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राष्ट्रीय युवा दिवस : स्वामी विवेकानंद के जीवन दर्शन में छुपा वैश्विक संदेश

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डॉ. जंग बहादुर पाण्डेय, रांची:

"मेरे धर्म का सार शक्ति है। जो धर्म हृदय में शक्ति का संचार नहीं करता, वह मेरी दृष्टि में धर्म नहीं है। शक्ति धर्म से भी बड़ी वस्तु है और शक्ति से बढ़कर कुछ नहीं है ।" यह उक्ति  किसी और की नहीं, बल्कि भारत के आध्यात्मिक नेपोलियन कहे जाने वाले स्वामी विवेकानंद की है। स्वामी विवेकानंद ऐसे इतिहास पुरुष थे, जिन्होंने वर्तमान भारत की नींव डाली। प्राणहीन आचार के कंकाल मात्र भारतीय समाज में प्राण स्पंदित किए और भारत के प्राचीन वेदांतिक परंपरा को आधुनिक युगोपयोगी रूप प्रदान किया। विश्व उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जानता है, जिसकी बुद्धि प्रकांड थी और जिसने अपनी प्रचंड इच्छाशक्ति को भारत के पुनरुद्धार के कार्य में लगा दिया था।

 

विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उनका जन्म कोलकाता के सिमुलिया  पल्ली में 12 जनवरी सन् 18 63 को मकर सक्रांति के उषाकाल में प्रख्यात एटर्नी जनरल श्री विश्वनाथ दत्त के घर में हुआ था। विवेकानंद पर अपनी माता के सद्गुणों का विशेष प्रभाव पड़ा। उनके पितामह ने 25 वर्ष की अल्पायु में ही समस्त धन दौलत का त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया था, किंतु इन पारिवारिक प्रभावों से भी बढ़कर स्वामी विवेकानंद को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला कारण उनका श्री रामकृष्ण परमहंस का शिष्यत्व था। बंगाल के इस महान संत का शिष्यत्व प्राप्त कर नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद बन गए। नवंबर 18 81 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस से उनकी भेंट उनके जीवन में क्रांतिकारी मोड़ लायी।" थोड़े दिनों तक मानसिक प्रतिरोध की स्थिति के बाद उन्होंने गुरु के आगे पूरी तरह समर्पण कर दिया" और अगस्त 18 86 में राम कृष्ण की मृत्यु के समय विवेकानंद ही उनके सर्व प्रमुख शिष्य थे। इस समय लगभग 24 वर्ष की आयु में ही इन्होंने यह प्रण किया कि वे अपना सारा जीवन गुरु के संदेश के प्रचार में लगा देंगे। विवेकानंद ने अब गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया और परिव्राजक बनकर हिमालय के जंगलों में साधना करने लगे। परिव्राजक रूप में उन्होंने भारत का जो भ्रमण किया, उससे उन्हें साधारण जनता के कष्ट और तकलीफों को समझने का अवसर मिला।

 

 

देश की जनता की दयनीय दशा, उसके अज्ञान, कुसंस्कार और हताशा ने स्वामी जी के विशाल हृदय को मथित कर दिया ।उन्होंने सोचा कि भारत की जनता को आज दंड, कमंडल धारी, एकांत निवासी योगी तथा संन्यासी के व्रत की सीख नहीं देनी है। भारत को उच्च शिक्षित, स्वावलंबी, स्वाभिमानी अपने सांस्कृतिक संपत्ति से समृद्ध शाली एक महान राष्ट्र बनाना है ,जिसका अभाव हमारे दुर्भाग्य के लिए स्वयं उत्तरदायी  है। हमारे उच्च वंशीय पूर्वजों ने जनता जनार्दन को पद दलित किया है ।सवर्णों ने  अवर्णो पर दमन चक्र चलाया। क्रमश: ऐसी स्थिति आई कि दलित असहाय वर्ग अपने जन्मसिद्ध अधिकारों को भूल गया। वर्ण जन्मना नहीं, कर्मणा होना चाहिए, ऐसा उन्होंने अनुभव किया और इस अनुभव के फलस्वरूप उन्हें भारत में व्याप्त आश्चर्यचकित करने वाली विविधता के पीछे अंतर्निहित एकता का ज्ञान हुआ। उन्होंने भारतीय जनता की शक्ति को और उसकी कमजोरियों को समझा।


 

