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विश्‍लेषण: मोदी के दौरा के बाद अमरीका और भारत के रिश्‍ते की पड़ताल

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पुष्परंजन, दिल्‍ली:

अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने महात्मा गांधी के अहिंसा संबंधी विचार के हवाले से जब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल पूछा, और वो टाल गए।अमरीकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी लोकतंत्र की याद दिला दी थी। अमेरिका और भारत किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, आज की तारीख में यह समझना महत्वपूर्ण हो गया है। व्हाइट हाउस के ओवल ऑफिस में शुक्रवार को मोदी-बाइडेन की मुलाकात से इतर कुछ पत्रकार उसकी पड़ताल कर रहे थे कि अमरीका को अपना नया अड्डा बनाने के वास्ते भारत जमीन लीज पर दे रहा है, या नहीं? इस पर घनघोर चुप्पी छाई रही। अधिक से अधिक अमरीका का ‘ओवर द होराइजन’ कार्यक्रम को जानने देने की छूट थी। उसका लक्ष्य यही है कि अफगानिस्तान में कुछ गड़बड़ हुआ, तो अमरीका उसे नजदीक के अपने एयर बेस से निशाने पर ले ले। इस लिहाज से भारत पर दबाव है कि वह अमरीका के लिए अड्डा देने का प्रस्ताव मान ले। कहना कठिन कि अमरीका के इस प्रस्ताव पर चुपचाप कहीं मुहर न लग गई हो। बाद में चलकर ऐसी बातें अमरीकी सीनेट की प्रतिरक्षा समिति के आगे छिपती नहीं है। उन्हें देर-सवेर बताना होता है। गुजिश्ता 15 सितंबर को रिपब्लिकन कांग्रेस सदस्य के सवाल पर अमरीकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन को स्पष्ट करना पड़ा कि पश्‍चिमी दोहा स्थित अल उदैद एयर बेस अफगानिस्तान से अधिक दूरी पर है, इसलिए हमारा प्रयास भारत में ऐसे एयर बेस प्राप्त करने का रहेगा, ताकि तालिबान को निशाने पर लेने में जरा भी देर न हो। बात केवल एयर बेस तक सीमित नहीं है, अमरीका अंडमान निकोबार आईलैंड जैसे ठिकानों पर नौसैनिक बेड़े के वास्ते भी विकल्प ढूंढ़ रहा है।

अमरीकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने थोड़ा और खुले तौर बताया कि भारत को हम इस वास्ते ‘डिपली इंगेज’ किए हुए हैं। हमें ‘ओवर द होराइजन’ कार्यक्रम के वास्ते इस इलाके में पार्टनर की जरूरत है। उधर विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने जरा-सा मुंह खोला, इधर भारत में सोशल मीडिया में हंगामा मच गया कि अमरीका को वायु सेना अड्डा बनाने की अनुमति मोदी सरकार ने दे दी है। कई अनुभवी संपादक भी मान बैठे कि ऐसा हुआ है। ‘ब्रेकिंग न्यूज’ देने वाले तथाकथित पत्रकारों को ऐसे अति संवेदनशील विषय पर आधिकारिक पुष्टि की जरूरत बिल्कुल नहीं होती। अफगानिस्तान से अमरीकी सैनिकों की वापसी के बाद ‘ओवर द होराइजन’ फोर्स की स्थापना नया रणनीतिक कार्यक्रम है। इसे पेंटागन के लिए किफायती और कम जोखिम वाली कार्रवाई मानी जा सकती है। अमरीकी विमान मित्र देश के नजदीकी अड्डे से उड़ेंगे, लक्ष्य को भेदेंगे, और ठिकाने पर वापिस लौट आएंगे।

 

