहन दास कर्मचंद गांधी की ही है। जिन्हें संसार महात्मा के लक़ब से याद करता है। द फॉलोअप के पाठक अब सिलसिलेवार गांधी और उनके विचारों से रूबरू हो रहे हैं। आज पेश है,  38वीं किस्त -संपादक। )

कनक तिवारी, रायपुर:

गांधी के वक्त इंटरनेट, कम्प्यूटर, प्रक्षेपास्त्र, दूरसंचार वगैरह की दुनिया इतनी समुन्नत नहीं थी। इसलिए 1909 में गांधी ने मशीनीकरण के सीमित प्रतीकों, रेलों, अस्पतालों और अदालतों को विनाश का प्रतीक बनाकर अपना तर्कमहल खड़ा किया। उसमें उन्होंने कई भविष्य वातायन खुले भी रखे, परंतुक भी लगाए और विकल्पों से भी परहेज नहीं किया। गांधी की मशीन-दृष्टि हिन्दुस्तान में गहरी आलोचना, चिंता और असहमति का सैलाब बनी रही है। किसी ने उनके नजदीक जाकर उन विसंगतियों की खोल में तर्कबुद्धि की निस्सारता को खारिज करने के बदले उनका फलसफा भी ठीक तरह नहीं समझा। आखिर दुनिया में मशीनों की शैतानियत की हुकूमत ने इंसानियत को जकड़ तो लिया है।

 

गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से अंततः भारत लौटे। तब तक उनकी भारत में  शोहरत होने पर भी शीर्ष राष्ट्रीय ख्याति नहीं हो पाई थी। कांग्रेस में भी उनकी उतनी पूछपरख नहीं थी। जितना मर्तबा उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के जनसंघर्ष में एक भारतीय के रूप में हासिल कर लिया था। वे धीरे धीरे अपने व्यक्तित्व के डैने पसारते राष्ट्रीय आंदोलन को अपने आगोश में प्रारब्ध तथा अपने साहसिक एडवेंचर के जरिए लेते रहे। 1921 ..........का वर्ष इतिहास में कई कारणों से महत्वपूर्ण है। सिविल नाफरमानी, असहयोग और खिलाफत आंदोलनों वगैरह की पृष्ठभूमि में गांधी की ख्याति ने अंतरराष्ट्रीय कद हासिल कर लिया था। इसके पहले खेदा सत्याग्रह और 1917 में चंपारण्य आंदोलन की असाधारण सफलता और खासकर 1920 में कांग्रेस के तब तक शीर्ष नेता रहे बालगंगाधर तिलक के निधन के बाद गांधी अपरिहार्य नेता के रूप में जनमानस में मजबूती के साथ स्थापित हो गए थे। 1921 में प्रकाशित ‘हिन्द स्वराज‘ के अंगरेजी संस्करण की भूमिका में गांधी ने कुछ संशोधित, नए, मौलिक और आत्मविश्वास से लबरेज तर्कों का स्वराज्य की समझ को लेकर रेखांकन किया। गांधी ने फिर कुछ सूत्र बिखेरे। उन्हें उनके ही शब्दों में पढ़ लेना बेहतर होगाः- ‘‘1. यह किताब द्वेशधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है। हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है। पशु बल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। 2. इस किताब में आधुनिक सभ्यता की कड़ी आलोचना की गई है। 1909 में लिखी मेरी वह मान्यता मुझे आज भी उतनी ही मजबूत लगती है। 3. हिन्दुस्तान यदि आधुनिक सभ्यता का त्याग करेगा तो उससे उसे लाभ होगा।‘‘

 