देश भ्रमण और आत्मज्ञान
उन्होंने अपनी शक्ति की परख के लिए पर्यटन का विचार किया और एक रमता योगी की तरह बनारस, अयोध्या, लखनऊ, आगरा,वृन्दावन, हाथरस और हिमालय की यात्रा की।धीरे धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ता गया और एक बार बनारस में उन्होंने अपने मित्र प्रमथदास से कहा: " मैं दूर जा रहा हूँ, मैं तब तक नहीं लौटूंगा, जब तक समाज पर बम की तरह फूट न पड़ू और वह मेरा श्वान की तरह अनुगमन न करे।" अपने इस तूफानी दौरे में वे राजपूताने के अलवर राज्य में पहुंचे। वहाँ के कुमार मंगल सिंह ने स्वामी जी से पूछा:"मुझे मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं है। मैं औरों की तरह काठ,मिट्टी पत्थर धातु की प्रतिमाओं को नहीं पूजता तो क्या मैं मरने के बाद नरक चला जाउंगा।" सहसा स्वामी जी की दृष्टि दीवार पर टंगे महाराज के चित्र पर पड़ी। उनकी इच्छा से वह चित्र उतारकर उनके हाथ में रखा गया। स्वामी जी ने पूछा: यह किसकी तस्वीर है? दीवान ने उत्तर दिया: हमारे महाराज की। स्वामी जी ने कहा कि आप इस चित्र पर थूकें।दीवान को जैसे काठ मार गया। स्वामी जी ने जोर देकर कहा इस पर थूको, थूकते क्यों नहीं? दीवान ने कहा :स्वामी जी आप कैसी बात करते हैं ? यह तो हमारे महाराज का चित्र है। स्वामी जी ने बतलाया कि यही बात मूर्ति पूजा के साथ भी है जिस तरह आपको  महाराजा के चित्र के पीछे उनके रुप की प्रतिछाया दिखाई पड़ती है,उसी तरह भक्तों को काठ मूर्तियों के पीछे ईश्वर का रुप दिखाई पड़ता है।पत्थर में क्या रखा है? लेकिन इन पत्थरों के सहारे ही उस भगवान् तक हम पहुचते हैं।

 


स्वामी जी की तर्क युक्त वाणी सुनकर कुमार दंग रह गए और तब से उनके बिन मोल दास बन बैठे। ऐसी अनेक कहानियां हैं जो स्वामी जी की निर्भीकता और उनके ज्ञान का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। ऐसे निष्णात योगी में किसी प्रकार का घमंड नहीं था। वे छोटी सी छोटी वस्तु से भी  परमभागवत् दत्तात्रेय की भांति शिक्षा लेने को तैयार रहते थे।एक बार जयपुर गए। उनके साथ खेतड़ी के राजा भी थे। स्वामी जी और खेतड़ी के राजा के सम्मान में जयपुर नरेश ने नृत्य का आयोजन किया। खेतड़ी के महाराजा ने स्वामी जी को भी उस नृत्य समारोह में समुपस्थित होने का अनुरोध किया,किंतु स्वामी जी ने साफ इन्कार कर दिया।जब स्वामी जी उस नृत्य समारोह में नहीं आए , तो नर्तकी सूरदास का यह पद गाने लगी:
हमारे प्रभु,औगुन चित न धरौ।
समदरसी है नाम तुम्हारौ,
सोई पार करौ।
इक लोहा पूजा में राखत,
इक घर बधिक परौ।
सो दुविधा पारस नहिं जानत,
कंचन करत खरौ।
एक नदिया इक नार कहावत,
मैलो नीर भरौ।
जब मिल गए तब एक बरन ह्वै,
गंगा नाम परौ।
तन माया ज्यों ब्रह्म कहावत,
सूर सु मिल बिगरौ।
कै इनको निरधार कीजिए,

कै प्रन जात टरौ।
सूरसागर सार:सं.डा धीरेन्द्र वर्मा पद 24

 

स्वामी जी इस पद को सुनकर आनंदविह्वल हो गए।ईश्वर तो ऊंच नीच, धनी गरीब सबमें बसता है,अत:नर्तकी से घृणा कैसी?  क्या गीता:
विद्याविनयसंपन्ने,ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन:।।5/18

नहीं कहती? और तब से स्वामी जी के मन से किसी को नीच समझकर उसके प्रति उपेक्षा भाव सदा के लिए तिरोहित हो गया।वे नंगे पांव  दौड़ते हुए नर्तकी के पैरों में जाकर गिर पड़े और क्षमा याचना मांगी और कहा आपने मेरी आंखें खोल दीं और आप मेरी गुरु हुईं। ऐसे थे स्वामी विवेकानंद।