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अफगानिस्तान में पिछले 20 वर्षों में अमरीकी जान-माल की जो हानि हुई है, उससे सबक लेकर ‘ओवर द होराइजन’ समरनीति को विकसित करने की चेष्टा हो रही है। अमरीका आज से नहीं, 2003 से भारत में अपना सैन्य अड्डा बनाने के वास्ते प्रयासरत रहा है, जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। ऐसा दूसरी बार हुआ है, जब भारत में अमरीकी बेस के वास्ते दबाव बनाए गए हैं। कोई पूछ सकता है कि जब केंद्र में बीजेपी की सरकार होती है, तभी अमरीका द्वारा ऐसे प्रयास क्यों किए जाते हैं?1991 में फर्स्ट गल्फ वार का समय था, उन दिनों चन्द्रशेखर देश के प्रधानमंत्री थे, अमरीकी युद्धक विमानों को मुंबई से तेल भरने की अनुमति दी गई, जिससे मुल्क भर में हंगामा बरपा हो गया। अब सवाल यह है कि पीएम मोदी की इस यात्रा में क्वाड बैठक की आवश्यकता क्यों पड़ गई? इस बैठक में चारों सदस्य देशों जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत और अमरीका की व्यूह रचना के मायने क्या हो सकते हैं? क्वाड्रीलैटरल सिक्योरिटी डायलॉग (क्यू.एस.डी.) संक्षेप में 'क्वाड' की अवधारणा जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शिंजो अबे ने 2007 में विकसित की थी, तब मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री थे। हिंद-प्रशांत की इस रणनीति में अमरीका के तत्कालीन उप राष्ट्रपति डिक चेनी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन पीएम जॉन हावर्ड भी शामिल थे। चीन इस ब्यूह रचना को समझ रहा था, और ‘क्यूएसडी’ को तोड़ने की ताक में लगा हुआ था। केविन रूड दिसंबर 2007 में ऑस्ट्रेलिया के नए प्रधानमंत्री बने, और लगे हाथ 2008 में ‘क्यूएसडी’ से अलग होने की घोषणा कर दी। उन दिनों चीन चार देशों की रणनीति को तोड़ पाने में सफल रहा था। लगभग 13 साल बाद अक्टूबर 2020 में ऑस्ट्रेलिया ने दोबारा से  ‘क्वाड’ में शामिल होने की घोषणा कर दी। कारण भी चीन था, जिसने अफगानिस्तान में ऑस्ट्रेलियाई सैनिकों द्वारा मानवाधिकार हनन पर सवाल उठाते हुए उसकी अंतर्राष्ट्रीय जांच की मांग की थी।

 

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इसमें कोई शक नहीं कि आज की तारीख मेंं अमरीका के बाद चीन की नौसेना ताकतवर है। कभी समुद्र पर ब्रिटेन और यूरोपीय देशों की बादशाहत हुआ करती थी। क्वाड की कोशिश हिंद-प्रशांत में चीनी दबदबा तोड़ना रहा है। यों, क्वाड के गठन से पहले 1992 से मालाबार एक्सरसाइज होती आ रही है। 1992 में यह पहला अवसर था, जब अमरीका ने भारत जैसे गैर नाटो देश से नौसैनिक अभ्यास के लिए हामी भरी थी। उस समय उसे भारतीय समुद्री सीमा की हदों से रूसी असर को कम करना था, यह भी एक उद्देश्य इसके पीछे रहा है। ‘क्वाड’ को अब ‘मिनी नाटो’ बोला जाने लगा है। वैसे भी 1990 के आखिर में हिंद महासागर में रूसी युद्धपोतों, जहाजों की उपस्थिति नहीं के बराबर रह गई थी। यह वो दौर था, जब शीत युद्ध अंतिम सांसें गिन रहा था। 2001 में रूसियों को लग गया था कि अमरीका भारत के साथ ‘मालाबार एक्सरसाइज’ की शुरुआत करने वाला है, उन्हीं दिनों मुंबई के डकयार्ड में रूसी पनडुब्बियां, जहाज, ‘एंटी सबमेरीन वारफेयर वेसल’ दिखने लगे। मगर तब तक देर हो चुकी थी। रूस-भारत के बीच हर दो साल पर ‘इंदिरा’ नामक नौसैनिक अभ्यास भी एक रस्मी तौर पर चल रहा था, जिसका उद्देश्य समुद्री डाकुओं को रोकना, ड्रग तस्करों और आतंकवाद से मुकाबला करना था। रूस-भारत के इस साझा अभ्यास से चीन असहज भी नहीं था, क्योंकि चीनी रणनीतिकार मानते थे कि इस तरह के अभ्यास से समुद्र में भारत की मारक क्षमता में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं होने वाला।

2007 में क्वाड के अस्तित्व में आने के बाद 29 अप्रैल से 3 मई 2009 तक   जापान के तट पर मालाबार अभ्यास का 13वां सीरीज संपन्न हुआ था, जिसमें जापान का ‘जेडीएस कुरामा’ और ‘ जेडीएस आसायुकी’ जैसे विध्वंसक पोतों ने हिस्सा लिया था। 2020 में ऑस्ट्रेलिया के दोबारा से क्वाड में शामिल होने के बाद पहली बार चारों सदस्य देशों ने मालाबार अभ्यास में भाग लिया। पिछले 27 अगस्त 2021 को ‘मालाबार-21’ के पहले चरण का अभ्यास फिलीपींस-सी में संपन्न हुआ है, उस अभ्यास में 'एंटी सबमेरिन वारफेयर एक्सरसाइज' को लेकर चीन की भृकुटियां तनी हुई हैं। चीन की परेशानी की एक और वजह क्वाड देशों को अफगानिस्तान में इंगेज किया जाना भी है। क्वाड के मंच से पूरी दुनिया को सवा अरब वैक्सीन डोज मुहैया कराने का अहद वाशिंगटन में किया गया है। ‘क्वाड वैक्सीन पार्टनरशिप’ उसी का हिस्सा है। 24 सितंबर 2021 को चारों सदस्य देशों की ओर से जो बयान जारी हुआ है, उसमें एशिया-प्रशांत में यूरोपीय संघ के रणनीतिक सहयोगी होने पर भी बल दिया गया है। जापान 3.3 अरब डॉलर का कोविड लोन देगा, यह भी साझा बयान में है। 

