पुष्परंजन, दिल्ली:
विदेशी के नाम पर मेरे जैसा भारतवासी (इंतु-रन) और इक्के-दुक्के उत्तर कोरियाई दिख रहे थे। वहां पहुंचे पर्यटकों में देशवासियों की संख्या सर्वाधिक। माओ त्सेतुंग के पिता, माओ यीछांग जमींदार थे। केवल यह महसूस करने के वास्ते कि माओ का बचपन किस माहौल में गुजरा था। हमने शांघाई से शाओशान के लिए 11सौ किलोमीटर का सफर। बस ठान लिया था कि सबसे पहले माओ की जन्मस्थली जाना है, फिर पेइचिंग का थ्येनआनमन स्कवायर, जहां वो दफन हैं। सेंट्रल चाइना स्थित शाओशान। वहां पहुंचा तो, फूस और खपरैल का दो मंज़िला दिव्य मकान, यहीं 26 दिसंबर 1893 को जन्मे थे माओत्से तुंग। सामने खेत, नहर और पार्श्व में पहाड़। हुनान प्रांत की छोटी सी काउंटी शाओशान। बमुश्किल एक लाख लोगों की आबादी होगी, मगर माओ की जन्मस्थली के कारण उनके शैदाइयों के लिए तीर्थस्थल जैसा है।
चार भाइयों में सबसे छोटे माओ त्सेतुंग, जिन्होंने पास के प्राइमरी स्कूल में वूचिंग (कन्फ्यूशियन क्लासिक्स) की पढ़ाई की थी। वहीं पता चला, बालक माओ त्सेतुंग के आदर्श कोई चीनी आइकॉन नहीं, बल्कि जार्ज वाशिंगटन और नेपोलियन थे। बाद में माओ ने प्रांतीय राजधानी छांगसा में सेकेंड्री स्कूल की कक्षा में दाखिला लिया और सुन यात-सेन के राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित होते रहे। सुन यात-सेन चीनी गणतंत्र के संस्थापक और 'राष्ट्रपिता' थे। जब चीन चेयरमैन माओ के नेतृत्व में 1 अक्टूबर 1949 को 'जनवादी गणतंत्र' बना, माओ ने 'राष्ट्रपिता' का ओहदा हटाकर सुन यात-सेन को 'लोकतांत्रिक क्रांति का अग्रदूत' घोषित कर दिया। एक नेता जब महान होने की ओर अग्रसर होता है, अपने पूर्ववर्ती की लकीर छोटी करता है, इसे आप एशियाई राजनीति की रवायत समझ लीजिए, जिसकी शुरूआत आधुनिक चीन से होती दिखती है। राष्ट्रपति शी चिनफिंग आज की तारीख़ में चेयरमैन माओ से भी महाकाय नेता के रूप में निरूपित हो चुके हैं। गुरूवार को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) की केंद्रीय समिति का छठा समग्र सत्र (प्लैनरी सेशन) संपन्न हुआ। इसमें पूरे सौ साल का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हुए जो प्रस्ताव पारित हुआ, उससे यही निष्कर्ष निकलता है कि शी जैसा कोई नहीं। चीन को विश्व पटल पर लाने में, उसकी आर्थिक-सामाजिक विसंगतियों को दूर करने में किसी ने योजनाबद्ध तरीके से काम किया, तो वो सिर्फ़ शी चिनफिंग हैं।
पेइचिंग में 8 से 11 नवंबर के बीच 19वीं सीपीसी सेंट्रल कमेटी की बैठक हुई। शी इस सर्वोच्च कमेटी के महासचिव हैं। शी सर्वोच्च नेता बने रहेंगे, और बिना किसी वैधानिक बाधा के शासन करेंगे, यह छठे प्लैनरी सेशन में तय हो चुका। चार दिवसीय सत्र में माओ त्सेतुंग और उनके बाद के चार शासकों के कालखंड का लेखा-जोखा प्रस्तुत हुआ। तंग श्याओफिंग, चियांग ज़ेमिन, हू चिन्थाओ और शी चिनफिंग, इन चार शासकों में सबसे महान कौन था, माओ का कितना बड़ा योगदान था, उसपर जो भी प्रस्ताव रखे गये, उपस्थित सदस्यों ने हाथ उठाकर समर्थन किया। 