विश्व धर्म सम्मेलन में स्वामी जी
31 मई 1893 को स्वामी जी ने अमरीका के लिए प्रस्थान किया।लंका, सिंगापुर, हांगकांग, केन्टन,नागासाकी, टोकियो, बैंकॉक होते हुए वे जुलाई के प्रथम सप्ताह में शिकागो पहुंचे। 11 सितंबर 1893 को  शिकागो में उन्होंने सर्वधर्म सम्मेलन में भाषण दिया। उन्होंने कहा  अमरीका के प्रिय बहनों और भाइयों!यह संबोधन सुनकर हाल तालियों से गुंज उठा। उन्होंने बताया कि हिंदू धर्म ही संसार के सारे धर्मों का जनक है। यह वह धर्म है, जिसने संसार को सहिष्णुता और वसुधैव कुटुम्बकम् का पाठ पढ़ाया,जैसे सारी नदियां एक ही महासागर की गोद में विश्राम करतीं हैं ;वैसे ही सारे धर्म एक ही ईश्वर तक पहुंचते है। फिर उन्होंने वेदांत का रहस्य बतलाया और कहा प्रत्येक जीव शिव रुप है।  हिंदू धर्म विश्व मानवता का धर्म हो सकता है। इस भाषण ने उन्हें यश के हिमालय पर आसीन कर दिया और दुनिया के लोगों के समक्ष एक बार फिर भारत के सांस्कृतिक गौरव का सूर्य देदीप्यमान हो उठा। न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा :स्वामी विवेकानंद जी के भाषण को सुनकर हम महसूस करते हैं कि भारत जैसे ज्ञानी राष्ट्र में मिशनरियों को भेजना निरी मूर्खता है। अन्य सभी धर्मों के प्रतिनिधियों की तुलना में स्वामी जी के व्याख्यान से सभी श्रोता अधिक आकृष्ट हुए। वे उत्सुक हो गए, भारतीय दर्शन के उस अमूल्य निधि वेदांत रत्न को प्राप्त करने के लिए जिसका उद्देश्य सबका कल्याण है:
सर्वे भवंतु सुखिनः,
सर्वे संतु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु,
मा कश्चित् दु:ख भाग्भवेत्।

वेदांत का आदर्श
स्वामी जी के द्वारा भारतीय जनजीवन का जो पुनर्गठन हुआ, उसका आदर्श वेदांतिक  था ।उन्होंने वेदांत के महान तत्वों को एकांत चर्चा का विषय नहीं बनाए रखा, वह अरण्य और गुफा -कंदराओं का विषय न होकर हमारी कर्मभूमियों में अवतरित हो गया ।सदियों से दासता की पीड़ित श्रृंखला से पीड़ित इस आत्म विस्मृत जाति को उन्होंने झकझोर कर जगाया। उनकी प्राण प्रद, शक्ति संचारिणी वाणी को नव्य भारत ने नए सिरे से आत्मसात किया। विवेकानंद की प्रेरणा से जागृत भारतवासियों को भविष्य में चलकर लोकमान्य तिलक एवम् महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन का अमृतमय संदेश मिला।

 

रामकृष्ण मिशन की स्थापना

स्वामी विवेकानंद ने सन 1899 में कोलकाता के पास बेलूर नामक गंगा तटवर्ती ग्राम में रामकृष्ण मिशन का मुख्य केंद्र स्थापित किया। उनके व्यक्तित्व से प्रेरणा पाकर देश-विदेश के अनेक भक्तों ने आकर उनका शिष्यतत्व ग्रहण किया। उनके द्वारा प्रदत्त धनराशि से एक ट्रस्ट की स्थापना हुई और धीरे-धीरे भारत के सभी प्रमुख नगरों में रामकृष्ण मिशन के केंद्र स्थापित हो गए। रांची में भी राम कृष्ण मिशन का एक विशाल केन्द्र स्थापित है,जिसमें अनेक प्रकार के सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक सुधार संबंधी कार्यक्रम आए दिन होते रहते हैं।


विवेकानंद द्वारा रूपायित नव्य वेदांत:
स्वामी जी को पलायन वादी मार्ग कभी भी उचित नहीं लगा था। उन्होंने अपना समग्र जीवन शिव ज्ञान में जीव की सेवा में समर्पित किया था। उनके अविस्मरणीय उक्ति थी कि एक व्यक्ति की मुक्ति के लिए यदि हमें कोटि जन्म कुत्ते का शरीर भी धारण करना पड़े तो मैं प्रस्तुत हूं। यह अपूर्व उदारता उनके गुरु युगावतार परमहंस श्री रामकृष्ण के अमूल्य उपदेश का ही फल था। यह कहा जाता है कि अद्वैत वेदांत  ने ब्रह्म को एक मात्र सत्य घोषित करके मानव मूल्यों का अवमूल्यन किया है। विवेकानंद ने वेदांत की इस ब्याख्या का अनुमोदन नहीं किया ।उन्होंने कहा कि वेदांत हमारे आत्म बल  को जागृत करता है। बलहीन के  द्वारा आत्मा की प्राप्ति संभव नहीं है, यह उपनिषदों की शिक्षा है। स्वामी विवेकानंद की शिक्षा मानव केंद्रित कर्मयोग है ।वास्तव में उन्होंने भगवत गीता के निष्काम कर्म के आदर्श का ही हमारे जीवन में अनुसरण करने का उपदेश दिया है।