एक विरोधाभास बीजगणित के जटिल सवाल की तरह है। भारतीय पुरातन मर्यादाओं को समझने और आत्मसात करने वाले गांधी महात्मा होते रहे और वैसा ही दिखते भी रहे। गांधी विक्टोरियाई युग की कई व्यवस्थाओं और विसंगतियों से भी तालमेल बिठाकर अपनी समझ को समुन्नत और विस्तारित करते चलते हैं। इस स्थिति में गांधी नई राह तोड़ते हैं। किसी अन्य हिन्दू विचारक के समानान्तर नहीं हैं। यही करतब हिन्दू संप्रदायवादियों के उनसे लगातार छिटकते रहने का कारण है। खादी की आधी टांगों पहनी धोती, कमर खुसी घड़ी, अजीब तरह के फ्रेम की ऐनक लगाए गांधी बिल्कुल वैसे दिखते हैं जैसे कि वे हैं ही। यह तब महसूस होता है जब गांधी को समझने की चेष्टा ही नहीं की जाए। वे अधबुझे कोयले पर पड़ी सफेद राख की तरह दिखते हैं। फूंक मारकर उनके ताप और रोशनी को देखा और महसूस किया जा सकता है। इस अर्थ में गांधी हरीकेन का मानव रूप हैं। वे लगातार अपनी सात्विक जिद के सत्याग्रही हथियारों सिविल नाफरमानी और असहयोग को अंगरेजी सल्तनत को ढहाने करोड़ों मुफलिसों, अशिक्षितों, कमजोरों, पस्तहिम्मतों को हमकदम कर लेते हैं। बीसवीं सदी की राजनीति में ऐसा अजूबा बस केवल एक बार यही तो हुआ। इससे बाकी राजनेताओं और धर्माचार्यों की हेठी नहीं होती। गांधी की तरह बहुआयामी होने चमत्कारों की जरूरत नहीं होती। कठिन परिश्रम, अध्यवसाय और हठवादी मुद्रा को अपनाने के मनुष्य-अवतरण की तरह भी इस फेनोमेना को समझा जा सकता है। जानना दिलचस्प है अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा अपने सीनेट कार्यालय में गांधी का एक बड़ा चित्र प्रेरणा पुरुष की तरह लगाते हैं।

गांधी क्लास को थर्ड क्लास का समानार्थी कहता हिकरत भरा एक अज्ञानी जुमला गांधी पर चस्पा कर दिया जाता है। गांधी ने बैरिस्टरी पढ़ते रोमन लाॅ के पर्चे को हल करने के लिए लेटिन भाषा ही सीख ली। अंगरेजी गद्य में उनकी ऐसी महारत अंततः है कि यदि वे राजनीति के पचड़े में नहीं भी पड़ते, तो केवल लेखन के इतिहास में हिन्दुस्तान क्या देश के बाहर भी सबसे बड़े गद्यकारों में शामिल होते। आशीष नंदी के शब्दों में गांधी के अंगरेजी गद्य में बाइबिल की पवित्रता, सरलता और सहज संप्रेषणीयता है। इसके बरक्स उस दौर के दूसरे बड़े सियासती बुद्धिजीवी ‘हिन्द स्वराज‘ के कटु आलोचक लेकिन अनुयायी और उत्तराधिकारी नेहरू की भाषा एडवर्डीय अंगरेजी की है। नेहरू की वसीयतनुमा भाषा और गांधी के ‘हिन्द स्वराज्य‘ को भारत के इतिहास और भविष्य ने आत्मसात कर लिया है। गांधी चिंतन के उस अमूर्त दीखते प्राणतत्व को अपनी चेतना में विकसित करते चलते हैं। वह कहता है भारतीय संस्कृति की असल ताकत उसके समावेशी चरित्र के नैरंतर्य में है। यही तर्क तमाम व्यक्तियों और विचारों से मुठभेड़ करता हुआ गांधी को मौलिक विचारक बनाता है। अपनी सादगी, मासूमियत, लाचारी और जगहंसाई के किस्सों के चलते गांधी ने अपना अध्ययन क्रम लगभग गोपनीय ढंग से जारी रखा। गांधी में बुद्धिजीवी विचार एक वृक्ष की तरह विकसित नहीं होता तो संभव है दुनिया के कई संघर्षशील जननेताओं की तरह गांधी भी इतिहास के बियाबान में केवल याद होते रहने के लिए दफ्न हो जाते।

जारी

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(गांधीवादी लेखक कनक तिवारी रायपुर में रहते हैं।  छत्‍तीसगढ़ के महाधिवक्‍ता भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।