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स्मृति शेष: पुलिस की लापरवाही का ख़मियाज़ा जीतन को पांच साल जेल में भुगतना पड़ा

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गिरीडिह केे चिलखारी में 26 अक्टूबर 2007 की रात सूबे के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के पुत्र अनूप मरांडी समेत 20 लोगों की हत्या भाकपा माओवादियों ने गोली मारकर कर दी थी। जिसके लिए लोकगायक जीतन मरांडी को को पांच साल जेल की सज़ा महज़  इसलिए भुगतनी पड़ी कि उनके ही नाम का एक नक्‍सली नरसंहार में शामिल था। गिरिडीह की निचली अदालत ने मरांडी को फांसी की सजा सुनाई थी। लेकिन 8 साल पहले हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश को निरस्त करते हुए उन्हें रिहा कर दिया था। इस 12 सितंबर को झारखंड के इस मशहूर क्रांतिकारी संस्कृतिकर्मी जीतन मरांडी का निधन हो गया। गिरिडीह और झारखंड की संघर्षशील जनता उन्हें भूलेगी नहीं। तमाम पुलिस दमन और कारावास के बावजूद उनका सृजन कभी रुका नहीं। जेल से निकलने के बाद उन्‍होंने गीत लिखे थे, हमार राज देइख के, हमार राज देइख के, शोषक शासक घबराई गेलक रे,मोके उग्रवादी बनाई देलक रे....। गिरीडिह के रहने वाले वरिष्‍ठ पत्रकार अमित राजा की पढ़िये टटकी टिप्‍पणी-संपादक

 

अमित राजा, गिरीडिह:

जीतन मरांडी का संघर्ष, बलिदान और उसकी कुर्बानी समाज के लिए थी। बदलाव के लिए थी। मगर, उसकी मौत सिर्फ उसके परिवार की रही। जबतक जीतन जेल में रहे नायक रहे। फांसी की सजा से मुक्त किये जाने पर बाहर आये तब कुछ दिन ही उनका स्टार क्रेज रहा। बाद में वे अपने क्रांतिकारी साथियों के लिए संदिग्ध हो गए। उनकी मौत कई बार हुई। जेल से छूट कर पीरटांड़ अपने घर तक के लिए वे साथियों संग निकले तो रांची, रामगढ़, हजारीबाग, गिरिडीह में दर्जन भर जगहों पर लोगों ने उनका स्वागत किया। हरेक जगह के बाद काफिला बड़ा होता गया।मुख्यधारा के नेताओं ने भी उन्हें बधाई दी। यही प्रसिद्धि उनकी पहली मौत का कारण बना। उनसे मिलने कई लोग आने लगे। सरहुल समारोह में वे अतिथि बनाये गये। विश्व आदिवासी दिवस पर उन्हें गिरिडीह टाउन हॉल में आमंत्रित किया गया। यहां बाबूलाल मरांडी (तब के झाविमो प्रमुख) से उनकी मुलाकात हुई। दोनों सोफे पर साथ बैठे। लंबी बातचीत हुई। बाबूलाल मरांडी ने उनसे किसी भी जरूरत पर बेझिझक बताने-याद करने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने बेटे की हत्या में एक निर्दोष को इतने दिन यंत्रणा झेलना पड़ा, इसपर दुख जताया।

 

कार्यक्रम से लौटकर जीतन सीधे मेरे दफ्तर आये थे और पूरी बात बताई थी।  ये भी बताया था कि उनपर उनके ही लोगों को संदेह है। उनपर नजर रखी जा रही है। दुनिया में परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष करने वाले जिन लोगों में जीतन अपने गीतों से जोश भरते थे, वही अब उन्हें बेगाने समझ रहे थे। कुछ एनजीओ चरित्र के दवाब समूहों का गठबंधन (नेटवर्क) जो जीतन की फांसी से रिहाई के लिए अभियान चला रहा था, उसके लिए भी जीतन उपयोगी नहीं रह गये थे। जीतन मरांडी के लिए ये भी मौत के समान था। जीतन जेल में थे। अदालत में सुनवाई पर जीतन की पत्नी अपर्णा मरांडी उनसे मिलने अपने बच्चे को गोद में लेकर जाती थी। एक बार बच्चे को तेज बुखार था। जीतन या अपर्णा मरांडी जिस परिवर्तन के लिए ये कुर्बानियां दे रहे थे, वह तब दूर दिख रहा था। लेकिन, जेल से रिहाई के बाद उसके साथी भी बहुत दूर चले गये थे। 

