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देश की विभिन्न जातियों में आखिर क्‍यों बढ़ते जा रहे संदेह और संशय

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सुभाष चन्द्र कुशवाहा, लखनऊ:

यह सत्य है कि आज समाज की विभिन्न जातियों में संदेह, संशय बढ़ा है क्योंकि हम स्वार्थी दृष्टि से सोचने के आदी बनाए जा रहे हैं। बहुत कम बुद्धिजीवी तार्किक सोच रखते हैं। सवर्ण समाज का एक तबका यह समझ रहा है कि वर्तमान सरकार उसकी झोली में सब कुछ डाल देगी, इसलिए उसको इससे क्या कि वंचित समाज (दलितों, ओबीसी, मुस्लिम और आदिवासी) पर जुल्म हों। वह इन जुल्मों पर क्यों बोले। वह मौन स्वीकृति दे रहा है। इनमें जो चालाक हैं, वह झट कह देते हैं, जातिवाद अब है कहाँ? उन्हें आंखों के सामने के दृश्य नहीं दिखते। दूसरी ओर वंचित  समाज का एक तबका ऐसा है, जो सवर्णों पर हुए जुल्म की ओर भी खामोश रहता है। वह भी अपराध पर मौन रहता है। जातिवादी दृष्टि अपनाता है, यह दोनों स्थिति बहुत घातक है। देश पीछे जा रह है। सीरिया, लेबनान की श्रेणी में पहुंच जाएगा, ऐसी विभाजनकारी सोच खत्म न हुई तो। हम जब ब्राह्मणवादी प्रवृतियों की आलोचना करते हैं तो इसके केंद्र में गैरबराबरी की सोच की आलोचना करते हैं। हमारे तमाम ब्राह्मण मित्र भी गैरबराबरी की सोच की आलोचना करते हैं। भले ही उनकी संख्या कम है। भले ही बहुत कम ब्राह्मण जाति के बुद्धिजीवी या लोग, बराबरी में विश्वास करते हैं मगर वहां भी अच्छे लोग हैं।

 

 

हम भले ही ब्राह्मणवाद की आलोचना करें, ब्राह्मण जाति मात्र से किसी से भेदभाव करने के विरोधी हैं मगर हमारा समाज इतने खुले विचारों का नहीं है? सवर्णों की बड़ी जमात उदार क्या, निहायत स्वार्थी और बेईमान प्रवृति की है। वह 10 प्रतिशत EWS आरक्षण मिले, इसकी वकालत करती है, जो आर्थिक नहीं, केवल सवर्णों के लिए है। वह शिक्षकों की भर्ती में उपाध्याय और तिवारी को ओबीसी सीटों पर चयन का विरोध नहीं करती। उसे तब जातिवाद नहीं दिखता। हमने अपनी सेवाकाल में देखा है कि ऊपर का अधिकारी, अपने नीचे के स्वजातीय अधिकारी के हर अवगुण माफ कर देता है जबकि दूसरी जाति के अधिकारी को डंडा किए रहता है। यह हर विभाग में है और चूंकि बहुमत में उच्चजातियों के अधिकारी हैं, इसलिए इस भेदभाव को बढ़ाने की जिम्मेदारी उन्हीं की है। यह प्रवृत्ति इस बहुलतावादी समाज को कभी एक न होने देगी, कभी आगे बढ़ने न देगी। ज्यादा सताया हुआ  जो समाज है, उसके साथ खड़ा होना, बुद्धजीवी का कर्म होना चाहिए। आप यह कर्म, जाति नफरत की वजह से नहीं निभाते, अपनी श्रेष्ठता पर इतराते हैं तो आप मनुष्य नहीं है। आप देशहित में नहीं हैं।

 

जातिगणना का प्रश्न समाज के हर वर्ग के हित में होगा बशर्ते कि उनके आंकड़ों के आधार पर गैरबराबरी  कम करने की नीतियां बनें। गैरबराबरी का कम होना देश और देश की सभी जातियों के हित में होगा। आज जो एक रोटी खा रहे हैं और बहुसंख्यक उसका चौथाई टुकड़ा पा रहे हैं तो गैरबराबरी दूर करते ही  एक रोटी खाने वाले सवा रोटी खाने लगेंगे और जो चौथाई खा रहें हैं वे एक रोटी खाने लगेंगे। इस सामान्य उदाहरण से हम अपने अंदर की कुंठा और नफरत को मारें तो सबका हित होना है। हाँ, अगर आप दूसरों की दोनों आंखें फोड़ने के लिए, अपनी एक फोड़ने को तैयार हैं, तो मुझे आपसे कुछ नहीं कहना है। इसलिए देशहित में जातिगणना के लिए दबाव बनाएं। अगर आप भी मानते हैं कि जातिवाद खत्म होना चाहिए तो यह और भी स्वागत योग्य है। फिलहाल सरकार पर दबाव बनाएं कि जातिवाद खत्म करने का अध्यादेश लाए। कहीं भी जाति, गोत्र, धर्म का उल्लेख न हो । नामों को लिखने का पैटर्न निर्धारित हो, जिसमें नाम, पिता का नाम या गाँव का नाम हो। जातिसूचक उपनाम हटाने की नीति बने और तदनुसार पंजीयन की कमेटी बने। सारा चयन मात्र परीक्षा के आधार पर हों। चंद्रभूषण सिंह यादव द्वारा संपादित किताब, मंडल कमीशन की रिपोर्ट पढ़ रहा था। इससे यही सिद्ध होता है कि काका कालेलकर या मण्डल जी को जातिगणना न होने से बेहद मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसलिए जातिगणना हो। इससे कोई आफत नहीं आने वाली।

 

 

(यूपी सरकार की उच्च सेवा से रिटायर्ड अफसर सुभाष चंद्र कुशवाहा लेखक और संस्कृतिकर्मी हैं। आशा, कैद में है जिन्दगी, गांव हुए बेगाने अब (काव्य संग्रह), हाकिम सराय का आखिरी आदमी, बूचड़खाना, होशियारी खटक रही है, लाला हरपाल के जूते और अन्य कहानियां (कहानी संग्रह) और चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन (इतिहास) समेत कई पुस्तकें प्रकाशित। कई पत्रिकाओं और पुस्तकों का संपादन। संप्रति लखनऊ में रहकर स्वतंत्र लेखन)

 

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।