19वीं सीपीसी सेंट्रल कमेटी के छठे प्लैनरी सेशन में जो प्रस्ताव रखे गये, उसका सारांश यह है कि चेयरमैन माओ के समय नव लोकतांत्रिक क्रांति का आविर्भाव हुआ। माओ के रहते समाजवादी क्रांति और उसका निर्माण (सोशलिस्ट रेवोल्यूशन एंड कंस्ट्रक्शन) हुआ। उसके बाद एक ऐसा कालखंड आया जिसमें सुधार या दोषनिवृत्ति की शुरूआत हुई। यह सोशलिस्ट मॉर्डनाइजेशन का दौर था, जिसमें तीन नेताओं तंग श्याओफिंग, चियांग ज़ेमिन और हू चिन्थाओ की अहम भूमिका थी। और उसके बाद सोशलिजम का नया दौर आता है, जो चाइनीज़ कैरेक्टरिस्टिक (चीनी विलक्षणता) लिये प्रस्तुत होती है, उसके प्रणेता हैं शी चिनफिंग। सीपीसी द्वारा प्रस्ताव की गहराई से व्याख्या की जाए तो माओ के समय में जितनी ग़लतियां हुईं, उसे बाद के शासन प्रमुखों ने सुधारा है। समय का चक्र देखिये, जिस चीनी संसद में यह प्रस्ताव रखा जा रहा था, उसके पांच सौ मीटर की दूरी पर बनी दिव्य समाधि में चेयरमैन माओ दफन हैं।
8 से 11 नवंबर 2021 के प्लैनरी सेशन (समग्र सत्र) में सीपीसी के 197 सदस्य और 151 वैकल्पिक सदस्य (अल्टरनेट मेंबर) उपस्थित थे। इस सत्र के वास्ते प्रस्ताव, उसकी रूपरेखा तैयार करने वाले एक्सपर्ट, शिक्षाविद 'नॉन वोटिंग मेंबर' के रूप में अपनी मौज़ूदगी दज़र् करते रहे। इसका आयोजन सेंट्रल कमेटी के 'पॉलिटिकल ब्यूरो' ने किया था। 1921 में सीपीसी की स्थापना से आगे के कई दशकों तक 'पोलिट ब्यूरो' सर्वोच्च बॉडी मानी जाती रही। शी पांचवे सत्र से ही बदलाव कर 'पॉलिटिकल ब्यूरो' को शक्तिशाली बनाने की कवायद में लगे हुए हैं। माओ की मृत्यु 9 सितंबर 1976 को हुई थी। माओ के जो विचार थे, वही तो 'माओइज़म' था। 'कोटेशंस फ्रॉम माओ त्सेतुंग' वाली लाल किताब, जिसमें माओ के कहे शब्द उद्धृत थे, माओवादियों के लिए गीता, बाइबल से कम नहीं था। 1966 के बाद उसका पुनर्मुद्रण नहीं हो पाया था। हिंदी समेत 20 भाषाओं में अनुदित माओ की लाल किताब दुनिया के 117 देशों में भेजी गई, जिसके ज़रिये माओवाद की जड़ें और मज़बूत की गई थीं। आज की तारीख़ में चीनी लीडरशिप कहती है, माओवाद था ही नहीं। फिर नेपाली माओवादियों का क्या होगा? पेरू में शाइनिंग पाथ उसी माओवादी धारा को समाहित किये था, जिसे हम मार्क्स-लेनिनवादी और गोंज़ालो विचारधाराओं का काकटेल कह सकते हैं। नेपाली माओवादी 'शाइनिंग पाथ' को सिर-आंखों पर रखते थे।
और सिफ़र् नेपाल नहीं, कम्युनिस्ट माओइस्ट पार्टी ऑफ अफग़ानिस्तान, सिलोन कम्युनिस्ट पार्टी (माओइस्ट), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ बोलिविया (मार्क्ससिस्ट-लेनिनिस्ट, माओइस्ट), कोलंबियन कम्युनिस्ट पार्टी (माओइस्ट), माओवादी विचार पर आधारित 'पूर्बो बांग्लार कम्युनिस्ट पार्टी', माओवाद को आत्मसात करने वाली 'वर्कर्स पीजेंट्स पार्टी ऑफ तुर्की', इन सबका क्या होगा? बाहर वालों को छोड़िये, अपने घर की बात करते हैं। पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ से आंध्र तक को छूने वाले रेड कॉरीडोर में भूमिगत माओवादी ख़़ुद को क्या कहेंगे? शी चिनफिंग ने तो बड़ी विकट स्थिति पैदा कर दी। यह तो चीन जाने पर बात समझ में आती है कि वहां पर माओवाद को मिटा देने की कवायद कितने वर्षों से चल रही है। माओ की मृत्यु के बाद तंग श्याओ फिं ग ने जैसे ही पद संभाला, उनकी लकीर छोटी करने की कोशिशें शुरू कर दीं। 1966 से 1976 के बीच कल्चरल रेवोल्यूशन के नाम पर जितनी भी गंभीर ग़लतियां हुईं, उसके विरूद्ध आधिकारिक आवाज़ उठाने वाले तंग श्याओ फिं ग ही थे। तंग के शब्द थे- 'सीपीसी ने लेफ्ट की राजनीति में सबको 20 वर्षों तक फंसाये रखा। कामगारों और किसानों की आय नहीं के बराबर रह गई थी। औद्योगिक उत्पादन भी बेहतर नहीं हुआ, बावज़ूद इसके चीनी जनता का भरोसा सीपीसी पर बना हुआ था।' तंग श्याओ फिं ग माओ पर ऊंगली उठाते हैं, 1989 में थ्येनआनमन स्कवायर पर हज़ारों लोगों के नरसंहार पर खामोश हो जाते हैं।