 

 

साथियों को शंका थी कि कहीं जीतन मिल रही प्रसिद्धि का लाभ कोई राजनीतिक पार्टी जॉइन कर नहीं उठा लें। इसलिए जीतन सांस्कृतिक कार्यक्रमों से इंकलाब लाने वाली अपनी गतिविधियों से लगभग अलग हो गये। रिहाई के 8-9 महीने बाद जीतन ने मुझे फोन किया था। मिलने की इच्छा जतायी थी। मिलकर उन्होंने बताया कि परिवार चला पाना मुश्किल हो गया है। सो, वे घर की जरूरतें पूरी करने के लिए आयुर्वेदिक औषधियां बनाने और नेटवर्क मार्केटिंग से अपने प्रोडक्ट बेचने वाली कंपनी से जुड़ गये हैं। उन्होंने अपना कुछ प्रोडक्ट मुझे भी बेचा था। उसमें एक तुलसी का अर्क शामिल था। जीतन स्वाभिमानी थे। बाबूलाल मरांडी ने परेशानी में याद करने के लिए कहा था। मगर, जीतन ने कभी उनसे मिलने की कोशिश तक नहीं की। कोई डेढ़ साल पहले भी जीतन से मुलाकात हुई थी। उन्होंने बताया था कि अभी वे दो पहिया, चार पहिया गाड़ियों में लगाने के लिए एक यंत्र बेच रहे हैं। यह यंत्र गाड़ियों की चोरी रोकता है। प्रचार-प्रसार के बाद इस काम में अच्छी आमदनी की उम्मीद जतायी थी। मैंने नेटवर्क मार्केटिंग के काम के बारे में पूछा तो पता चला कि उसमें वे सफल नहीं हो सके। गाड़ियों के लिए यंत्र बेचने के साथ अभी वे एक दूसरी कंपनी से जुड़े हैं। इसमें उनकी टीम बड़ी हो गई है। अच्छा काम चला तो बेटे को खर्चीली शिक्षा दे पाएंगे। उनका बेटा आलोक बड़ा होकर आईपीएस अफसर बनना चाहता है।

जीतन मरांडी के पुत्र आलोक।

 

अब उनकी अचानक मौत की खबर आयी। कई मानवाधिकार संगठन और एनजीओ चरित्र वाले संगठनों को उनकी मौत के कारणों की सही-सही जानकारी तक नहीं है। फंडिंग पर अभियान चलाने वाले संगठनों के घाघ लोग अब अपर्णा मरांडी से कोई हाल-चाल नहीं लेते। पत्रकारों को भी अब जीतन या अपर्णा की नहीं पड़ी है। अब वे सनसनी नहीं रहे। दो-दो लोकसभा और दो-दो विधानसभा चुनाव 2014-2019 में जीतन से मिलने के लिए बेचैन रहने वाले नेताओं के लिए जीतन, अपर्णा या आलोक उपयोगी नहीं रह गये हैं। जबकि पिछले कई महीनों से जीतन बीमार थे। और, लंबे दिनों से रांची में थे। हां, जीतन की मौत पर जरूर आभासी दुनिया में उनके क्रांतिकारी तथाकथित साथी शोक, श्रद्धांजलि, सादर नमन और विनम्र श्रद्धांजलि का आदान-प्रदान कर रहे हैं। 

 

(लेखक जन-सरोकारों से जुड़े झारखंंड के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं। संप्रति देवघर में इंंडियन पंच के संपादक।)

नोट: यह लेखक के निजी विचार हैं। द फॉलोअप का सहमत होना जरूरी नहीं। हम असहमति के साहस और सहमति के विवेक का भी सम्मान करते हैं।