जिस समय हिंदू विश्वविद्यालय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद आदि की कल्पना भी कोई नहीं कर पाया था, उस समय स्वामी जी ने एक द्रष्टा और दार्शनिक की भविष्य दृष्टि से प्रेरित होकर एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था स्थापित करने की और अभिलाषा व्यक्त की ,जिस पर विदेशी शासन तंत्र का हस्तक्षेप न हो। उन्होंने लौकिक शिक्षा को भारतीय आदर्श के अनुकूल बनाने का प्रयास किया। उनकी शिक्षा भारतीय आदर्शों और मर्यादाओं के अनुकूल है। विवेकानंद का जीवन तथा आदर्श स्वदेशी आंदोलन का प्रेरणास्रोत बना। स्वामी विवेकानंद 4 जुलाई 1903 को चीर समाधि  में निमग्न हो गए। उनके जीवन और वाणी का अमिट प्रभाव भारत के युवा वर्ग पर पड़ा ।1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल को विभक्त कर दिया। यह आघात  बंगवासी सहन न कर सके। हिंदू मुसलमानों ने भारतीय भ्रातृत्व भावना से एक दूसरे को राखी बांधी। सारे बंगाल में उस दिन किसी भी परिवार में भोजन नहीं बनाया गया। देश में एक युगांतर कारी अकल्पनीय परिवर्तन आया। ब्रिटिश अत्याचार के विरुद्ध बंगाल में नवयुवक एकजुट हो गए। वे गर्जना कर उठे। बंग माता का अंग विच्छेद हमें सहन नहीं होगा और इस महत्वपूर्ण एकता ने ब्रिटिश शासन को भयभीत कर दिया। बंगाल का विभाजन आगे चलकर रद्द करना पड़ा।

स्वामी जी ने अंतत: भारत को विश्व मानचित्र में दोबारा उन्नत करने का संकल्प किया था। वे एक मंत्र दृष्टा उन्नत कल्पनाशील कवि हृदय मनुष्य थे, जिनकी इच्छा थी एक ऐसे धर्म का प्रचार करना जिससे मनुष्य तैयार हो।( I want to preach a man-making religion) उन्होंने शिक्षा विहीन जड़ता और कुसंस्कार से अंध भारतवासियों को पुकार कर कहा: उत्तिष्ठ: जाग्रत: प्राप्य वरान्निबोधत: कठोपनिषद के इस महामंत्र का आशय है :उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषों के सानिध्य से ज्ञान प्राप्त करो। स्वामी जी के उद्बोधन मंत्र से ही भारत की सुप्त आत्मा पुनः प्रबुद्ध हुई।

वर्तमान भारत और स्वामी विवेकानंद
19वीं सदी के भारतवासी एक परतंत्र, दरिद्र, हृदय हीन राष्ट्र के रूप में पर्यवसित हुए थे ,उन्हें स्वामी जी ने वेदांत का नवीन रूप शिव ज्ञान में जीव सेवा का पाठ पढ़ाया। स्वामी जी का मुख्य उद्देश्य था अपने गुरुदेव समन्वाचार्य परमहंस श्री रामकृष्ण के समन्वय का संदेश घोषित करना। उन्होंने इस आदर्श के संबंध में कहा था कि  प्रत्येक जाति या प्रत्येक धर्म दूसरी जाति और दूसरे धर्मों के साथ आपस में भावों का आदान प्रदान करेगा ,परंतु प्रत्येक अपनी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करेगा और अपने-अपने अंतर्निहित शक्ति के अनुसार उन्नति की ओर अग्रसर होगा। इस प्रकार युवा संन्यासी विवेकानंद ने भारत को वह गरिमा और ऊंचाई दी  जिस पर आज प्रत्येक भारत वासी को नाज और ताज है।इसके पीछे माता-पिता के अतिरिक्त उनके गुरु संत श्री रामकृष्ण परमहंस का महत्वपूर्ण योगदान था ;पर आज उनकी भारत माता उनके बिना अनाथ हो गई है। वह प्रत्येक मां से यह अपील कर रही है कि वह विवेकानंद जैसी संतानें पैदा करें ।तमाम गुरुओं से कह रही है कि विवेकानंद जैसे शिष्यों को धरती पर उतारें; अगर ऐसा हो पाता है तो भारत फिर से दुनिया में सिरमोर और विश्व गुरु बन बैठेगा।

(लेखक रांची में रहते हैं।  रा़ंची विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष भी रहे। कई किताबें प्रकाशित। संप्रति स्‍वतंत्र लेखन।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।