माओ ने 1958 से 1962 के बीच द्वितीय पंचवर्षीय योजना, जिसे 'द ग्रेट लीप फॉरवर्ड' कहा जाता है, लागू की थी। उस कार्यक्रम में निजी खेती को निषिद्ध कर सामूहिक खेती और कम्युन कल्चर पर ज़ोर दिया गया। उस कालखंड में हेनान, बानछिआओ मेें बने दर्जनों बांध ढह गये। खेती छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। यांगत्से और येलो रीवर में लगातार बाढ़ से अकाल की स्थिति पैदा हो गई। चीनी इतिहासकार वू चियुआंग बताते हैं कि 'द ग्रेट लीप' के दुष्परिणामों की वजह से 5 करोड़ 60 लाख लोग मारे गये। हालांकि चीनी लीडरशिप इस सवाल पर चुप्पी साधे है कि 1962 में जब देश अकाल और भयानक आर्थिक संकट से गुज़र रहा था, तब भारत-चीन युद्ध छेड़ने की ज़रूरत क्या थी? क्या माओ अपनी विफलताओं से देश का ध्यान हटाना चाहते थे? लंबे समय तक माओ के सचिव रहे हू छिआओमू बताते हैं कि उत्तर-पूर्व चाइना के दाछिंग इलाके में 1959 में पेट्रोलियम के विशाल भंडार का पता चला था। 1965 तक चीन पेट्रोलियम के मामले में आत्मनिर्भर उसी की वजह से हुआ। कल्चरल रेवोल्यूशन के समय विज्ञान, तकनॉलोजी, और कूटनीति के क्षेत्र में चीन को काफी उपलब्धियां हासिल हुई थीं। हू छिआओमू बताते हैं, 'अकाल के समय स्वयं चेयरमैन माओ ने अपना फेवरेट 'ब्रेज्ड पोर्क बेली' खाना त्याग दिया था। 26 दिसंबर 1962 को माओ का 69 वां जन्मदिवस था, तब वो केवल सूप पीकर रह गये थे। माओ ने अपनी सेलरी 600 युवान से घटाकर 404.8 युवान कर ली थी, जो उन दिनों पार्टी के लेबल थ्री कैडर को मिलता था।'
माओ के सचिव रहे छिआओमू जो कहें, शी पूजक आज का जेनरेशन माओ को माफ करने को तैयार नहीं दिखता है। जून 1981 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना ने माओ के कल्चरल रेवोलयूशन की भर्त्सना की थी। उसे गंभीर ग़लती निरूपित किया था। सेंट्रल कमेटी के कुछ नेताओं ने खुलकर कहा था कि इन ग़लतियों के लिए माओ को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। शी का समाजवाद ग्लोबल मार्केट इकोनॉमी को समझता है, माओवाद से अधिक सर्वस्वीकृत, व्यावहारिक और अत्याधुनिक है। ऐसे नैरेटिव की कवायद 2017 से जारी है। उस साल सीपीसी ने 'शी चिनफिंग के विचार चाइनीज़ कैरेक्टरिस्टिक समेत अप्रूव किया था। उनके कोटेशंस की पाकेटबुक और ऐप जारी कर दी गई। सीपीसी को बस माओ की लाल किताब को रिप्लेस करना था। दुनिया समझ चुकी थी कि अंदरखाने खेल क्या हो रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना की स्थापना के सौ साल और भारत में आज़ादी के 75 साल। मौक़ा और दस्तूर दोनों तरफ है। इस समारोह के शोर में हांगकांग के लोकतंत्रकामी नहीं दिखेंगे। कोविड काल में लाखों चीनियों की मौत कभी ज़ेरे बहस नहीं हुई। शी का इंवेट मैनेजमेंट इतना व्यापक है, जिसकी चकाचौंध में भयानक महंगाई, बेरोज़गारी, चीनी रियल इस्टेट, अधोसंरचना व मैनुफैक्चरिंग के क्षेत्र में टोटल फेल्योर की चर्चा तक नहीं होती। शी ने नई पीढ़ी को जो सपने दिखाये, शायद उसकी कलई उनके जाने के बाद खुले। सुन यात-सेन से जब राष्ट्रपिता का पद छीना जा सकता है, माओ की नीतियों की मज़म्मत हो सकती है, तो शी कबतक 'वक्रतुंड महाकाय' बने रहेंगे?
(कई देशी-विदेशी मीडिया हाउस में काम कर चुके लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। संंप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक।)
नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।