 

देखना दिलचस्प है कि पर्यावरण शुद्ध करने के लिए क्लीन टेक्नोलॉजी, और  टेलीकम्युनिकेशन के वास्ते 5 जी से कुछ अधिक एडवांस नेटवर्क, फेलोशिप आदि की बात करते-करते बयान के आखिरी हिस्से को अफगानिस्तान केंद्रीत कर दिया गया है। साझा बयान में कहा गया है कि अफगानिस्तान को हम आतंकवाद का अधिकेंद्र नहीं बनने देंगे। अफगानिस्तान से किसी देश को धमकाने, हमले की साजिश करने, अतिवादियों को ट्रेनिंग व आर्थिक सहयोग करने जैसे जघन्य कार्यों को रोकना भी क्वाड का उद्देश्य होगा। अफगानिस्तान में मानवाधिकारों का हनन तालिबान न करे, महिलाओं-बूढ़ों-बच्चों के हुकूक सलामत रहे, क्षेत्रीय शांति में खलल न पड़े, यह देखना इस गठबंधन का काम होगा। ऐसे बयान के बाद भारत की भूमिका अफगानिस्तान में एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में बढ़ जाती है। ऐसी भूमिका के बहुत सारे जोखिम भी हैं, जिसमें कश्मीर-लद्दाख समेत देश के दूसरे हिस्सों की सुरक्षा शामिल है। इसे नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान और चीन, तालिबान के विदेश नीति रणनीतिकार के रूप में हर फोरम पर प्रस्तुत होते दिख रहे हैं। अफगानिस्तान के 'फ्रीज' साढ़े नौ अरब डॉलर अमरीका व वर्ल्ड बैंक रिलीज करें, सार्क विदेश मंत्रियों की मीटिंग से लेकर यूएन महासभा की बैठक तक में तालिबान के प्रतिनिधि बुलाए जाएं, इसकी सर्वाधिक चिंता पाकिस्तान को है। 

 


ऐसी चिंताओं के हवाले से पाकिस्तान, तालिबान नेताओं को कह सकता है कि देखो, यह सारा कुछ भारत के उकसावे पर हो रहा है, पीएम मोदी की क्वाड में सक्रियता और उससे पहले भारत में उनके दिए बयान सुन लो। मतलब, पाकिस्तान जिस 'टारगेट' को भेदना चाहता है, उसका ट्रिगर काबुल में है। क्या हम नहीं चाहते हुए उस फंदे की ओर अग्रसर हैं, जिस वास्ते जो बाइडेन प्रशासन प्रयासरत है? यदि चीन-पाकिस्तान की साजिशें दरवाजे पर दस्तक दे रही हैं, रूस की चुप्पी है, तो भारत के पास अमरीका से बगलगीर होने के अलावा क्या विकल्प दिखता है? मगर यह सब करते हुए हमारी हालत जिबूटी जैसी न हो जाए। एक समय आया, हार्न ऑफ अफ्रीका के सामरिक अधिकेंद्र पर अवस्थित जिबूटी में सभी बड़ी शक्तियों को मिलिट्री बेस की जरूरत पड़ गई। 9-11 के बाद यहां गिद्ध दृष्टि गड़ाए विकसित देशों का एक ही तर्क था कि इस इलाके में आतंकवाद पर काबू पाना है। पहले अमरीका ने जिबूटी के कैंप लेमोनियर में अपना मिलिट्री बेस बनाया, फिर इटली, जर्मनी, फ्रांस, जापान और 2017 आते-आते चीन ने यहां अपना सैनिक अड्डा बना लिया। एक छोटे से देश में इतने सारे मिलिट्री बेस। आज की तारीख में क्वाड देशों में केवल भारत है, जिसने अमरीका को मिलिट्री बेस नहीं दिया है। जापान में अमरीका के तीन सैनिक अड्डे हैं, टोक्यो का याकोटा एयर बेस, मिसावा और कडेना एयर बेस। उसी तरह ऑस्ट्रेलिया के पाइन गैप में 1966 से अमरीका ने सेटेलाइट सर्विलांस बेस बना रखा है। इस जगह को ‘ज्वाइंट डिफेंस स्पेस रिसर्च फैसिलिटी’ बताते हैं। कल को कहीं भारत में भी ऐसी रिसर्च फैसिलिटी के नाम पर अमरीका अपना सैनिक अड्डा न बना ले। क्वाड का सदस्य होने के नाते ‘मुआवजा’ तो भरना पड़ेगा। और अंत में एक सवाल, भारत को रूस से एस-400 मिसाइल चाहिए कि नहीं?

 

 

(कई देशी-विदेशी मीडिया  हाउस में काम कर चुके लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संंप्रति ईयू-एशिया न्यूज के नई दिल्ली संपादक)

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